प्रत्येक शनिवार, घर के निकट बने शनिमंदिर में कुछ असहाय वृद्ध,कुछ चलने में लाचार,कुछ दृष्टि विहीन पुरुष और महिला सुबह से ही कतार बद्ध होकर बैठ जाते।शनि मंदिर में श्रद्धालुओं का आना निश्चित होता था।हर श्रद्धालु अपनी क्षमता के अनुरूप भगवान के नाम से इन्हें खाने-पीने की सामग्री,पैसे और भी दान दिया करते।रमा नियमित तो नहीं जा पाती थी,परंतु अवकाश पड़ने पर अपनी सामर्थ्य अनुसार मदद करती थी।वहां आने वाले अधिकतर बुजुर्ग असहाय लाचार थे।उनके लिए कुछ भी लेकर जाओ,बड़े खुश होकर लेते और ढेरों दुआएं देते।
दो सप्ताह पहले दो बहनें(एक दस वर्ष की और दूसरी सात या आठ वर्ष की)मंदिर के प्रांगण में बैठी दिखीं।छोटी वाली ने रमा को देखते ही कहा”आंटी,कहां जा रही हो?मंदिर नहीं आओगी क्या?”
रमा असमंजस में पड़ गई।आज सासू मां की दवाईयां लेने जाना था अस्पताल।बहुत दिनों के बाद विद्यालय में अवकाश मिला था,शनिवार का।शाम को बाजार भी जाना होगा,यही सोचकर सुबह दवाईयां लाने का काम निपटाने की सोची थी रमा ने।उस छोटी सी बच्ची के चेहरे में गजब का तेज था।रमा ने कहा”तू कब से यहां आने लगी ?मैंने तो तुझे पहले नहीं देखा कभी।”वह शर्माते हुए बोली”अम्मा आने नहीं देती थी।आज दिद्दी के साथ अम्मा को बिना बताए आ गई।पूड़ी -हलवा मिलता है यहां,हर हफ्ते।वहीं खाने का मन किया।”
रमा ने जल्दबाजी में कहा”ठीक है,जाना मत यहां से।मैं अभी अस्पताल से आती हूं।”उसने आज्ञाकारी बच्ची की तरह सिर हिला दिया।
सासू मां की दवाई लाकर अलमारी खंगालने लगी रमा,कि बेटी के कुछ कपड़े मिल जाएं।सामने की दुकान से सभी के लिए थोड़ा -थोड़ा चांवल-दाल और शक्कर खरीदा रमा ने।उस बच्ची को देने के लिए जो कपड़े निकाले,थोड़े बड़े ही पड़ेंगे उसे।साथ में जब चॉकलेट भी दी उसे,उसकी आंखों में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी।जब चलने को हुई रमा,तो वह लड़की पास आकर बोली”थैंकू आंटी।”रमा को उसकी निष्पाप मुस्कराहट भा गई।उसके सर पर हांथ फेरकर धीरे से कहा”छुटकी, स्कूल जाती है तू?”उसने भी जोश के साथ कहा”हां,तीसरी में पढ़ती हूं ना।”
रमा ने कहा”शाबास बेटा,पढ़ाई करना अच्छी तरह।बड़ी होकर खूब बड़ा बनना।यहां मत बैठा कर।घर में रहा कर।स्कूल के लिए कुछ जरूरी हो,तो रविवार के दिन आया कर मेरे पास।वो जो बरगद के पेड़ के पास वाला घर है ना,वही मेरा घर है।”उसने चमकीली आंखों को फैलाकर अच्छा कहा।
अगले ही दिन रविवार था।सुबह ठीक नौ बजे आ पहुंची वह।दरवाजा खोलते ही सामने उसे खड़ा देख दंग रह गई रमा”क्या हुआ?इतनी सुबह-सुबह कैसे आई ?”
उसने तपाक से कहा”अरे!तुम्हीं तो बोली थी कल।भूल गई?मेरे पास स्कूल का बैग नहीं है नया।दोगी क्या तुम?”रमा का बेटा तभी नौकरी पर जाने के लिए तैयार हो रहा था।रमा ने उससे कहा”खाएगी कुछ?पूड़ी सब्जी बनाई हूं आज।हलवा नहीं बना।”
उसने भी तपाक से कहा”पन्नी में दे दो ना।अम्मा और दिद्दी को भी दूंगी।”रमा ने फटाफट कुछ और पूड़ियां तल लीं।पन्नी में सब्जी तो नहीं दे सकती थी ,रसे वाली।एक टिफिन के डिब्बे में भरकर दे दिया।जाते हुए फिर से याद दिलाया उसने”वो मेरा स्कूल वाला बैग।”रमा ने भी कह दिया”हां-हां,भैया से बोलूंगी,ला देगा।”
बेटे के जाने के बाद काम में उलझी रमा का दिमाग दिल पर हावी होने लगा। आस-पड़ोस की औरतें सही ही कहतीं हैं। इन्हें ज्यादा सर पर नहीं चढ़ाना चाहिए।अभी कल ही बात हुई बैग देने की,आज ही तगादा करने भी आ गई।इनके मां-बाप ट्रेनिंग अच्छी देते हैं।कभी दिल कहता,भोला होता है बचपन।अपनेपन के दो बोल साहस देतें हैं।सारा दिन निकल गया।दिन क्या सप्ताह निकल गया।शनिवार भी आ गया।मंदिर तो नहीं जा पाई थी रमा, स्कूल था।शाम को सब्जी मंडी में बेटे के साथ सब्जी खरीद रही थी,तभी जानी पहचानी आवाज सुनाई दी”सब्जी खरीद रही हो आंटी?”रमा ने पलटकर देखा तो वही थी।बीच बाजार में फिर से ना बैग का तगादा कर दे,यही सोचकर अनमने ढंग से रमा ने कहा”हां।”उस बच्ची को शायद इस प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं थी रमा से।चुपचाप आगे बढ़ गई।
