कहते हैं, रिश्ते विश्वास पर टिके होते हैं। एक बार यह धागा टूट जाए, तो फिर लाख जोड़ने की कोशिश करो, कहीं-न-कहीं दरार बाकी रह ही जाती है।
राजीव एक महत्वाकांक्षी युवक था। छोटे से कस्बे से निकलकर उसने शहर में अपनी पहचान बनाई थी। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही वह बेहद होशियार और मेहनती माना जाता था। इसी दौरान उसकी दोस्ती अनुजा से हुई। अनुजा एक सरल, संवेदनशील और भरोसेमंद लड़की थी। दोनों की सोच मिलती थी और समय के साथ यह दोस्ती प्यार में बदल गई।
अनुजा ने अपने परिवार की परवाह किए बिना राजीव का साथ दिया। उसने अपने करियर से ज्यादा महत्व राजीव के सपनों को दिया। दोनों ने साथ बैठकर योजनाएँ बनाई थीं—घर, काम, सपनों की गाड़ी और ढेर सारी खुशियाँ।
राजीव की काबिलियत ने उसे जल्दी ही ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। कंपनी में प्रमोशन, नाम, शोहरत—सब मिलने लगा। वह अक्सर काम के बहाने देर रात तक बाहर रहने लगा। अनुजा ने सोचा यह सब उसकी मेहनत का परिणाम है। वह चुपचाप घर संभालती रही और राजीव का साथ देती रही।
लेकिन धीरे-धीरे अनुजा को एहसास हुआ कि राजीव बदल रहा है। उसके फोन पर पासवर्ड लगने लगे, देर रात अनजाने नंबरों से कॉल आने लगे। अनुजा ने जब सवाल किया तो राजीव ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा—
“अनुजा! मुझे ज़रा-सी आज़ादी नहीं दे सकती? हर बात पर शक करने लगी हो!”
अनुजा चुप हो गई, मगर उसके दिल में शक का बीज जम चुका था।
एक दिन अनुजा ने देखा कि राजीव का बटुआ सोफे पर पड़ा है। उसमें से एक होटल की रसीद निकली, जिस पर दो लोगों का बिल था। दिल धड़कने लगा। उसने हिम्मत जुटाई और राजीव से पूछ बैठी।
राजीव ने हँसते हुए टाल दिया—
“ओह! यह तो क्लाइंट मीटिंग थी। बेकार का शक मत किया करो।”
अनुजा ने अपने मन को समझाया, मगर विश्वास की डोर थोड़ी ढीली पड़ चुकी थी।
कुछ महीनों बाद अनुजा को सच्चाई पता चली। राजीव का रिश्ता उसकी ऑफिस की सहकर्मी निधि से था। यह वही निधि थी, जिसे अनुजा कई बार उनके घर चाय-कॉफी पर बुला चुकी थी। अनुजा को सबसे ज्यादा चोट इस बात ने पहुँचाई कि राजीव ने न सिर्फ उसे धोखा दिया बल्कि उस विश्वास को तोड़ा, जो उसने आँख मूँदकर किया था।
अनुजा ने राजीव से साफ शब्दों में पूछा—
“क्या तुम्हें कभी नहीं लगा कि मैं भी इंसान हूँ? क्या मेरे सपनों, मेरे भरोसे की कोई कीमत नहीं?”
राजीव ने ठंडी साँस लेते हुए कहा—
“अनुजा, मैं नहीं चाहता था कि तुम तक ये बात पहुँचे। लेकिन सच यही है कि मैं निधि के साथ खुश हूँ।”
उसकी आँखों में कोई पछतावा नहीं था। यही अनुजा को सबसे ज्यादा तोड़ गया।
उस रात अनुजा ने सारी बातें अपनी डायरी में लिखीं। उसने लिखा—
“विश्वासघात तब और गहरा लगता है, जब वह अपने ही इंसान से मिलता है। अजनबी से चोट लगे तो सहन हो जाती है, लेकिन अपना ही जब पीठ में छुरा घोंप दे, तो साँस लेना भी मुश्किल हो जाता है।”
काफी दिनों तक अनुजा टूटती-बिखरती रही। लेकिन एक दिन उसने फैसला किया—वह अब अपनी ज़िंदगी राजीव के झूठ और धोखे के नाम नहीं करेगी।
उसने नौकरी जॉइन की, खुद को संभाला और अपने पैरों पर खड़ा होने का संकल्प लिया। धीरे-धीरे उसने खुद को इतना मज़बूत बना लिया कि राजीव की यादें भी उसके हौंसले को डिगा न सकीं।
वक्त बीतने के साथ अनुजा ने महसूस किया कि विश्वासघात कभी भी अंत नहीं होता, बल्कि वह एक नई शुरुआत का रास्ता खोल देता है।
कई साल बाद राजीव की मुलाकात अनुजा से हुई। वह अब आत्मविश्वासी, स्वतंत्र और खुश दिख रही थी। राजीव की आँखों में पछतावा साफ झलक रहा था।
लेकिन अनुजा ने सिर्फ इतना कहा—
“धोखा देने वाले अक्सर सोचते हैं कि उन्होंने किसी और की दुनिया उजाड़ दी। सच तो यह है कि वे खुद अपने विश्वास की कब्र खोद लेते हैं। तुम्हारे विश्वासघात ने मुझे तोड़ने के बजाय मुझे और मज़बूत बना दिया।”
अनुजा वहाँ से चली गई, और राजीव लंबे समय तक खड़ा रह गया—अपने ही अपराधबोध और खोए हुए विश्वास की परछाइयों में।
उर्वी झुनझुनवाला