बारिश वाली वो रात” – सीमा वर्मा

फैरेडे हॉस्टल का कमरा नं. छब्बीस मेहुल और हमीदा दोनों बेखबर सोई हैं।रात के करीब पौने बारह बज रहे हैं।

अचानक एक धमाका-बिजली की कड़क से मेहुल हड़बड़ा कर उठ बैठी।

बाहर जोर से बिजली चमक रही है। बादल गरज रहे हैं। साथ ही उसका दिल भी बुरी तरह धड़क रहा है। मेहुल ने माथे पर हाँथ फेरा, फिर कुछ देर बेड पर बिना हिले-डुले यों ही बैठी रही।

उसने बेड से पांव नीचे किए और नीचे रखे चप्पलों को अपनी तरफ सरका कर पैरों में डाल लिए।  खिड़की के पास आ नजर बाहर डाली सावन महीने की जोरदार बारिश शुरु हो चुकी है।

अभी तो उत्तर- पूर्वी मॉनसून ने आगे बढ़ना शुरु ही किया है।

धीरे-धीरे मौसम ने जादूगर का रूप धारण कर लिया है।

बाहर बरामदे में मद्धिम रोशनी वाला बल्ब जल रहा है। 

इस वक्त मेहुल को अपने सहपाठी गौरव की बेवफाई बहुत अखर रही है।

आज शाम ही तो उसने ‘ गौरव’ को प्रिया  के साथ कैंटीन में बैठ कर समोसे खाते देखा है ,

” उफ्फ्फ ये शहर के लड़के , हुंह , चार सौ बीस !कंही के, ठग !कंही के,  झूठे !कंही के”।

कहाँ वो गौरव के साथ के मीठे सपने संजोने में लगी है लेकिन ये तो भंवरा निकला।

सोचती हुई अंधेरे में ही टटोल कर टेबल पर से उसके दिए हुए नकली फूल के गुलदस्ते को उठाया और भरपूर जोर लगा कर खिड़की के बाहर फेंक दिया।


आज उसे इस वक्त सुधांशु की भी याद आ गई है।

जब वह पन्द्रह साल की थी।  उसके पड़ोस में सुधांशु रहने आया था, खूब सुंदर , उसमें वह सब कुछ था जिससे कच्ची उम्र की कोई भी लड़की दिल दे दे ! यही मेहुल के साथ हुआ!

वह पूरी तरह पागल हो गई थी उसके पीछे। एक दिन छत पर खड़ी थी वह। गर्मियों के दिन थे। जब सुधांशु ने उसे एकदम से कह दिया था,

” तुम मुझे पसंद हो, और मैं जानता हूँ मैं भी तुम्हें पसंद हूँ”। मेहुल चुप रह गई थी बिना कुछ बोले।

” अब से मैं और तुम दोस्त बन गये हैं , वैसे वाले ” अपने दोनों हांथ मिला कर दिल की छाप बनाते हुए बोला।

लेकिन मेहुल की माँ बहुत ही अनुसाशन प्रिय थीं। अच्छी खासी सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने अपने दामन में कभी दाग नहीं लगने दिया है। 

मेहुल उनकी एकमात्र संतान है।

अतिरिक्त लाड़-प्यार के साथ ही उसके प्रति बेहद सावधान रहती हैं। अपनी अत्यंत व्यस्तता भरी जिंदगी में भी

उनका सारा ध्यान मेहुल पर ही केंद्रित रहता है।  वे सुधांशु से उसकी नजदीकियां ताड़ गई हैं। 

पर स्पष्ट तौर पर चुप ही रही। वे किसी भी हाल में मेहुल को आत्मनिर्भर बनाना चाहती थीं।

उस वक्त सुधांशु और मेहुल के बीच की इस कच्चे वाले भागमभाग में उनकी यह अनुसाशन प्रियता ही मेहुल के पांव की बहुत बड़ी बेड़ियाँ बनी थीं।  जिन्हें मेहुल झटकना तो चाहती थी। 

लेकिन लाख कोशिश कर के भी तोड़ नहीं पाई।

जहाँ आम लड़कियाँ  बारहवीं पास कर वंही कस्बे के कॉलेज में पढ़ने जाने लगी।


मेहुल की माँ ने उसका दाखिला शहर के इस नामी-गिरामी विश्वविद्यालय में करवा दिया।

मेहुल पढ़ने में औसत से बहुत अच्छी है। इसलिए सहपाठी उसके नोट्स पाने के लिए अक्सर उसके आगे- पीछे करते रहते हैं। जिनमें वह गौरव भी शामिल था। जो धीरे-धीरे उसके सबसे करीब आ चुका था।

यह तो कृपा है उस ‘ ईश्वर’  की जिन्होंने आज एक बार फिर से उसे पतन के अंधकारमय गर्त में डूबने से बचा लिया है।  उसकी माँ के एक मात्र सपने ,

” मेहुल को अपने पाँव पर मजबूती से खड़ी देखने का ” 

को पूरा करने के लिए।

मेहुल तो भरी बारिश में पहाड़ से गिरते हुए झरने की तरह है।

उसे बहना आता है। लेकिन इस बार बेनाम रास्ते पर ना जा कर पहले से तयशुदा रास्ते पर बहने की सोच वह निश्चिंत हो गई है।

तभी खिड़की के बाहर काले आसमान पर जोर से बादल फटे जिसके बीच में से मेहुल को चाँद नजर आया। उसे लगा मानों पानी के छींटे के साथ ही चाँद बह कर कमरे में आ जाएगा।

बाहर हवा सरसरा रही है। उसे एकदम से ठंडी लगी। 

सिर घुमा कर देखा तो दूसरी वाली खिड़की के पास ही लगे बेड पर उसकी रूम मेट हमीदा मजे से सो रही है।

मेहुल पलटी झटके से खिड़की बंद किए और यह बुदबुदाती हुई ,

“किस-किस को रोइए , किस-किस को गाइए,

आराम बड़ी चीज है मुंह ढ़ंक के सोइए”।

लिहाफ खोल सर से पांव तक तान ढ़ंक कर आराम से सो गई

स्वरचित / सीमा वर्मा

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