Moral Stories in Hindi
“बबलू ,आज शाम को बुआ आ रही है।साथ में फूफाजी और बेटी कविता भी आ रहें हैं।बाजार से सब्जियां तो मैं ले आऊंगी।तू मिठाई लेते आना बेटा। दर्जी के यहां से पापा के कपड़े भी लेते आना।”बबलू ने सिर हिला कर हामी भर दी।
नैना का दिल फट जाता था,बेटे को ऐसे हुकुम सुनाने में।पति अकस्मात लकवाग्रस्त हो गए थे।आय का कोई साधन नहीं था,तो बबलू पढ़ाई के साथ-साथ एक रेस्टोरेंट में काम करने लगा था।नैना कहीं काम पर जा नहीं सकती थी, क्योंकि पति की देखभाल करनी पड़ती थी।एक ही ननद थी,जो हर साल राखी पर आती थी।जब तक पति (सुनील) काम करते थे,बहन और जीजा की आवभगत में कोई कमी नहीं होने देते थे।अब पिछले साल से परिस्थिति विपरीत हो गई थी।
ननद (सुनीता) अपनी सामर्थ्य अनुसार आर्थिक मदद करती थी।हर महीने एक हजार रुपए भेजती थी,भाई को। शारीरिक अस्वस्थता और असमर्थता ने चिड़चिड़ा बना दिया था सुनील को।बबलू के भविष्य के सुनहरे सपने देखे थे एक पिता ने।कम उम्र में घर की जिम्मेदारी उठाते बेटे को देखना बड़ा तकलीफ देह होता है पिता के लिए।
अक्सर सुनील नैना से कहते”बबलू को सुनीता के पास जाने के लिए मना लो नैना।वहां रहकर पढ़ाई अच्छे से हो जाएगी।दामोदर जी की दुकान में मदद कर देगा,तो वो भी खुश रहेंगे।”नैना तो मां थी,कभी मन नहीं माना बेटे को दूर भेजने का।दामोदर जी जब भी आते,अपने पैसों का रौब झाड़ते। बात-बात पर बबलू को नीचा दिखाकर कहते”बड़ा बेवकूफ है रे तू।इतना बड़ा हो गया,पर दुनियादारी नहीं सीखी।क्या पढ़ाई करता है?तेरे भरोसे तो हो गया इस परिवार का बंटाधार।”बबलू बिना कोई उत्तर दिए सर झुकाए खड़ा रहता।उनकी एक और आदत थी।कैरम खेलने के बहुत शौकीन थे।पहले साले के साथ शर्त लगाकर खेलते।अब आते ही बबलू के साथ खेलने की ठान ली।बबलू ने कैरम खेलना अपने पिता से ही सीखा था।राखी वाले दिन सुनील को राखी बांधी सुनीता ने,और कविता ने बबलू को।दोपहर में नैना ने सभी को प्रेम से खाना खिलाया।शाम को फूफाजी का फरमान जारी हुआ”आज तो बबलू के साथ कैरम में दो-दो हांथ हो जाएं।बबलू ने अगर मुझे हरा दिया तो,एक हजार ईनाम।मैं जीता ,तो भी बबलू को ईनाम ही दूंगा।बच्चे से क्या ही लूंगा मैं”उनकी बातों में घमंड था।सुनील जी ने कहा”दामोदर बाबू,आप ठहरे पुराने खिलाड़ी,ये बबलू कहां आपका मुकाबला कर पाएगा?मुझे ठीक हो जाने दीजिए,मेरे साथ खेलिएगा।”दामोदर जी ने साले को छेड़ते हुए कहा”अरे ,अब तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है।मेरे साथ खेलेगा,बैठेगा तो समझदारी सीखेगा,नहीं तो ऐसे ही बेवकूफ बना रहेगा।नोटों की तो पहचान नहीं है इसे।पहले भी जब आता था,सामने सौ,दो सौ और पांच सौ के नोट रखकर जब भी उठाने के लिए कहा,इसने सौ का ही उठाया।मैं कविता से शर्त लगाता था,कि यह सौ ही उठाएगा,और जीतता रहा मैं।अब देखूं खेल में क्या समझ है इसकी?’
सुनील जी को भी अपने बेटे की बेवकूफी की कहानी अच्छी नहीं लगी।अरे ,इतना बड़ा तो है कि नोट पहचान सके।पांच सौ का नोट बड़ा होता है,यह तो किसी छोटे से बच्चे को भी मालूम होगा।सुनील जी ने बबलू की तरफ उम्मीद से देखा,मन ही मन कहा कि,हारकर मेरी बेइज्जती मत करवाना।खेल शुरू हुआ।पहले तो बबलू ही जीत रहा था।नैना की आंखों में चमक बढ़ रही थी,और दामोदर जी की आंखों में गुस्सा।अचानक बबलू हारने लगा।हारता ही गया।एक भी गोटी जगह पर नहीं पहुंची।एकतरफा खेल में दामोदर जी विजयी हुए।जीत का जश्न मनाने मिठाई मंगवाई गई,और बबलू को जीत का नेंग दिया गया।
सुनील जी को हताश और दुखी देखकर नैना को बहुत बुरा लगा।खेल में माहिर थे बाप-बेटे,फिर बबलू हार कैसे गया?दामोदर जी का विजयी अट्टहास,अंदर तक चोटिल कर गया नैना को।रात के खाने के बाद,जब सब सोने चले गए,तो नैना ने बबलू से पूछा”ऐसे अपनी हंसाई करवाने में तुझे शर्म नहीं आई रे।तू तो बहुत बढ़िया खेलता है।फूफा जी तुझे हमेशा नीचा दिखाते हैं।आज तो तेरे पास एक मौका था,यह बताने का कि तू बेवकूफ नहीं,समझदार है।पापा कितने दुखी हुए,पता है।तूने खुद अपना अपमान करवाया है।पापा के सामने एक दो दिन मत जाना।बहुत गुस्सा हैं तुझसे।पता नहीं हारकर तुझे बुरा क्यों नहीं लगा?”
