सुनो जी,आज अपने गांव में गाड़िया लुहार आये हैं, उधर से निकलो तो एक तवा उनसे खरीद लाना।
क्यो भागवान, पहले तवे का क्या हुआ,जो नया मंगा रही हो?
असल मे वह छोटा पड़ता है जी।आप चाहते हैं पानी के हाथ की बड़ी करारी रोटी,वही आपका लाडला भी चाहता है।आज आया हुआ है तो कहेगा तो है ही।वह उस पुराने छोटे तवे पर नही बन पाती। वैसे भी ये गाड़िया लुहार सस्ते में ही बना कर दे देते हैं।
ठीक है, ठीक है, आज ही ले आऊंगा।
आज गांव में गाड़िया लुहारों की चार पांच बैल गाड़ियो ने गावँ के मंदिर के पास पड़ी खाली जमीन में अपना डेरा जमाया था।हर साल ही उनका काफिला गावँ आता ही है, महीने बीस दिन रुककर फिर ये आगे चले जाते हैं।
रामप्रसाद और सुनीता दोनो ही गावँ में अकेले अपनी हवेली में रह गये थे।बेटी मीनू ससुराल चली गयी थी,बेटे आशीष ने खेती बाड़ी को तरजीह न देकर नौकरी करना मुनासिब समझा और अपनी पत्नी के साथ वह भी शहर चला गया।लेकिन आशीष हर त्यौहार और छुट्टियों पर जब मौका लगता गाँव अवश्य आ जाता।उसने अपनी निगाहे नही फेरी थी,बस उसकी रुचि खेती में नही थी।
दुपहर के बाद अचानक रामप्रसाद को तवे के बारे में याद आया तो वह मंदिर की ओर चल दिया।वहाँ गाड़िया लुहार लोहे को पिघलाकर अपने मन मुताबिक ढाल रहे थे।कोई महिला धौकनी चला कर आग सुलगा रही थी जिससे उसमें लोहा बिल्कुल लाल हो जाये तो कोई कोई महिला अपने पुरुष सहयोगी के कार्य मे सहयोग करने को लोहे का भारी भरकम घन भी चला रही थी।लाल लोहे पर पड़ी घन की चोट से आवाज टन की नही बल्कि पट पट की आ रही थी।रामप्रसाद को देखने मे ही आनंद आ रहा था।तभी उसे याद आया कि वह तो तवा लेने आया था।
रामप्रसाद तवे के भाव के बारे में पूछने को ही था कि उसने देखा एक गाड़ी के दूसरी ओर एक लुहारिन अस्थायी चूल्हे पर रोटी बनाने का उपक्रम कर रही है।मजे की बात यह थी जिस पर रामप्रसाद का ध्यान विशेष रुप से गया ,कि वह महिला हाथ से रोटी को आकार देकर सीधे ही लकड़ी से बने कोयले के अंगारों पर ऐसे ही डाल कर रोटी सेक रही थी।वह तवे का इस्तेमाल नही कर रही थी।रामप्रसाद अपने को रोक नही पाया और उसने पूछ ही लिया अरे बहन रोटी को तवे पर सेक कर क्यूँ नही बना रही।महिला बोली बाबू तवा 50 रुपये का है,हमारे नसीब में कहाँ।
रामप्रसाद भौचक्का रह गया।घर घर खुद तवे बना कर बेचने वाले ये गाड़िया लुहार अपने बनाये तवे का इस्तेमाल इसलिये नही करते क्योंकि वह 50 रुपये में बिक जायेगा।रामप्रसाद की सोच यही नही रुकी,वह सोचने लगा,महाराणा प्रताप के साथ मुग़लो से टक्कर लेने वाले ये सिपाही राणा प्रताप के बाद निराश्रित से हो गये, मुग़लो के अत्याचारों से बचने को अपना घर बार छोड़ दर दर भटकना इनकी नियति बन गया।सैकड़ो वर्षों से पीढी दर पीढ़ी एक गाड़ी में अपने परिवार को समाये जीवन संघर्ष में रत हैं।इनका अपना कोई मकान नही कोई दुकान नही,कोई स्थायी ठिकाना नही।बस लोहे पर चोट करके कुछ घरेलू वस्तुए बना कर ये जिये जा रहे हैं।हम है कि उसमें प्रयास रहता है 50 रुपये के तवे में भी वह कुछ कम कर ले।
रामप्रसाद सोच रहा था कि जब ये निर्वासित हुए तब तो मुगल थे,उनके बाद अंग्रेज भी 200 साल राज करके चले गये पर अब तो हमारा अपना राज है,तो फिर इनकी सुद क्यो नही ली गयी?क्या इस वीर कौम के प्रति हमने साजिश नही की है?क्यो हम इतना अहसानफरामोश हो गये? ओह इनका ठिकाना ही नही ,खानाबदोश हैं तो इनकी वोट भी नही।जब वोट नही तो इनकी क्या कीमत?
