अपने दौर की हर लड़की की तरह मैंने भी बहुत से सपने, बहुत से ख्वाब खुली आँखों से देखे थे…जो बस ख्वाब ही रहे उनको पंख कभी नही मिले।
उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी लगता है ..मन का एक कोना अभी भी खाली है..कुछ है जो अधूरा रह गया है..कुछ है जो छूट गया है।
ज़िन्दगी से जो चाहा था वो कभी नही मिला और जो मिला उसकी चाहत शायद कभी नही की थी।
कभी अकेले में आईने के सामने खड़े हो कर खुद से बातें करी थी ..खुद को ही निहारा था..कुछ चाहतें पाली थी।लेकिन उस समय की एक मिडिल क्लास में जन्मी और पली लड़की को शायद सपने देखने और ख्वाब पालने का भी हक़ नही होता था।अगर वो अपने मन के अंदर कुछ ख्वाब बुनती भी तो अंततः तो उनको अपने कलेजे में दफन करना ही पड़ता क्योंकि यही उसकी ज़िन्दगी की सच्चाई होती थी ।
उस दौर में जब लड़कियों को जन्म से ही ये घुट्टी पिलाई जाती कि घर के काम सीख ले कल को पराए घर जाना है और खास कर घर की बड़ी बेटी को तो उम्र से पहले ही बड़ा बना दिया जाता जहां उसका बचपन जो खेलने कूदने की बजाए अपनी मम्मी के साथ अपने भाई बहनों को संभालने और घर के कामों में ही निकल जाता ।
लेकिन शायद कहीं न कहीं जो दिल के किसी कोने में उस लड़की ने अपने ख्वाबों को जगह दी होती है उसके लिए वो घर के कामों के साथ साथ पढ़ाई में भी दिन रात मेहनत करती है ।हर क्लास में टॉप करती है मजाल है क्लास में किसी का एक नम्बर भी ज्यादा आ जाये।
पढ़ाई में उसकी लगन और स्कूल की सभी गतिविधियों में उसकी भागीदारी को देखते हुए स्कूल के प्रिंसिपल सर एक दिन पापा को स्कूल बुलाते हैं और समझाते हैं..इस बेटी की जल्दी शादी ना करना..इसको पढ़ा लिखा कर बड़ी अफसर बनाना..बहुत होशियार है आपकी बेटी।अगर नही पढ़ाना तो ये बेटी मुझे दे दीजिए मैं इसको गोद ले लूंगा और खूब पढ़ाऊंगा और कुछ बन कर नाम रोशन करेगी।
पापा को अपनी बेटी की इतनी तारीफ और रिजल्ट देख कर बहुत फख्र तो होता लेकिन लड़कियों के लिए उस समय समाज की जो सोच थी वो उससे बाहर नही निकल पाए या शायद उस समय के माँ बाप को बेटियों के लिए पढ़ाई की जरूरत सिर्फ शादी करने तक भर के लिए ही होती थी और अगर कोई पेरेंट्स अपनी बेटी को आगे पढ़ाना भी चाहते तो रिश्तेदार बोल बोल के जीना मुश्किल कर देते कि आपकी बेटी जवान हो गयी है कोई रिश्ता देखा कि नही।
स्कूल कॉलेज में जब भी टीचर प्रोफेसर को देखती तो जैसे सम्मोहित सी हुई रहती और हमेशां यही सोचती किसी दिन मैं भी इसी तरह किसी क्लास में बच्चों को पढ़ा रही हूँगी। सुबह सुबह तैयार हो कर जाना ..और फिर टीचर की कितनी इज्जत होती हैं न…
और दो तीन अधयापकों के तो मैं इतनी नजदीक रही कि उनकी चहेती स्टूडेंट ही रही हमेशां..!!!
और मन ही मन यही सपना खुली आँखों से देखती रही कि मुझे इनके जैसा ही बनना है..
मैट्रिक की परीक्षा में मेरिट लिस्ट में आने पर उस समय बहुत से कॉलेज से फॉर्म खुद से स्कूल आ गए कि इस स्टूडेंट को हमारे कॉलेज भेजो तो फीस भी माफ होगी और किताबें भी फ्री में मिलेंगी।स्कूल से पापा को फिर से बुलावा आया लेकिन यहां फिर वो ही मानसिकता आड़े आ गयी कि लड़की को दूर के कॉलेज नही भेजना
फिर पास वाले कॉलेज ये सोच कर दाखिला लिया कि चलो पढ़ना है तो यहीं सही।कॉलेज में भी सभी रिजल्ट देख कर हैरान रह गए कि इतने बढिया रिजल्ट के साथ तो कहीं भी दाखिला मिल सकता था फिर यहां क्यों…
क्योंकि उस कॉलेज में वो ही स्टूडेंट जाते जिनको किसी अच्छे कॉलेज में दाखिला नही मिलता।
कॉलेज में भी हर क्लास में हर विषय मे टॉप किया हर क्लास में हैडगर्ल रही। लेकिन 18 की होते होते ही शादी कर दी गयी। किसी ने ये भी नही सोचा कि कम से कम ग्रेजुएशन तो पूरी हो जाये।
शादी के बाद भी कॉलेज से बुलावे आये कि बस दाखिला ले लो हम नोट्स भी घर पर भेजेंगे।और लेक्चर भी पूरे लगा देंगे। लेकिन शादी करके भी ऐसे परिवार में गयी जहां पढ़ाई की कोई कदर नही ।बहु तो बस सारा दिन चूल्हा चौका संभालती रहे और फिर हर घर मे कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अगर खुद कुछ नही कर पाते वो दूसरों को भी कुछ करने नही देते और उनके रास्ते मे हमेशां रोड़ा अटकाते हैं लेकिन जब तक समझ आती है बहुत देर हो जाती है।
बस बच्चों को पढ़ाने का एक ख्वाब जो अधूरा था वो घर पर काम वालियों के बच्चों को पढ़ा कर पूरा करती रही और जिन बच्चों को पढ़ाया उन्होंने भी हमेशां क्लास में टॉप किया।
जब भी कोई बच्चा टीचर डे पर विश करता है या फूल देता है तो कलेजे में एक टीस सी उठती है और कुछ दरकता हुआ सा महसूस होता है।
दिल के एक कोने में पापा के लिए मुझे आगे न पढ़ने देने की नाराजगी भी है लेकिन उसके लिए उनको कभी नही कोसा हमेशां खुद को ही कोसा ..क्योंकि अगर वो होते तो उनको शिकायत करती लेकिन वो तो बहुत छोटी उम्र में ही इस जहां से रुखसत हो गए।
बीस साल की होते होते गोद मे प्यारी सी बिटिया आ गयी और फिर दो साल बाद बेटा भी।
अपना हर सपना बेटी में जिया और उस ने ही मुझे जीना सिखाया और आज भी सिखा रही है उसने ही एक दिन किसी साहित्यक समूह से जोड़ दिया और सबका लिखा पढ़ते पढ़ते कब एक दिन खुद लिखने लगी पता ही नही चला। बस आप सबके संग रहते रहते दिल के भावों को कुछ कुछ शब्द देने आ गए हैं
जो सालों से दिल के एक कोने में दबा रखा था उसको लिख कर कितना सकून मिलता है उसको शायद शब्दों में बयान करना मुश्किल है।
मौलिक एवं स्वरचित
रीटा मक्कड़