एक सालगिरह ऐसी भी – ज्योति आहूजा :

 Moral Stories in Hindi

पंकज और संध्या पुणे की एक सुंदर सोसायटी में रहते थे। पंकज की नौकरी काफी अच्छी थी, पैकेज भी शानदार था, और घर में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी। बच्चे—बड़ी बेटी सृष्टि (24 वर्ष) और बेटा आदित्य (22 वर्ष)—भी अच्छे कॉलेजों में पढ़ चुके थे। सब कुछ व्यवस्थित और वेल-सेटल था, और ज़िंदगी में किसी चीज़ की कमी नहीं थी।

जब पंकज और संध्या की शादी हुई थी, तब पंकज की नौकरी अजमेर में थी। शादी के बाद संध्या भी वहीं आकर बस गई थीं। उसी छोटे-से किराए के दो कमरों वाले मकान में, जहाँ दीवारों से सीमेंट झड़ता रहता था, उनके जीवन की शुरुआत हुई। एक साल बाद वहीं सृष्टि पैदा हुई, और दो साल बाद आदित्य का जन्म भी उसी मकान में हुआ। पंकज की तनख़्वाह बहुत कम थी, लेकिन घर में खुशियों की कमी कभी नहीं रही। धीरे-धीरे नौकरी में तरक्की मिली, अगले एक–दो साल में दूसरे शहरों में तबादले हुए, और आखिरकार आज पुणे में अपने तीन कमरों के फ्लैट में यह परिवार सुख–शांति से रह रहा है।

अगले दस दिन के भीतर पंकज और संध्या की 25वीं शादी की सालगिरह आने वाली थी। लोग आजकल इस सालगिरह को अलग-अलग ढंग से मनाते हैं। कोई डेस्टिनेशन पर जाकर बड़ी पार्टी करता है, कोई घर में परिवार के साथ साधारण ढंग से बिताता है, कोई धार्मिक आयोजन करवाता है, और कोई विदेश घूमने चला जाता है।

लेकिन सृष्टि की सोच कुछ और ही थी। उसे लगा कि पार्टी तो हर कोई करता है, लेकिन वह कुछ ऐसा करना चाहती थी जो मम्मी–पापा के दिल को भीतर तक छू जाए।

सृष्टि को याद आया कि मम्मी अक्सर पुराने दिनों का ज़िक्र करती थीं—

“हम अजमेर में रहते थे, पापा की पहली नौकरी थी। जब मैं उनके साथ आई थी, उस समय छोटी सी दुकान थी, वहाँ चाट–पकोड़ी खाने जाते थे। छोटे-से सिनेमाघर में फिल्म देखते थे, और शहर से बाहर एक छोटी-सी चाय की टपरी थी, जहाँ बाइक पर बैठकर जाते थे।”

सृष्टि ने ठान लिया कि इस सालगिरह पर वही सब दोहराएगी। उसने मकान मालिक का नंबर ढूँढा और फोन किया। शुरू में तो उन्होंने पहचाना ही नहीं—आख़िर 25 साल पुरानी बात थी। बोले—“अब तो मकान सुधर चुका है, उसमें कोई और रहता है।” पहले राज़ी नहीं हुए, पर बहुत समझाने पर मान गए और बोले—“ठीक है, अगर बस एक–दो घंटे की बात है तो आ जाइए।” यह सुनकर सृष्टि बहुत खुश हो गई और आदित्य को भी अपने प्लान में शामिल कर लिया।

दोनों भाई–बहन ने सोचा कि आजकल सब फ्लाइटों से जाते हैं, पर उस दौर में मम्मी–पापा बस और ट्रेन से सफर करते थे। अगर असली स्वाद देना है तो ट्रेन से ही जाना होगा। उन्होंने ट्रेन की टिकटें बुक कराईं और साधारण होटल का कमरा भी ले लिया। आदित्य को थोड़ी झिझक हुई—“अब जब हम इतने सुख–सुविधाओं में रहते हैं तो क्या साधारण होटल में रुक पाएँगे?”

