टीवी पर एक पुरानी फिल्म चल रही थी। उसमें एक सीन आया—कठपुतलियों का डांस। रंग-बिरंगे कपड़ों में बंधी डोरियों से नाचती कठपुतलियां, जैसे किसी अदृश्य हाथ की कमान पर थिरक रही हों। रीना और उसकी बहू रिंकी साथ बैठकर फिल्म देख रही थीं। अचानक रीना चुप हो गई, उसकी आंखों की चमक बुझ सी गई।
रिंकी ने गौर किया कि मम्मी एकदम उदास हो गई थीं। उसने धीरे से पूछा, “क्या हुआ मम्मी? आप अचानक चुप क्यों हो गईं?”
रीना ने मुस्कुराने की कोशिश की, पर वह मुस्कान अधूरी रह गई। बोली, “कुछ नहीं बेटा, यूं ही…”
लेकिन रिंकी ने जिद पकड़ ली, “नहीं मम्मी, ज़रूर कुछ याद आ गया है आपको। प्लीज़ बताइए न।” रीना की आंखें नम हो गईं। कुछ पल चुप रहने के बाद वह बोलने लगी।
“बेटा, मुझे बचपन से कठपुतली का नाच बहुत पसंद था। मोहल्ले में अगर कहीं भी कठपुतलीवाला आता था, तो मैं सब काम छोड़कर दौड़ जाती थी। मां से डांट भी खाती, लेकिन वो डांस, वो डोरियों से बंधी जिंदगी मुझे जादू लगती थी।
पर मुझे क्या पता था, कि एक दिन वही डोरियां मेरी अपनी जिंदगी को बांध लेंगी।
मेरी शादी जल्दी हो गई थी। शुरुआत में सब ठीक लग रहा था। लेकिन पहली ही रात उन्होंने कह दिया था, ‘अगर मैं पानी कहूं, तो एक सेकंड में पानी सामने होना चाहिए।’ मैं चौंक गई थी। पर सोचा, नई-नई शादी है, शायद मज़ाक कर रहे हैं। लेकिन धीरे-धीरे समझ आया कि वो हर बात अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहते हैं।
मेरे उठने-बैठने से लेकर बोलने तक पर पाबंदी थी। जो वो कहते, वही करना होता। एक कठपुतली बन चुकी थी मैं। अगर कभी कुछ कहने की कोशिश करती, तो गुस्से में चीखते, चिल्लाते, कई बार हाथ भी उठा देते।
समाज में औरत को चुप रहने की सलाह दी जाती थी, और मैं भी चुप रहती थी। लेकिन अंदर ही अंदर टूट रही थी।”
रिंकी चुपचाप सुन रही थी, उसकी आंखों में भी आंसू थे।
रीना ने आगे कहा, “एक बार तबीयत बहुत खराब हो गई। डॉक्टर ने बताया कि मुझे डिप्रेशन है। पर उस वक्त ‘डिप्रेशन’ क्या होता है, यह समझ नहीं आता था। बस इतना जानती थी कि कुछ तो है जो मुझे अंदर से खा रहा है।
घर वाले भी यही कहते थे, ‘ससुराल में एडजस्ट करना पड़ता है।’ मगर मेरा मन…वो तो कहीं और ही छूट गया था।
फिर धीरे-धीरे इलाज शुरू हुआ। मैंने खुद को बहुत संभाला। काम में खुद को व्यस्त रखा। वक्त के साथ-साथ उनके स्वभाव में भी बदलाव आया। शायद मेरी चुप्पी, मेरा धैर्य, मेरी सेवा… धीरे-धीरे असर करने लगी। आज तुम्हारे पापा मुझे बहुत मानते हैं। अब लगता ही नहीं कि वो वही इंसान हैं। अब हर बात पूछकर करते हैं, मेरा ख्याल रखते हैं।
अब जब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो लगता है कि मैंने उस समय कठपुतली बनकर सही किया या नहीं—इसका जवाब आज की पीढ़ी के हिसाब से शायद ‘नहीं’ हो, लेकिन उस दौर में यही मेरे लिए सही था।
अगर आज की लड़कियां होतीं, तो शायद तलाक ले लेतीं। मगर मैं मानती हूं कि हर बात का हल तलाक नहीं होता। कुछ रिश्तों को वक्त चाहिए होता है, और हिम्मत भी।
अब जब यह कठपुतली बूढ़ी हो चुकी है, तो उसकी डोरियों में आज़ादी है। कम से कम अब तो अपनी मर्ज़ी से हंस सकती हूं।”
रिंकी ने मां का हाथ थाम लिया। बोली, “आप सिर्फ कठपुतली नहीं थीं मम्मी, आप तो वो कलाकार थीं जिसने उस कठोर मंच पर भी अपने नाच को खूबसूरत बना दिया।”
रीना की आंखों से दो बूंद आंसू गिरे, मगर इस बार वो दुख के नहीं, सुकून के थे
लेखिका रेनू अग्रवाल