बबलू ने मां के हाथ को कसकर पकड़ा और बोला”मां,फूफाजी हमेशा मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करते रहें हैं।नोट सामने रखकर जब बोलते,सबसे बड़ा वाला उठा ले,तब मैं जानबूझकर सबसे छोटा नोट लेता।इससे दो फायदे हुए,पता है।एक तो मैं सौ-सौ के बहुत सारे नोट जमा कर लिया।मेरे सौ का नोट लेने से उनके अहं को भी संतुष्टि मिली।वो पैसे वालें हैं।दूसरों को हांथ बड़ा कर देने से ज्यादा सुख ,लेने वाले की नीची लाचार नजरें और फैला हुआ हांथ देखने में आता है।मैंने कई बार
उन्हें बुआ से कहते सुना है कि”,सुनील
तो भिखारी का भिखारी ही रह गया।इतने सालों में अपनी कोई तरक्की ही नहीं कर पाया।अब बीमार होकर घर पर पड़ा है।तुम कहती थी कि बबलू पढ़ने में होशियार है बहुत। डॉक्टर बनेगा।ऐसे डॉक्टर बनेगा।ना बुद्धि,ना पैसा,और ना ही माहौल।अरे डॉक्टर तो हमारी कविता बनेगी।पर तुम्हें तो तुम्हारा भतीजा ज्यादा होशियार लगता है।इसलिए मैं उसकी होशियारी की मिसाल दिखाने के लिए,ये खेल खेलता हूं।इसे तो अपने दुकान में बिठाने की सोचना भी मत।हर महीने जैसा भेजती हो,भेज दिया करो।बड़ा आया डॉक्टर बनने वाला।”उनकी हमारे प्रति सोच कैसी है,जानता हूं मैं।अभी मेरी ऐसी परिस्थिति नहीं कि मैं अपने समझदारी का प्रदर्शन करूं उनके सामने।हांथ फैलाकर उनसे कुछ मांगा नहीं हमने कभी,ना ही मांगेंगे।अपने अहं की खातिर उन्हें यदि मेरे बेवकूफ बने रहने में सुख मिलता है,तो बना रहूं ना मैं बेवकूफ। सौ-सौ के नोट जमा करके आज हमारे बहुत काम आए मां।तुम पूछ रही थी ना कि दवाई के पैसे किस्से लिए मैंने?ये वही पैसे थे।रही बात खेल की,तो इसमें भी यदि मैं जीत जाता तो उनका घमंड टूट जाता।फिर शायद कभी ऐसी शर्त भी नहीं रखते।तो मां यदि कोई मुझे बेवकूफ समझकर खुश हो रहा है,और उसमें मेरा कोई नुक्सान भी नहीं हो रहा ,तो क्या बुराई है बेवकूफ बने रहने में।वो पैसे वालें हैं,तो समझदार भी समझते हैं खुद को।मैं समझाता रहता हूं कि वे ही हैं समझदार।हमारी दशा अभी ठीक नहीं है,तो हमें बेवकूफ ही बनना शोभा देता है।उनके इस घमंड की प्रदर्शनी में पापा के इलाज के लिए कुछ पैसों का इंतजाम हो जाता है।जब पापा पूरी तरह ठीक हो जाएंगे,हम गरीबी से बाहर निकल पाएंगे,तब यह तुम्हारा बेवकूफ बेटा, बेवकूफ नहीं रहेगा।”
बबलू की समझदारी की बातें सुनकर नैना दंग रह गई। इतनी कम उम्र में ज़िंदगी का इतना बड़ा रहस्य जान लिया जो,उसे और समझदार होने की कोई जरूरत नहीं।मेरा बेवकूफ बेटा ही हमारे बुढ़ापे की लाठी है।
बबलू से बात करके पलटी ही थी ,कि सुनील जी छड़ी पकड़े वहीं खड़े दिखे।बबलू को इशारे से पास बुलाया और सीने से लगा लिया।बोले”तू तो हमारा राजा बेटा है। समझदार बेटा है।मैं कैसे तुझ पर विश्वास नहीं कर पाया।तू ज़िंदगी में बहुत बड़ा बनेगा बेटा,ये हमारा आशीर्वाद है तुझे।”
शुभ्रा बैनर्जी