पता नहीं क्यों ससुराल वाले बड़ी बहू को इंसान नहीं समझते” – रितिका सोनाली 

प्यार वाला पति मिला या पैसे वाला इस बात की कशम कश में जिंदगी बीती  जा रही है. आशा के पति का मिज़ाज़ अजीब ही है. सारी दुनिया की खुशियां खरीदने को तैयार लेकिन अपने घर में अपने भाई- बहन और माँ-बाप के आगे बिलकुल अदना सा किरदार बना कर रखने वाला व्यक्ति. अपनी आँखों देखी और कानो सुनी बात को नजर अंदाज़ करके अपनी बीवी की बेइज्जती को गले लगाकर चुप

रहता है ताकि उसके माँ बाप के घर में कलेश न हो. लेकिन उसकी बीवी अपने  मन में अपने आत्म सम्मान के प्रति क्या महसूस करती होगी इसपर ध्यान देना जरुरी नहीं समझा उसने. बीवी का सम्मान रौंद कर मिटटी में मिलाता है लेकिन दिखावा करने वाला परिवार कलह से बचा रहे जबकि कलह की शुरुआत खुद वही से हुयी है. ऐसे पति को कोई क्या प्यार करे. अकेली बैठी सोचती है तब लगता है

बस सालभर का दूधपीता बच्चा बड़ा हो जाये  फिर अलविदा कह दूंगी ऐसी जिंदगी को, या शायद इतनी चुप हो जाऊ की अलविदा कहने की ही जरुरत न पड़े. प्यार करने वाले पतियों को देखती है तो कलेजा रिश्ते के बोझ से फटने लगता है. गलत सही करने वाली बीवियों के आगे पतियों को चट्टान की

तरह खड़े होते देख कर आशा को लगता शायद एक दिन उसका पति ऐसा करेगा. शादी को 2 साल बीत चुके हैं पर ये दिन नहीं आया. इस बार तो कमाल ही हो गया जब दिवाली की छुट्टीयो में फिर से सुभाष के माँ बाप के घर जाना हुआ।. . जिस कमरे में खुद पति सोया था उसी कमरे में उसके माँ बाप  उसकी बीवी की बुराई करते रहे और वो सोने की एक्टिंग करता रहा. वो जनता था की ये लोग सब

झूठ बोल रहे हैं, सब बेकार में उसकी बीवी को बुरा भला कह रहे हैं पर उस 1 बच्चे के बाप को चुप रहना और कलेश न करना ज्यादा उचित लगा ताकि उसके माँ- बाप की खुशियों में खलल न पड़े. जबकि हर माहौल, हर त्यौहार, हर उत्सव पर उसके  भाभी- भैया का तमाशा देखने लायक होता है.

पिछले ही साल की बात है, न जाने किस बात पर घर के किस सदस्य से इनके बड़े भाई की प्यारी पत्नी रूठ गयी की ३ कमरों के छोटे से फ्लैट में, १ कमरे में अपने पति और बच्चो सहित बंद हो गयी. सास, ससुर, नन्द और आशा के पति दरवाज़ा पीटते रह गए पर मजाल है की बाहर चल रहे आशा के बच्चे

के काजल की रस्म में निकल के बहार आये. एक और बार  छठ के मौके पर किसी बात पे ऐसा रुष्ट हो गयी आशा की जेठानी, की अटैची बांध कर पति- बच्चो समेत मायके निकल गयी. ऐसे 2-4 ड्रामा डिस्प्ले घर में देखने के बाद आशा सोचती “पता नहीं क्यों ससुराल वाले बड़ी बहू को इंसान नहीं समझते-, सबने उन्हें देवी क्यों बना रखा है।”  

ऐसी हरकतों के बावजूद जेठानी की इज्जत इतनी है घर में कि जो सबसे बेहतर चीज होती चाहे सुख सुविधा या देखने खाने की सब उसके लिए रिज़र्व हो जाता. आशा की पूछ उस घर में धोबी के कुत्ते जैसी थी , न घर के न घाट के. पति अहमियत देता नहीं , घर वालो के लिए वो एंटरटेनमेंट थी क्यूंकि

पति का दबाब था कि किसी भी हालत में चेहरे पे उदासी या शिकन दिखनी नहीं चाहिए ताकि घरवालों को न लगे कि उनकी किसी बात से दुखी है आशा और घर में सब काम करने वाली बाई की जितनी उसकी हैसियत थी. वैसे सुख सुविधा कि कमी नहीं थी  उसके अपने शहर वाले घर में जहा वो सुभाष के साथ रहती है, लेकिन इस  घर में पालतू कुत्ते जितनी भी जगह नहीं थी. साल में १० दिन भी

इस घर में बीता लेती तो उसके साल भर के दुःख का कोटा पूरा हो जाता. पूरे साल आत्म ग्लानि से भरी रहती की ये कैसा संसार है उसका. रूपये पैसे की कमी नहीं लेकिन जिस परिवार से जुड़ना है वहाँ उसकी कोई इज्जत नहीं। इज्जत तो दूर की बात है, उस परिवार में खड़े रहकर पति भी पति नहीं. २ दिन उस घर में बीता कर यूं  लगता जैसे कई जन्मों की सजा यही भुगतना है. इस घर से बेहतर नर्क नहीं है उसके लिए.

