मां तुम बाबू जी को मना लो ना…. कम से कम एक बार तो अपने बेटे बहू के पास आकर रहें। यदि मन नहीं लगे तो बेशक मैं खुद वापस गांव छोड़ने चला आऊंगा। विभु ने अपनी मां कल्याणी जी से ऐसा कहा तो कल्याणी जी ने जबाव दिया….
बेटा तू तो जानता ही है कि तेरे बाबूजी कितने जिद्दी हैं , मैंने कितनी बार उन्हें समझाया है, मनाया है कि अब तो अपनी नाराजगी छोड़ दें, जो होना था वह तो हो गया। अब तो अपने बच्चों को प्यार से गले लगा लें, इस उम्र मे… इस बुढ़ापे में इतनी नाराजगी अच्छी बात नहीं है, पर वो है कि एक ही बात पकड़ कर बैठे हैं कि बेटे ने दूसरे धर्म की लड़की से विवाह करके समाज में उनकी नाक कटवा दी।
वैसे तेरे बाबूजी बड़े नरम दिल है पर उनके दिल को यदि चोट लग जाए तो उन्हें संभालना बड़ा मुश्किल होता है। कहते हैं की दूसरे धर्म से आई हुई लड़की हमारे रीति रिवाज हमारे संस्कार कैसे सीख पाएगी। मैंने उनसे कितनी बार कहा है कि, जी अब नाराजगी छोड़िए भी, अब जब अपने घर आ ही गई है तो अपने घर के रीति रिवाज भी धीरे-धीरे सीख ही जाएगी, और हो सकता है हमारे मनपसंद की लड़की से विवाह करके हमारा विभु भी उतना खुश ना रह पाता। पर वो है कि जरा सी भी बात सुनते ही नहीं अब तो बेटा तू ही आकर उन्हें मना कर एक कोशिश करके देख ले शायद मान जाए।
मां की इतनी बात सुनकर विभु के मन को बड़ा धक्का सा लगता है और सोचने लगता कि किस तरह बाबूजी की नाराज़गी को दूर कर सकता हूं । तभी उसकी पत्नी रोमी वहां आती है और विभु से सारी बात जानकर कहती है, देखो गलती तो हम दोनों से हुई ही है, उसके लिए उनका गुस्सा होना जायज भी है। न जाने बाबूजी के आपकी शादी को लेकर कितने अरमान रहे होंगे…. अब जो भी है हमें उन्हें मनाना तो होगा ही।
क्यों ना अगले महीने दीपावली आने वाली है,हम उन्हें मनाने चले ,
मैं ज्यादा तो नहीं जानती त्यौहार के बारे में,पर आप जब मुझे सारे रीति रिवाज समझायेगे तो मैं समझ जाऊंगी , फिर हम दोनों गांव चलेंगे, मां बाबूजी के साथ दीपावली का त्यौहार मनाएंगे। थोड़ा नाराज होंगे, पर देखना की मैं जी जान से कोशिश करुंगी कि उनकी नाराजगी दूर कर सकूं ।
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इस पर विभु कहता है नहीं मुझसे यह नहीं हो पाएगा और कहीं बाबूजी ने तुम्हें नहीं स्वीकारा और कुछ उल्टा सीधा बोल दिया तो…. वह अपनी बात पूरी भी ना कर पाया था कि रोमी बोली …..कह दिया तो क्या हुआ बेटी हूं उनकी, सुन लूंगी थोड़ा, पर पापा जी को तो मनाने मै जरूर जाऊंगी।
बस फिर क्या था… दोनों धनतेरस वाले दिन गांव आ जाते हैं। मां तो दोनों को देखकर फूली न समाई , कहने लगी घर की लक्ष्मी ठीक धनतेरस पर घर आई है, और आरती का थाल उतार बच्चों की नजर उतार कर स्वागत करने लगी। उधर विभु के पिता दामोदर जी ने कहा तो कुछ नहीं …..पर बच्चों से कोई स्नेह भी नहीं दिखाया ।
