“क्या वसीयत बनाई है पापा ने! घर, ज़मीन—कुछ भी हमारा नहीं। सब में मम्मी की हिस्सेदारी… जब तक वह जिंदा हैं, तब तक हम कुछ नहीं कर सकते,” —बहू प्रिया ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।
“मैं भी यही सोच रहा हूं। मम्मी को पापा की पेंशन तो मिलती ही रहेगी, पापा के जाने के बाद भी। जानकर भी ऐसी वसीयत बनाना… मैं खुद हैरान हूं,” —बेटे आदित्य ने चिंता व्यक्त की।
शिवनाथ जी का देहांत हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ था और बेटा-बहू अपने रंग दिखाने लगे थे। सुधा जी कुछ नहीं बोलती थीं, लेकिन सब समझ रही थीं कि अचानक बच्चों का व्यवहार कैसे बदल गया।
वह मन ही मन भगवान का धन्यवाद करतीं—”अच्छा हुआ, शिवनाथ जी ने अपनी सोच के मुताबिक सब कुछ तय कर लिया। उन्हें अपनी बेटियों की कोई चिंता नहीं थी—दोनों अपने घरों में खुश थीं, उनका कोई लेन-देन नहीं था। उनकी पेंशन थी, जिससे उन्हें कभी बच्चों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।”
“वो मुझे अकेला छोड़ गए, लेकिन ऐसा इंतजाम कर गए कि मैं कभी किसी पर निर्भर नहीं रहूं,” —सुधा जी का आंचल आंसुओं से भीग गया।
जिंदगी के इस मोड़ पर जब साथी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, तब उसका अचानक चले जाना बहुत तकलीफदेह होता है। फिर यदि बच्चे स्वार्थी हों और व्यवहार बदल जाए, तो यह असहनीय हो जाता है।
प्रियंका और आदित्य इस सोच से परेशान थे कि बिना मम्मी के हस्ताक्षर के कोई भी प्रॉपर्टी का हिस्सा नहीं बेचा जा सकता। वे जानते थे कि मम्मी अपने साथ पूरी प्रॉपर्टी लेकर नहीं जाएंगी—आगे-पीछे सभी चीजें उन्हीं की हैं। फिर भी उन्हें गुस्सा था अपने स्वर्गवासी पिता से कि क्यों उन्हें मम्मी पर निर्भर बना दिया।
“मम्मी, वृद्धाश्रम से कुछ लोग आए हैं, चंदा मांग रहे हैं, दे दीजिए,” —प्रियंका की आवाज में गुस्सा और नाराजगी झलक रही थी।
वृद्धाश्रम के लोग एक-दूसरे को देखने लगे। सुधा जी आकर उनके बीच बैठी और कहा—
“भैया, शिवनाथ जी एक नेक इंसान और समाजसेवी थे। वह अपनी मेहनत से हमारी संस्था को इस मुकाम पर ले आए कि हमें चंदा मांगने की जरूरत ही नहीं। हमारी संस्था में होने वाले कार्यक्रमों को बड़े स्पॉन्सर मिल जाते हैं, और इससे इतनी रकम आती है कि हमारे बुजुर्गों का जीवन आराम से चल रहा है।”
“आपकी बहू ने बिना हमारी बात सुने आपको आवाज़ दी,” —आश्रम का एक सदस्य बोला।
“जी, मैं अपनी बहू की तरफ से माफी मांगती हूं। उसे यह नहीं पता था कि उसके ससुर इस संस्था के कोषाध्यक्ष थे। उसने हमेशा उन्हें पैसे गिनते देखा, वह शायद नासमझ है,” —सुधा जी ने बहू की तरफ से सफाई दी।
“हम तो शिवनाथ जी की याद में एक छोटी सी प्रतिमा संस्था में लगा रहे हैं। उसके अनावरण के लिए हम आपको निमंत्रण देने आए हैं। अगर आप इसे अपने हाथों से करें, तो हमें खुशी होगी। वह अपने नाम को सार्थक करके अमर हो गए हैं।”
सुधा जी की आंखें छलक पड़ीं—”वह इंसान जो समाज के लिए इतना कुछ कर गया, और यहां पराए लोग उसकी सराहना कर रहे हैं, वहीं अपनी ही औलाद उसे गलत समझ रही है।”
सुधा जी मन ही मन सोचती हुई निमंत्रण पत्र ले गईं।
आदित्य उन लोगों के जाने के बाद बाहर आया—
“कितना लिया? पेमेंट चेक से किया या कैश से?”
