पन्नालाल जी एक परंपरागत व्यक्ति थे। वे अपने परिवार के साथ रहते थे—पत्नी, दो बेटे और उनकी बहुएँ।
उनका बड़ा बेटा पढ़ाई-लिखाई में तेज़ था, ईमानदार और सादगी पसंद भी। पर जब उसकी शादी की बारी आई तो पन्नालाल जी के मन में समाज में ऊँचा दिखने और दहेज के लालच ने जगह बना ली।
पन्नालाल जी अक्सर कहते,
“बड़ा बेटा है, रिश्ता भी ऐसा होना चाहिए जिससे हमारे क़दमों में धन और शान-ओ-शौकत आ जाए।”
बड़े बेटे ने धीरे से कहा भी था,
“पिताजी, लड़की का घर साधारण हो पर दिल अच्छा होना चाहिए।”
लेकिन पन्नालाल जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी और अमीर घर की लड़की से रिश्ता पक्का कर दिया।
कुछ ही समय बाद बड़ी बहू घर आई। उसका पहनावा, उसका बोलने का ढंग, और मायके की शानो-शौकत की कहानियाँ सबको भा गईं। घर में हर जगह उसी की तारीफ़ होने लगी।
इधर, छोटे बेटे की शादी एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की से हुई। छोटी बहू का जीवन बेहद सरल था। वह सुबह से रात तक घर के हर काम में जुटी रहती—सास-ससुर की दवाइयों का ध्यान रखना,स्कूल में अध्यापिका की नौकरी के साथ साथ सबके लिए भोजन बनाना, यहाँ तक कि बड़ी बहू के भी काम सँभाल लेना।
लेकिन उसकी मेहनत और सेवा को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता।
सासु माँ अकसर कहतीं,
“अरे, देखो बड़ी बहू कितनी संस्कारी है। उसके मायके का ही असर है, तभी तो घर में रौनक है।”
छोटी बहू चुपचाप मुस्कुरा देती। उसके मन में कोई शिकायत न होती, बस यही सोचती—
“घरवालों को सुखी देखना ही मेरा धर्म है।”
एक दिन की बात है। रात का समय था, घर के सब लोग अपने-अपने काम में लगे थे। सासु माँ बरामदे से गुज़र रही थीं। तभी उन्होंने अनजाने में बड़ी बहू को फ़ोन पर अपनी माँ से बात करते हुए सुन लिया।
बड़ी बहू (हँसते हुए फ़ोन पर):
“अरे माँ, यहाँ सबको मैंने बेवकूफ़ बना रखा है। असल में मुझे किसी से कोई लगाव नहीं। जो भी काम छोटी बहू करती है, उसका नाम मेरे हिस्से में लिख जाता है। और सासु माँ? अरे, उन्हें तो मैं दो मीठी बातें बोल दूँ तो बस मेरी ही तारीफ़ करती रहती हैं।”
ये बातें सुनकर सासु माँ जैसे पत्थर की मूर्ति बन गईं। उनके दिल पर गहरी चोट पहुँची। आँखों से आँसू बहने लगे।
अगले दिन सुबह, सासु माँ ने छोटी बहू को रसोई में अकेले बुलाया।
सासु माँ:
“बिटिया, मैंने अब तक तुम्हें अनदेखा किया। तेरी मेहनत, तेरी सेवा, तेरी निष्ठा… सबको नज़रअंदाज़ किया। मैं धन-दौलत के मोह में अंधी हो गई थी। पर कल रात मैंने सब सुन लिया… मेरी आँखें खुल गईं।”
छोटी बहू (नम्रता से):
“माँजी, ऐसा मत कहिए। मैंने तो सिर्फ़ अपना कर्तव्य निभाया है। आपके चरणों की सेवा करना ही मेरे लिए सबसे बड़ा सौभाग्य है।”
सासु माँ (आँखों में आँसू लिए, छोटी बहू को गले लगाते हुए):
“नहीं बेटी, तू इस घर की असली लक्ष्मी है। मैंने तेरा मूल्य नहीं समझा। आज से तेरे बिना इस घर की कल्पना भी नहीं कर सकती। तेरा निस्वार्थ भाव ही इस परिवार की ताक़त है ।
उस दिन जब पन्नालाल जी और बाकी घरवालों को ये सब पता चला तो सबकी आँखें नम हो गईं।
पन्नालाल जी (गंभीर स्वर में):
“आज मुझे अपनी सबसे बड़ी भूल का एहसास हो रहा है। मैंने रिश्तों को तौला था पैसों से, न कि भावनाओं से। असली इज़्ज़त तो वही है जो प्रेम और अपनापन से मिलती है। धन तो क्षणिक है, पर सच्चे रिश्ते जीवनभर साथ देते हैं।”
बड़े बेटे ने भी सिर झुकाकर कहा,
“पिताजी, आप सही कह रहे हैं। मैंने भी देखा है कि मेरे जीवन में सुख-शांति मेरी पत्नी से नहीं, बल्कि भाभी के त्याग और सेवा से मिलती है।”
पूरा परिवार एक साथ बैठा। सबने मिलकर छोटी बहू के त्याग और प्रेम की सराहना की। उस दिन से घर का माहौल बदल गया।
अब छोटी बहू को न केवल सम्मान मिला, बल्कि सभी ने उसे घर की धड़कन और असली लक्ष्मी मान लिया।
धन और शान-ओ-शौकत से रिश्ते कभी गहरे नहीं बनते। सच्चाई, प्रेम और सेवा ही वह धरोहर हैं जो परिवार को जोड़कर रखती हैं।
उस दिन से घर में रोज़ सुबह तुलसी के सामने दीया जलने लगा। परिवारजन मिलकर प्रार्थना करते—
“हे प्रभु, हमें धन से नहीं,
प्रेम और सेवा से धनी बनाना।”
और यह सत्य सबके दिल में बस गया कि—
धन वैभव घर लाए, टिके न चिरकाल।
प्रेम सेवा से बने, जीवन सुखमय भाल॥
माधवी मूंदरा मुंबई