इस बार बेटे ने पूछा”कौन है यह मम्मी?आप जानती हैं इसे?ऐसा मुंह क्यों फेर ली आप उससे?”बेटे की बात सच ही थी। सामान्यतः रमा ऐसा व्यवहार किसी से,खासकर बच्चों से कभी नहीं करती थी।रमा ने तब बताया”अरे, शनि मंदिर में मिली थी,पिछले हफ्ते।एक बैग मांगी थी मुझसे।मैं तुझे भी बताना भूल गई,और खुद भी नहीं जा पाई दुकान।अब यह जब मिलती है ,तब टोकती है।”
बारिश होने लगी अचानक।बेटे ने कहा”चलो आपको घर छोड़ देता हूं।मैं आकर खरीद लूंगा बैग।पहले ही बता दिया होता आपने।कितनी उम्मीद लगाई होगी उसने।”
अब रमा को भी पछतावा होने लगा।देने के भाव का अहंकार ही तो जग गया था दिमाग में।हमारी औकात ही क्या है,जो हम किसी को कुछ दे पाएं।यह तो ईश्वर की लीला है।उसी का दिया हुआ हमें प्राप्त है।उसी के दिए हुए से थोड़ा किसी को देतें हैं।इस दान का अभिमान क्यों करना।एक बैग से क्या उस बच्ची का भविष्य संवर जाएगा?करना तो बहुत कुछ चाहिए हमें ऐसे बच्चों के लिए।घर आकर मन व्यथित होता रहा।सोचा चलो , कल रविवार है।आएगी तो दे दूंगी बैग।कल पूड़ी -हलवा भी बना दूंगी उसके लिए।
तभी बेटा बैग लेकर आया और खुश होकर बोला”मम्मी,कितने सालों के बाद स्कूल का बैग खरीदा।मुझे पापा की याद आ गई।वही ले जाते थे हर साल नया बैग दिलाने।ये देखो,एक कंपास,टिफिन और बॉटल भी ले लिया।पेन-पेंसिल,रबर का एक -एक पैकेट ले लिया है।देखो तो लाल कलर अच्छा लग रहा है ना।”बेटे की बातों में मानो उसका बचपना चहक रहा था।उसका हमेशा से पसंदीदा रंग था लाल।बेटे की सोच देखकर बड़ा गर्व हुआ रमा को।वही कहता रहता है हमेशा कि हम किसी को कुछ नहीं देते,अपने लिए पुण्य इकट्ठा करते हैं मम्मी।सच ही कहता है वह।बड़े होते-होते हम यही मासूमियत तो खो देते हैं।हर काम में अपना स्वार्थ देखने लगते हैं पहले।दान देने का प्रदर्शन करने लग जातें हैं हम हैं हम।देते समय कितने लोगों ने देखा ,यह महत्वपूर्ण होता जा रहा है आजकल।
अगले दिन बेटे के ड्यूटी जाते ही इंतजार करने लगी,छुटकी के आने का।सारा दिन निकल गया ,पर वह नहीं आई।इस शनिवार भी जाकर देखा,वह कहीं नहीं थी।किसी से पूछने की हिम्मत भी नहीं हुई।एक वृद्ध महिला ने बताया कि अब यहां बहुत सी छोटी बच्चियां बैठती हैं।नाम तो उसका पता नहीं था।रविवार को अचानक बेटे ने पूछा “मम्मी,आई आपकी छुटकी?दे दिया आपने बैग?क्या बोली वो?”
रमा की आंखों से आंसू बहने लगे।अपनी ग़लती पर पर्दा डालते हुए फिर भी अपना तर्क दिया”देख ना आई ही नहीं।कितने दिन हो गए।अब मैं कहां जाऊं उसे ढूंढ़ने?”बेटे ने निष्पक्ष होकर कहा”मम्मी,उस छोटी सी बच्ची ने बहुत बड़ी सीख दे दी आपको।जब बोला था आपसे,आपको तभी ले लेना था बैग।वो दो बार आपसे मिली,तो आपने टरका दिया उसे।वह समझी होगी कि,गलत इंसान से मांग ली बैग।वो कोई भिखारी थोड़े ही है,जो आपके दरवाजे पर आकर गिड़गिड़ाते हुए आपकी दया मांगे।वह लड़की वाकई में बहुत स्वाभिमानी है। तुम्हारे पास ना आकर उस छोटी सी बच्ची ने तुम्हें छोटा कर दिया,और खुद बड़ी हो गई।”
बेटे का कटाक्ष शूल की तरह चुभ रहा था रमा को।झूठ नहीं कहा बेटे ने।रमा ने भगवान से माफी मांग कर अपने दंभ को तो मार दिया,पर जब तक वह आती नहीं बैग लेने,वह खुद को कभी माफ नहीं कर पाएगी।उसका लाल बैग पन्नी में से झांक-झांक कर अपने मालिक का रास्ता देख रहा है,आज भी।
शुभ्रा बैनर्जी