रामप्रसाद की आंखे यह सब सोच सोचकर छलछला पड़ी।वह तवा नही खरीद पाया।तवे के निर्माण करने वाले बेबसी में ही तवे का प्रयोग नही कर पा रहे हैं।गर्दन झुकाये रामप्रसाद घर की ओर वापस चल दिया।तभी आवाज आयी क्या हुआ बाबूजी आप तो तवा लेने गये थे,लाये नही?बोल रहा था आशीष।
रामप्रसाद ने लपककर आशीष के हाथ पकड़ लिये, और भरभराये स्वर में बोला, बेटा आज मैंने वह देखा और महसूस किया है जिस कारण मैं तवा नही खरीद पाया।कौतूहल से आशीष अपने पिता की ओर देख रहा था।रामप्रसाद बोले बेटा मैं हमारी कृतघ्नता देख कर आ रहा हूँ,वीर कौम के प्रति राजनीति की साजिश देख कर आ रहा हूँ,वहां जाकर बेटा मैं तवा खरीद ही नही पाया।रामप्रसाद के अंतःकरण से पीड़ा के स्वर उमड़ रहे थे।आशीष ने अपने पिता के मुँह से कभी ऐसी बाते सुनी ही नही थी।आज जब रामप्रसाद जी ने गाड़िया लुहारों के उस दर्द को अपने बेटे से साझा किया जो वह महसूस करके आ रहा था तो आशीष भी उस दर्द को समझ सिहर उठा।
अचानक ही रामप्रसाद बोले बेटा तू खेती नही करना चाहता था ना ,इसीलिये तूने नौकरी की है ना।सुन मेरे बच्चे छोड़ नौकरी और अपने गावँ में ही लोहे के घरेलू और कृषि के उपकरण के निर्माण का कारखाना लगा ले,उस कारखाने में इन्ही गाड़िया लुहारों को ही रोजगार दे दे।मैं तो बूढ़ा हो गया हूं,मैं विचारों की उड़ान का सपना तो देख सकता हूँ,पर उन्हें साकार रूप नही दे सकता मेरे बच्चे।हम सब नियति के मारो के साथ तो न्याय नही कर सकते,पर अपनी हैसियत के अनुसार एक उदाहरण तो बना ही सकते हैं, शायद आज की राजनीति कुछ समझ जाये, कुछ उन्हें लज्जा आ जाये।क्या पता मेरे बच्चे इन अभागो को न्याय मिल जाये।
आशीष अवाक अपने पिता के मुख को एकटक निहार रहा था।उनकी आंखों में छलकते आंसू उन उपेक्षितों के लिये थे,जिन्हें वे जानते तक भी नही थे।आशीष के हाथ अब भी अपने पिता के हाथ मे थे।अबकि बार आशीष ने अपने पिता का हाथ धीरे से दबा दिया।
एक नयी सोच का आगाज हो चुका था।कौन कहता है कि रात हो गयी तो सूरज नही निकलेगा।अगले दिन की सुबह ने शोषण के खिलाफ बिगुल बजा दिया था,बिना किसी प्रतिशोध की भावना के।नया मार्ग के निर्माण का कार्य प्रारंभ हो चुका था।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित
#साज़िश