“बेटा, क्या तूने सचमुच घर जमाई बनने की ठान ली है?”
“हाँ माँ, इसके अलावा कोई चारा नहीं है। अब कंपनी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा है, इसलिए कंपनी बंद कर दी गई है और कंपनी में काम करने वाले हम सब बेरोज़गार हो गए हैं। भला हो कि पारुल के मायके वालों ने अपनी कंपनी में जगह देकर मेरी रोज़ी-रोटी बचा ली। चलो पारुल, चलो जल्दी। लव, इस तैयार हो गया न? उसका सारा सामान पैक कर लो, कुछ छूट न जाए।” गौरव ने पारुल से कहा।
पारुल सामान रखते हुए अचानक याद करने लगी वह पल, जब वह भी एक दिन अपना सारा सामान और सारी महत्वाकांक्षाएँ समेटे गौरव के घर चली आई थी।
गौरव और पारुल एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। प्यार हुआ और शादी करने का मन बना लिया दोनों ने। पारुल गौरव से ज़्यादा संपन्न थी, मगर फिर भी आलीशान घर प्यार में डूबे मन के कारण छोड़ देना आसान हुआ।
माँ-पापा भी कब तक नाराज़ रहते इकलौती बेटी से। कोर्ट मैरिज से एक-दूसरे के हो चुके बेटी-दामाद की दोबारा शादी करवाई और ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया था।
“गौरव को अपना दामाद स्वीकार करेंगी भी या नहीं, यही सोचकर पापा, हमने कोर्ट मैरिज की थी। डर था कि कहीं हम अलग न हो जाएँ।” पारुल ने तब अपने पापा से माफ़ी माँगते हुए कहा था।
फिर गौरव पारुल को उसकी ससुराल में ले आया। प्यार दोनों में कभी कम नहीं हुआ था। गौरव की ठेके की नौकरी का दर्द भी पारुल हजम कर जाती थी, मगर हजम न होता तो उसकी सास का टेबल पर रोक-टोक करना, जासूसी करना और गौरव को भड़काने की साज़िश।
धीरे-धीरे पारुल दूरी बनाने लगी और मायके के क़रीब हो गई। पारुल अक्सर सोचती रहती—“दिल रखने वाला बेटा भी यह यक़ीन करना बड़ा मुश्किल है। न जाने क्यों लोग कहते हैं कि जैसी माँ होती है, बच्चे वैसे ही बनते हैं।”
ख़ैर, हुआ तो यही था कि पारुल खुश थी कि उसका प्यार अब उसका पति बन चुका था। मायके से मिले आर्थिक और मानसिक सहारे ने पारुल, उसके बच्चे और उसके पति के मन और ज़िंदगी की मुश्किल पलों में आबरू रखी थी।
मगर सास के दिल की कसक यही थी कि पारुल को मायके से सहारा क्यों मिलता है। वह चाहती थी कि पारुल उस नौबत से गुज़रे जहाँ वह सास की रहम पर पलती, छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए सास की इच्छा की मोहताज रहती। मंशा पूरी न होती देख, अक्सर गौरव की माँ उसके मायके वालों को अपशब्द कहती और पारुल को हिदायत देती रहती—“मायके को भुला दिया जाता है ससुराल वाली बन जाने के बाद, जैसे हमने छोड़ा था अपना मायका।”
पारुल अतीत की यादों से निकल ही रही थी कि तभी गौरव ने आवाज़ दी—“चलो यार, कहाँ खोई हो?”
पारुल और गौरव साथ में कमरे से निकले। तभी पारुल की आँखें भर आईं।
पारुल ने आगे बढ़कर सास से कहा—
“समझाइए माँजी, इतना तो मेरे मम्मी-पापा भी परेशान न थे, जब उनकी लाडली ने आपके बेटे और आपके इस घर के लिए अपना घर छोड़ दिया था। आपके घर के बर्तन, आपके घर का झाड़ू-पोछा, आपके ही रिश्तेदारों की खातिरदारी—ये सब मैंने किया। जिस पर मेरे मम्मी-पापा ने कभी ना परेशान हुए, ना नाराज़। फिर भी आपने मुझे कभी नहीं अपनाया।
और गौरव तो सिर्फ़ आपको ज्वाइन करने की वजह से जा रहा है ताकि अपना परिवार पाल सके। तो फिर आपको क्यों तकलीफ़ हो रही है?”
यह कहती हुई पारुल बाहर खड़ी कार में जाकर बैठ गई।
कुछ दिनों बाद पारुल की सास का फ़ोन गौरव के मोबाइल पर आया। मगर गौरव बाथरूम में था, इसलिए पारुल ने ही रिसीव कर लिया। आवाज़ कड़क बनाते हुए बोली—
“हाँ जी माँजी, कहिए क्या काम है उनसे? वे तो अभी बिज़ी हैं, मुझसे ही बता दीजिए।”
उधर से आवाज़ आई—
“बहुत दिन हो गए, बहू। गौरव से बात नहीं हुई। उसकी आवाज़ सुनना चाहती हूँ।”
यह कहते हुए पारुल की सास रोने लगी।
पारुल ने कहा—
“अरे माँजी, अब वे भी तो अपनी ससुराल में हैं। लग गया है उनका मन यहाँ। आप अपने बेटे को भूल जाइए।”
पारुल को याद था आज तक, कि किस तरह उसकी सास मायके से फ़ोन आने पर उसके मम्मी-पापा को हिदायत देती थी—“बेटी पराई हो चुकी है, अब यूँ बार-बार फ़ोन करोगे तो वह ससुराल को नहीं अपना पाएगी।”
कभी गौरव को लेकर…
आज पारुल गौरव के साथ सास के पास गई। गौरव को देखते ही सास रोने लगी। पारुल ने उनकी आँखों से आँसू पोंछते हुए कहा—
“बस-बस माँजी, हो गया प्रायश्चित आपका। चलिए, अब हमारे ही साथ। जब तक यह नौकरी में एक मुकाम हासिल न कर ले।”
“पापा ने हमें अलग घर दिया है, सहूलियत से रहने के लिए।”
पारुल ने सास को गाड़ी में बैठाया।
सास को सब मंजर याद आ रहा था—आज तक किस तरह उन्होंने पारुल के साथ कभी अच्छा व्यवहार नहीं किया, हमेशा उसके मायके वालों से दूर रखने की कोशिश की। और आज वही मायके वाले उनको सहारा दे रहे थे।
बच्चों से दूर होना माता-पिता के लिए तकलीफ़ भरा होता है, चाहे वह किसी बेटी के माता-पिता हों या बेटे के। यह तकलीफ़ अब गौरव की माँ समझ चुकी थी। पारुल अब वहाँ ऐसा व्यवहार कभी नहीं करेगी।
यादों की माँ ने सच्चे मन से ठान लिया था।