मोतीचूर के लड्डू – ऋचा उनियाल बोंठीयाल

पांच रुपए का सिक्का अपने पुराने से स्टील के डब्बे में डाल कर भोलू ने एक गहरी सांस ली। आज की उसकी बोनी हो चुकी थी और आगे अच्छी कमाई की उम्मीद लिए उसने फिर ज़ोर से आवाज़ लगाई   “बूट पॉलिश…., बस पांच रुपए में … बूट पॉलिश करा लो….”

महज़ 10 साल का भोलू अपने नाज़ुक कंधो पर अपने पूरे परिवार का बोझ ढो रहा था। एक साल पहले ही अचानक उसके पिता के गुज़र जाने के बाद ,तीन छोटे भाई बहनों और बीमार मां की ज़िम्मेदारी अब उसी पर थी।

पिता से विरासत में मिला था तो बूट पॉलिश के सामान से भरा हुआ लकड़ी का एक बड़ा सा पुराना डिब्बा.. जिसे भोलू रोज अपने नन्हे से कंधो पर ढो कर देहरादून  के पल्टन बाज़ार तक लेकर जाता और वहां सुप्रसिद्ध मिठाई की दुकान के ठीक सामने, लगभग चिथड़े हो चुकी बोरी पर बैठकर, दिन भर लोगों के बूट पॉलिश करता। 

भोलू अब बैठा–बैठा ऊंघ रहा था। उसके पास काफ़ी देर से कोई ग्राहक नहीं आया था। अमूमन इस समय बाज़ार में काफ़ी चहल पहल रहती थी पर आज कम ही भीड़ थी।

“ये मोतीचूर के लड्डू कैसे दिए?” सामने मिठाई की दुकान पर आए एक ग्राहक की आवाज़ थी।

‘मोतीचूर के लड्डू ’ ये शब्द सुनते ही भोलू के कान खड़े हो गए। उसने गर्दन अब दुकान की ओर घुमा ली। सामने दुकान पर वो मिठाई के डब्बे में करीने से गोल–गोल लड्डुओं को पैक होते, हसरत भरी निगाहों से देखने लगा।

भोलू रोज ही दुकान में सजी, रंग बिरंगी मिठाइयों को निहारता। लोगों को तरह तरह की मिठाइयां खाते देख उसकी भी बहुत इच्छा होती मिठाई का स्वाद चखने की। 


‘कैसा स्वाद होता होगा इन मिठाइयों का? ’ कई बार उसके मन में ये विचार आता और वो कहीं खो जाता।उन मिठाइयों का स्वाद लेना ही मानों उस भोले बच्चे का लक्ष्य था। यूं तो सभी मिठाइयां चखने की उसकी लालसा थी किंतु मोतीचूर के लड्डुओं के तरफ़ एक खास आकर्षण था भोलू का। केसरी रंग के, गोल गोल लड्डू पैक होते देख तो कई बार उसके मन में विचार आता कि वो झट से अपने उस स्टील के डब्बे से पैसे निकाले और

ख़रीद कर चख ले लड्डू का स्वाद ,पर भोलू को हर बार अपने परिवार के एक समय के भोजन और लड्डू के स्वाद में से किसी एक को चुनना होता और चुनाव हमेशा एक वक्त के भोजन का ही होता। जिम्मेदारियों ने छोटी सी उम्र में ही परिपक्व बना दिया था भोलू को। वो दस साल का बच्चा जानता था कि जीभ के स्वाद से ज्यादा ज़रूरी पेट की आग को बुझाना है। उस पर उसकी बीमार मां की दवाओं का खर्चा भी तो था। 

शाम होते–होते भोलू ने अपने पुराने स्टील के डब्बे को टटोला। रात के भोजन और मां की दवाई लायक पैसे आज इकट्ठे हो गए थे। उसने अपना सामान समेटते हुए एक सरसरी नज़र मिठाई की दुकान की तरफ़ दौड़ाई। एक व्यक्ति मिठाइयां पैक करवा रहा था। पैसे चुका कर वो व्यक्ति अपना वॉलेट जेब में रखता हुआ तेज़ी से भोलू के सामने से गुज़रा । शायद कहीं पहुंचने की जल्दी थी उन्हें। हड़बड़ी में उस व्यक्ति का वॉलेट उसकी जेब

