कामिनी आवाज़ देती हुई अपनी सहेली निशा के घर में घुसी। सामने ही बैडरूम से उसके खिलखिलाने की आवाज़ आई। किसके साथ इतनी मस्ती हो रही है, वो ठिठक कर रुक गई थी।
“अरी कामिनी, बाहर क्यों खड़ी हो..अंदर आ जाओ। बहुत मौके से आई हो।”
तब तक बहू कविता भी उठ कर उनका हाथ पकड़ कर अंदर ले गई और बोली,”आंटी, आप मम्मी जी के साथ गप्पें मारिए। मैं गर्म पकोड़े और चाय भेजती हूँ।”
कहती हुई वो तीर की तरह निकल गई। वो हक्की बक्की खड़ी देखती रह गई थीं। निशा उन्हें अंदर लाकर बोली थी,”ऐसे हैरानी से क्यों देख रही हो?”
वो धरातल पर आकर बोली,”अरे तुम तो गजब हो। बहू के साथ इस तरह बराबरी से हँसी मजाक…उफ्फ़..हमें तो बात हजम ही नहीं हो रही।”
“तो क्या हुआ? मैं तो अपनी बहू के साथ ऐसे ही रहती हूँ। आखिर वोही मेरी बेटी भी है और बहू भी।”
“ये तुम गलत करती हो। बहू कभी बेटी नहीं बन सकती। बहू को बहू ही रहने दो और तुम सास की तरह रौबदाब से रहो।”
“अरे कामिनी, ये रौबदाब मेरे बस की बात नहीं है। आखिर वोही तो मुझे बेटी का सुख भी दे रही है।”
निशा चुप हो गई। वो उसका हाथ पकड़ कर बोल पड़ी थी,”तुम अपनी बहू से दूरी रखती हो, सास जैसा रूआब झाड़ती हो पर मैं तो कविता को टू इन वन समझती हूँ। बहू भी बेटी भी…बस।”
तब तक वो चाय की ट्रे लिए हुए आई और निशा जी को डाँटते हुए बोली,”मम्मी, आप तो बहुत लापरवाह होती जा रही हैं। आज आपने दवा खाई ही नहीं। सब किचन में पड़ी थीं। जल्दी खाइए। आज तो पापा जी से आपकी शिकायत करनी ही पड़ेगी।”
वो शरारत से कान पकड़ते हुए हँसने लगीं,”ये शिकायत विकायत ना करना मेरी अम्मा।”
वहाँ हँसी का फव्वारा फूट चुका था। कामिनी हौले से बुदबुदाईं,”तुम्हारी बहू तो थ्री इन वन है। बहू और बेटी तो है ही, जरूरत पड़ने पर तुम्हारी अम्मा भी तो बन जाती है।”
नीरजा कृष्णा
पटना