सृष्टि ने समझाया—“बड़े कभी अपनी जड़ों को नहीं भूलते। उन्होंने मेहनत से ऊँचाई पाई है, मगर मुझे पता है कि वे अभी भी जमीन से जुड़े हुए हैं। उन्हें यही असली तोहफ़ा लगेगा।” आदित्य भी मान गया।

दोनों ने गूगल पर जाकर वह सब जगहें चेक कीं—पकोड़ी की दुकान, सिनेमा हॉल, चाय की टपरी—ज्यादातर जगहें अब भी थीं। यह देख दोनों के चेहरे खिल उठे।

कुछ दिन पहले जब घर में यह चर्चा हुई थी कि “सालगिरह पर क्या करना है?” तो बच्चों ने चुप्पी साध ली थी। लेकिन अब, सब तैयारी पूरी होने के बाद, उन्होंने पापा–मम्मी को बताया—

“हम आपको अजमेर ले जा रहे हैं। पापा, आप तीन दिन की छुट्टी ले लीजिए। टिकट, होटल सब हम बुक कर चुके हैं। हमने सब व्यवस्था कर ली है।”

पंकज ने मुस्कुराकर कहा—“मेरी बेटी बड़ी हो गई है। समझदार हो गई है। अब तो कमाने भी लग गई है।”

माँ और पापा की आँखों में गर्व और खुशी चमक उठी। परिवार में इतना अपनापन और प्यार था कि किसी चीज़ पर ज़्यादा सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी।

फिर वह दिन आ गया। पैकिंग हुई, सब ट्रेन में बैठे। खिड़की से बाहर देखते हुए, वही सफ़र, वही साधारणपन, मगर कितना सुकून था। अजमेर पहुँचने पर, जैसे ही संध्या ने पुराने मकान की रसोई की स्लैब को छुआ, उनकी आँखों से अश्रुओं की धार बह निकली। उन पुराने दिनों की यादें उमड़ आईं—जब वे पहली बार वहाँ आए थे, बस अपनी छोटी दुनिया में खुश थे।

सृष्टि और आदित्य ने दो बाइक किराये पर ली और उन पर बैठ  सब उसी चाय की टपरी पर गए, वही चाय पी ।हवा में वही खुशबू, वही ठंडी शाम का अहसास—यादें जीवित हो उठीं। फिर वे उसी पार्क में गए, जहाँ शादी के शुरुआती दिनों में शाम को बैठकर बातें करते थे। वहाँ की मिट्टी, पेड़-पौधे और हवा—सब कुछ उनकी ज़िंदगी के पुराने पन्नों से जुड़ा हुआ था।

सृष्टि ने प्रस्ताव रखा—“चलो, आज सिनेमा भी देख लेते हैं, उसी पुराने सिनेमाघर में।”

सिनेमाघर अब थोड़ी आधुनिक और ठीक हालत में था, लेकिन यादें वही पुरानी थीं। फिल्म शुरू हुई, और मम्मी–पापा की आँखों में हल्की मुस्कान और हल्की नमी दोनों झलक रही थी।

रात को शहर से थोड़ी दूर प्यारेलाल के ढाबे पर गरमा गरम तड़के वाली दाल और लाल सुर्ख तेज़ मिर्च वाली आलू प्याज़ की सब्जी के साथ तंदूरी रोटी मानो कह रहे हो “क्यों है ना किसी पाँच सितारा होटल के लंबे बूफ़े से कहीं गुना स्वादिष्ट और सुकून से भरा ।

ये वही ढाबा था जहाँ कभी कभी खाने पति पत्नी आते थे ।

 आख़िर में उन सब जगहों पर बिताए गए पल—चाय की टपरी, बाइक की सवारी, पार्क की शाम, सिनेमा एवं ढाबा सिर्फ जगहें नहीं थीं, बल्कि उन दिनों की खुशियों का प्रतीक बन गई थीं। बच्चों की कोशिश ने मम्मी–पापा को उनकी जड़ों से फिर जोड़ दिया और सालगिरह का असली जश्न वही बन गया।

पंकज ने मुस्कुराकर कहा—“ऐसा मज़ा तो कभी नहीं आया। ज़िंदगी का सबसे अनमोल तोहफ़ा यही है।”

माँ की आँखों से झलकते आँसू इस बात का सबूत थे कि बच्चों ने सच में उन्हें वह खुशी दी, जो हर पार्टी और हर दिखावे से कहीं ज़्यादा गहरी थी।

और पंकज एवं संध्या के जीवन के अध्याय में एक महत्वपूर्ण पृष्ठ अंकित कर गयी थी ।

पूरे परिवार ने सभी जगहों पर अनेक तस्वीरें खिंचवाई और पुणे वापिस आकर सृष्टि ने एक एल्बम तैयार की जिसके अग्रिम पृष्ठ पर लिखा था “एक साल गिरह ऐसी भी “।

प्रिय पाठकों, उम्मीद करती हूँ यह कहानी आपको पसंद आएगी।

ज्योति आहूजा

Leave a Comment

error: Content is protected !!