में न जाकर नीचे ज़मीन पर गिर गया। इस बात से अंजान वो व्यक्ति तेज़ी से आगे बढ़ गया। भोलू ने वॉलेट गिरते हुए देख लिया था। वो तेज़ी से उस पर्स की ओर लपका। उसने देखा आधे खुले पर्स में से कई नोट बाहर झांक रहे थे। इतने पैसे तो भोलू ने अपने जीवन में कभी नहीं देखे थे।

“ इतने सारे पैसे? इतने पैसों में तो हम पूरे महीने, भर–पेट खाना खा सकते हैं ” ये सोचते हुए उसने एक नज़र चारों तरफ़ घुमाई, झट से पर्स उठा लिया और लगभग चिथड़े हो चुकी अपनी पैंट की जेब में रख लिया। उसने जल्दबाज़ी में अपना बचा–कुचा सामान समेटा और अपने घर की ओर दौड़ा। उसने कुछ ही कदम बढ़ाएं होंगे उसकी सांस बेतहाशा फूलने लगी, उसे पैर इतने भारी प्रतीत हो रहे थे मानो वो अभी गिर जायेगा। वो पसीना

पसीना हो गया। दौड़ना तो दूर, एक कदम चल पाना भी उसके लिए मुश्किल हो रहा था। वो वहीं धम्म से ज़मीन बैठ गया। उसने एक गहरी सांस ली और पीछे पलट कर देखा। भोलू ने दूर से ही देख लिया कि वो व्यक्ति अपना पर्स खोजते हुए वापस आ गया था । परेशानी और बेचैनी साफ़ झलक रही थी उसके चेहरे पर। भोलू कुछ सोचते हुए उस व्यक्ति के पास पहुंचा।और पर्स उनकी तरफ़ बढ़ा दिया। 

“ आप यही ढूंढ रहे हैं ना? वो दरअसल आपकी जेब से गिरते हुए मैंने देख लिया था तो उठा लाया।” भोलू धीरे से बोला।


अपना वॉलेट देखते ही उस व्यक्ति का तेजहीन हो चुका चेहरा खुशी से खिल उठा। उसने पर्स भोलू के हाथ से लिया और उसे प्यार से गले से लगा लिया। किसी अनजान व्यक्ति से इतना स्नेह पहली बार मिला था भोलू को जिससे वो गदगद हो रहा था।

“तुम नहीं जानते बेटा ,ये पर्स लौटा कर तुमने मुझ पर कितना बड़ा एहसान किया है । मेरी बेटी की शादी है। कितने ही खर्चे है।इन पैसों की इस वक्त मुझे सख्त ज़रूरत है। तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद बच्चे, ईश्वर तुम्हें लंबी उमर दे।” व्यक्ति ने भोलू को पुचकारते हुए कहा।

फिर कुछ सोच कर उसने अपने थैले में से एक डब्बा भोलू की ओर बढ़ा दिया। 

“ ये रखो, तुम्हारी ईमानदारी का ईनाम है।” 

डब्बा भोलू को पकड़ा वो व्यक्ति तेज़ी से वहा से चला गया। भोलू  उस व्यक्ति को जाते हुए तब  देखता रहा जब तक वो आंखो से ओझल नहीं हो गया। 

आज उसे एक अलग ही अनुभूति हुई थी। मन बहुत प्रसन्न था उसका। अब उसका ध्यान उस डब्बे पर गया जो वो व्यक्ति उसे देकर गया था। भोलू ने धीरे से डब्बा खोला तो उसकी नन्हीं–नन्हीं आंखे खुशी से चमक उठी। उस डब्बे में सजे थे केसरी रंग के, गोल–गोल, मोतीचूर के लड्डू।

ईमानदारी के लड्डू।

स्वरचित  मौलिक

ऋचा उनियाल बोंठीयाल।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!