“तुम बातों को अपने तक रखना सीखो, आशा। मुझे मत बताओ ये सब, मुझे नहीं जानना है की तुम्हे क्या तकलीफ हुयी मेरे घर वालो के कारन। इतनी सेंसिटिव भी मत हुआ करो। एक नहीं दो नहीं मुझे कुछ बताओ ही मत, वरना मेरा दिमाग ख़राब हो जाता है”- सुभाष ने कहा। “और जो मेरा दिमाग

ख़राब होता है उनकी बातें सुनकर”-राधिका बोली। तुम एक कान से सुनकर दूसरे से निकल दो , क्या फर्क पड़ता है तुम्हे। “क्या फर्क पड़ता है? तुम्हे सचमुच लगता है कोई फर्क नहीं पड़ता है ? शादी की रात से ही जो पिघले शीशे की तरह मेरे कानो में उड़ेल रहे हो , मेरे माँ – बाप , भाई- भाभी, बहन-बहनोई की इज्जत करना , आदर करना।, सम्मान देना , दो – चार बातें बर्दास्त करना , उनसे प्रेम

करना वगैरह वगैरह उन बातों का क्या। मैंने तो इन बातो को सच में स्वीकार कर लिया , अब जब मुझे समझ में आया की इन लोग को मेरे होने से ही समस्या है तो मैं शिकायत भी नहीं करू , चुप रहूं , सुन लू और गधे की तरह हूँ हूँ करू। क्यूंकि ये तुम्हारा परिवार है। इनका ईगो बचाकर रखूं ताकि ये मेरा आत्म सम्मान ख़त्म कर दें। मेरे साथ जाहिलों वाला व्यवहार करें और मैं करने दूँ क्यूंकि मैं तो इंसान हूँ ही नहीं तुमसे शादी होने के बाद। मैं तुम्हारे घर में रखा पंचिंग बैग हूँ , जिसका मन आये वो दो- चार

घूंसे मारे और चलता बने। और बाद में ये भी कहे की बीच में पड़ी थी , दो – चार पड़ना ही था और तुम ये कहो हाँ सही तो कह रहे हैं की तुम बीच में पड़ी ही क्यों थी या फिर उससे भी बेहतर बात की “क्या हो गया दो-चार घूंसे खा भी लिए” शुक्र करो घरवाले हैं। “शुक्र करू, मुंह न तोड़ दूँ।” सोचते

सोचते आँख लग गई। आँखें खुली तो सामने सुभाष खड़ा था और उसकी माँ उसे हल्के हल्के शब्दों में सुबकते हुए कह रही थी- “ मैंने जानबूझ कर नहीं तोड़ा बेटा, मुझसे गलती से टूट गया, लेकिन अब प्रीति और सुधीर दोनों ही मुझसे ऐसे नाराज हैं जैसे बादल  फट गया हो और उनपर गिर गया हो”। माँ ने कहा। सुभाष चुपचाप सुन रहा था। आशा आँखें बंद कर सोने का प्रतित कर रही थी। सुभाष 

अचानक से बोल पड़ा “ माँ उस कमरे में कौन कौन था जब भाभी को तुमने हार दिया और बाते की वो टूट गया है”। माँ ने बोला की वो तो सिर्फ़ मैं, छोटी बहू आशा और बड़ी बहू प्रीति ही थे, और तो कोई भी नहीं था।

माँ आप फ़िक्र ना करो, आप कह देना की ये हार आशा से टूटा, बाक़ी मैं आशा को समझा दूँगा, ऐसे में भैया नाराज नहीं होंगे ज़्यादा और भाभी आशा को चार बातें सुनाकर मन हल्का कर लेंगी।” फिर घर का माहौल ठीक हो जाएगा। आशा से मैं बात कर लूँगा। “अच्छा बेटा ठीक है, “ कहकर वो कमरे से चली गई। आशा ने आँखें खोला और उठकर बैठ गई। सुभाष उसे देखकर चौंक गया, ना बहाना, ना

चालाकी ना कोई बहस बाजी ना ही आशा पर इल्ज़ाम लगाने की जरूरत। “सबकुछ सुन ही लिया होगा तुमने , तुम्हें मालूम ही है की क्या करना है।” आशा ने कहा “हाँ मालूम है ।” वो उठकर बाहर गई। सास, ससुर, जेठ , जेठानी सब बैठे थे , एक दूसरे से मुँह फुलाये हुए , पर चूँकि ननद और ननदोई

जी अभी अभी आए थे तो उनके सामने ढोंग लगा कर इधर उधर की बातें करके बैठे थे। आशा ने  ननद- ननदोई के पैर छूकर प्रणाम किया फिर ख़ुद ही कहने लगी “ भाभी आपका हार मुझसे टूट गया , मम्मीजी की कोई गलती नहीं है।” मैंने ही देखने कि लिए हाथ में लिया था, बस उसी वक्त मुड़ गया और टूट गया, सॉरी।” 