सुधा जी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गईं। प्रियंका और आदित्य निमंत्रण पत्र देख रहे थे, सोच रहे थे कि संस्था में प्रतिमा स्थापित करने से पहले मम्मी ने बताया क्यों नहीं।
“हां भाई, अब मम्मी को किसी से पूछने की जरूरत नहीं—मम्मी तो मालिक हैं,” —प्रियंका जोरों से बोली।
अगले दिन सुधा जी बेटे-बहू के साथ संस्था पहुंचीं। वहां शिवनाथ जी की प्रतिमा का अनावरण सुधा जी के हाथों से हुआ। प्रतिमा के नीचे पत्नी के नाम के साथ बेटे और बहू का नाम भी अंकित था।
जब संस्था के कार्यकर्ताओं ने शिवनाथ जी के सत्कर्मों के बारे में बताया, तो पूरा हॉल भावुक हो गया। बुजुर्गों को आत्मनिर्भर बनाने, गरीब लड़कियों के सामूहिक विवाह, विधवा विवाह जैसे नेक कार्यों में उनका नाम हमेशा याद किया जाएगा।
प्रियंका और आदित्य कुछ कहने लायक नहीं थे—क्योंकि मां के साथ उन्हें मिल रहा यह सम्मान सिर्फ और सिर्फ उनके पिता की वजह से था। उनकी नजर में तो पिता सिर्फ एक सरकारी कर्मचारी थे, जो अक्सर टूर पर रहते थे।
घर लौटने के बाद प्रियंका और आदित्य मां के पास शर्मिंदा होकर आए—
“मां, हमें नहीं पता था कि वह प्रतिमा संस्था की तरफ से लग रही है, इसलिए हम ज्यादा बोल गए।”
“बच्चों, मतभेद होने में कोई बुराई नहीं, लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए। पापा के पास कभी इतना पैसा नहीं था, फिर भी तुम दोनों को महंगे स्कूलों में पढ़ाया, तुम्हारी शादियां कीं। विचारों में भी तुम पिता-पुत्र में मतभेद रखते थे, पर वह पीढ़ी का अंतर हो सकता है। लेकिन वसीयत को लेकर जो तुम दोनों ने बर्ताव किया, मैं उससे दुखी हुई।”
“तुम लोग इस कमरे और ऑफिस में बैठकर, सब कुछ ऑनलाइन कर लेते हो—लेकिन इसका पीछे वह इंसान था जिसने छोटी सी नौकरी से हमें पढ़ाया, बढ़ाया। तुम्हें वह पिता गलत लग रहा है, क्योंकि उन्होंने मुझे तुम्हारे सामने मोहताज नहीं किया।”
“बेटा, कमी तुममें थी, जो तुम अपने पिता का विश्वास नहीं जीत पाए। देखो, तुम्हारी बहनें तो किसी पर निर्भर नहीं हैं। वह खुद भी आत्मनिर्भर थीं। और पापा ने इस संस्था को भी आत्मनिर्भर बना दिया,” —सुधा जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
प्रियंका पानी लेकर आई—
“बस करो, अब समझ आ गया है हमें। अब और मत बोलिए, वरना तबियत खराब हो जाएगी,” —आदित्य शर्मिंदगी से बोला।
“अच्छा ही है, मर जाऊंगी तो सब कुछ तुम्हारा हो जाएगा। मुझे पर निर्भरता ही तुम्हें अखर रही है? समझ नहीं आता, हमारे समय में मां के पैरों में स्वर्ग और पापा में अपनी दुनिया दिखती थी। अब आज की पीढ़ी को हम बुजुर्ग बोझ लगते हैं।”
“जब तुम छोटे थे, तो मेरे पल्लू से बंधे रहते थे। गहरी नींद से उठाकर पानी भी मेरे हाथ से लेते थे—वह निर्भरता सही थी। अब एक हस्ताक्षर की निर्भरता तुम्हें इतनी बुरी लग रही है,” —सुधा जी ने कहा, जबकि उनकी आंखों में आंसू थे।
आदित्य मां के पैरों में गिर पड़ा—
“मां, आज संस्था में जाकर समझ आया कि मेरे पिता क्या थे। आज जो उनके बारे में सुना, तब समझ आया कि इंसान की असली पहचान क्या है। मरकर भी लोग कैसे दिलों में जीवित रहते हैं। अब मैं वादा करता हूं, तुम्हारा यह बेटा तुम्हें कभी शर्मिंदा नहीं करेगा और पिताजी के रास्ते पर चलने की पूरी कोशिश करेगा।”
सुधा जी अपने बेटे को सीने से लगाकर आंसुओं में डूब गईं।
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