विवाह के तीस बरस बाद भी बाबूजी का वहीं रवैया रहा अम्मा के प्रति…
हर बात पर उन्हें झिड़कियां देना और उनके अक्षर ज्ञान पर फब्तियां कसना..
ये सब देख कर बड़ी बहू को हमेशा हीं बहुत बुरा लगता और
चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती…
अम्मा के तीनों बेटों पर भी पिता के व्यक्तित्व का प्रभाव ज्यादा था,
वो बाबूजी का विरोध करने की बजाय अम्मा को हीं दोषी ठहरा देते..
धीरे धीरे अम्मा इस कदर हीनभावना से ग्रस्त हो गयीं कि उन्हें सच में लगने लगा कि वो नहीं कर पाएंगी..
जबकि बाबूजी को बस अपनी नौकरी से हीं मतलब था बाकी घर की सारी व्यवस्थाएं अम्मा हीं संभालती थीं राशन, सब्जी यहां तक कि बाबूजी के कपड़े और रूमाल तक..
जिस दिन अम्मा रूमाल ना दें बाबूजी रूमाल लेकर आफिस नहीं जाते…
फिर भी वो अम्मा को ताने देते रहते…
अम्मा को खाने पहनने रहने का सुख तो खूब मिला परंतु
पति के साथ गलबहियां डाल पार्टियों और पार्कों में जाने का सुख कभी नहीं मिला…
बाबूजी ने हमेशा अम्मा को इस बात का दंड दिया कि वो पढ़ी लिखी नही है परन्तु अक्षर ज्ञान सिखाने की कोशिश कभी नहीं की…
बड़ी बहू के आ जाने से अम्मा को अब हौसला मिलने लगा,वो हमेशा सिखाती कि अम्मा आप अपने अधिकारों के लिए लड़िए
हर बार अपनी बेइज्जती पर चुप मत रहिए..
बहू का साथ पाकर अम्मा ने एक दिन बाबूजी को आड़े हाथों लिया और गुस्से में तमतमाकर बोली..
बस बहुत हुआ बहुत दिन मैं आपके हाथों की कठपुतली बनी रही अब और नहीं मैं एक जिंदा इंसान हूं मैं कठपुतली नहीं हूं जो जीवन भर आपके इशारे पर नाचती रहूं…
बाबूजी हक्के बक्के से बस देखते रह गए।
डोली पाठक