प्रीति ने एकतरफा मुस्कान भरते हुए कहा “ये मत करो आशा , कोई फायदा नहीं है, मम्मीजी ना हमारी हुई हैं और ना होंगी।” मैं इसलिए दुखी नहीं हूँ की मेरा हार टूट गया, मैं इसलिए असमंजस में हूँ कि अगर हार टूट गया था तो मम्मीजी मुझे पहले बता देती, मैं उसे जोड़वाने का इंतज़ाम करती या

नया कोई लेकर आती लेकिन मम्मीजी की आदत है कि हर चीज़ को अपने तरीक़े से होने देने के लिए वो ऐसी मायाजाल फैला देती हैं कि घर के बेटे उलझ जाते हैं और हम दोनों में से एक बहू बुरी बन जाती है दोनों भाइयों की नजर में, फिर इन्हें अपनी ही पत्नी ग़लत लगती है। “ मैं कुछ न कहती, ये तुम्हारा अपना स्ट्रगल है, अपना अनुभव है ससुराल का, तुम्हे और सुभाष जी को खुद ही समझ में

आना चाहिए तभी तुम कोई कदम उठा सकती हो। पर ये बातें आज कह रही हूँ तुमसे क्यूंकि तुम्हे बुरा बनाया जा रहा है मेरे टूटे हुए हार के कारण, तुम्हारे दुःख का कारण मैं नहीं बनाना चाहती ।  मुझे मालुम है की ये हार तुमसे नहीं टूटा है ।  मैंने घर के दूसरे सदस्यों के लिए अपने सर पर बहुत इल्जाम लिए हैं, पर तुम्हे मेरे लिए ऐसा करने की जरुरत नहीं है, इस घर में हम दोनों की पोजीशन एक सी ही

है।  कम से कम हम दोनों एक दूसरे के साथ सच बोल सकते है। अगर मैंने ये सच्चाई तुम्हे किसी और बात पे बताई होती तो तुम्हे शायद घरवालों की मीठी बातें सुनकर मेरी बातों पर यकीं नहीं होता और तुम्हारा मन हमेशा दुविधा में ही घिरा रहता।  इससे बेहतर है की मैं तुम्हे खुद समझने दूँ की इस घर के तौर तरीके क्या हैं और खुद की ख़ुशी के लिए तुम्हे जीने का कैसा फैसला लेना है।  

सब आश्चर्य चकित होकर बड़ी बहू प्रीति की तरफ़ आँखें फाड़ कर देखने लगे। क्या बाक़ी जा रही हो प्रीति- ननद श्वेता ने टोका।” सच ही तो कह रही हूँ दीदी, और ये बात तो मुझे समझ भी नहीं आई थी जब तक आशा इस घर में नहीं आई थी। अब जब आशा की देखती हूँ की कैसे घर में सारी गलतियों

का ठीकरा उसके माथे पर फुट जता है तब मुझे समझ में आया की ये खेल मेरे साथ पिछले कई सालों से होता आ रहा हैं। अब जब मैंने अपने पैर मजबूती से जमा लिए ग़लत और सही बातों में अंतर करके आवाज़ उठाने की तो अब ये सब ड्रामा तुम्हारे साथ हो रहा है। वैसे मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता पर मैंने सात

साल झेल लिया है , उसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ है उल्टा मैं ही डिप्रेशन का शिकार हो गई हूँ। ऐसा लगता है जैसे हमेशा , हर वक़्त मैं ही ग़लत हूँ। अब तो दोस्तों के बीच, अपने ख़ुद के भाई-बहनों के बीच मज़ाक़ में कहीं हुई बात और हसी-ठिठोली भी बुरी लगती है। दूसरो की ईगो को बनाये रखने के लिए इनका दिया ज़हर पीना ख़ुद को सिर्फ़ मौत की तरफ़ ही ले जाता है। 

मत करो ऐसा आशा , ना मम्मीजी के लिए और ना ही सुभाष जी के लिए, और ना ही घर की सुख शांति के लिए। जब माँ ही अपने घर और अपने बेटे बहू का भला ना चाहे तो इसमें तुम और मैं ख़ुद को झोंककर क्या ही बचा पायेंगे। 

आशा के पीछे खड़ा सुभाष  चुपचाप भाभी की सारी बातें सुन रहा था। उसकी आँखों में निशब्द माफ़ी के भाव साफ़ दिख रहे थे। आशा के आँखें गंगा बहा रही थी और मम्मीजी उठकर रसोई में जाकर रोने का नाटक कर रही थी। दोनों भाई अपने अपने कमरे में लैपटॉप खोलकर कुछ काम करने लगे थे , ननद और ननदोई की पापाजी के साथ खुसुर फुसूर की आवाज़ें गेस्ट  रूम से आ रही थी। दोनों बहुएँ टीवी चला कर अपनी पसंद की फ़िल्म लगा कर देखने लग रही थी।

रितिका सोनाली 

पता नहीं क्यों ससुराल वाले बड़ी बहू को इंसान नहीं समझते” 

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