बस फिर तो सास बहू दोनों चौके में लग जाती है, कल्याणी जी बातों ही बातों में रोमी को हमारे त्योहारो के बारे में और घर परिवार के बारे में बताती जाती हैं। दामोदर जी थोड़े खफा से हैं, वे कल्याणी जी से कहते हैं कि यह दूसरे धर्म वाली है हमारे रीति रिवाज नहीं जानती है। हो सके तो चौके से जरा दूर ही रखना और हां छत पर या मोहल्ले में भी ज्यादा घुमाने की जरूरत नहीं है। ठीक है घर आए हैं दोनों, अपना त्यौहार करके सीधे अपने घर वापस चले जाएं मैं कुछ नहीं कह रहा हूं, बस मुझसे कोई ज्यादा उम्मीद मत रखना।
अगली सुबह रोमी सुबह-सुबह उठती है,झाड़ू लेकर घर आंगन बुहारती है, अपनी सासु मां से नरक चौदस की कहानी सुनती है, मां के साथ दीप जलाती है, पूजा करती है। दीपावली का दिन भी आ ही जाता है विभु बाजार से मिठाई खील बताशे वग़ैरह सामान लेने गया है।
कल्याणी जी रसोई में बैठी त्यौहार के कुछ पकवान बना रही है ।
रोमी भी आंगन के बीच में सारे रंग लेकर बैठी सुंदर सी रंगोली बना रही है। उधर दामोदर जी बरामदे में कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे हैं कि अचानक ही वो जैसे ही कुर्सी से उठते हैं उन्होंने अपने सीने पर हाथ रखा, उन्हें दर्द का कुछ एहसास हुआ और लड खडा कर वहीं पास में बिछे पलंग पर गिर जाते हैं। रोमी रंगोली छोड़कर दौड़ कर आती है और उन्हें लेकर तुरंत ही मां के साथ पास ही के एक अस्पताल में लेकर भागती है।
रोमी के हाथों में लगे हुए रंगोली के रंग दामोदर जी के सफेद कुर्ते पर लग जाते है, मानो जैसे बिटिया विदाई के समय अपने हाथों की छाप घर की दीवारों पर छोड़ जाती है।
रोमी एक पढ़ी-लिखी समझदार लड़की है। वो डॉक्टर से तुरंत कह कर दामोदर जी को एडमिट कराती है । डॉक्टर ने भी नजाकत समझते हुए तुरंत उनको एडमिट कर लिया। थोड़ी ही देर में विभु भी वहां पहुंच जाता है। उसने डॉक्टर सहाब से अपने बाबूजी का हाल पूछा तो डॉक्टर साहब ने कहा यदि यह बिटिया सही समय पर दामोदर जी को यहां लेकर नहीं आती तो शायद कुछ देर हो जाती।
आप बहुत नसीब वाले हैं इतनी समझदार लड़की आपके घर की बहू है। आप सभी अब उनसे मिल सकते हैं अब वह ठीक है बस कुछ दवाइयां है जो आप उन्हें समय-समय पर देते रहिएगा ।
उन्हें खुश रखने की कोशिश करेगा । इतना सुनकर कल्याणी जी भी मन ही मन रोमी जैसी बहू पाकर खुश हो जाती है पर अगले ही पल सोचती हैं कि ना जाने कब और कैसे दामोदर जी रोमी को अपनी बहू के रूप में स्वीकार करेंगे।
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लेकिन जैसे ही दामोदर जी के कमरे में विभु और कल्याणी जी कदम रखते हैं, दामोदर जी कहने लगते हैं मेरे घर की लक्ष्मी मेरी बिटिया कहां है, जिसके स्नेह के बंधन ने मेरे सारे गिले शिकवे दूर कर दिये है। मेरी हर गलतफहमी भी मिटा दी है। मुझे डॉक्टर साहब ने सब कुछ बता दिया है कि आज यदि मैं आप सभी के सामने हूं तो अपनी बिटिया रोमी के कारण। आज सही मायने में मेरे घर दीपावली है, जिसमें लक्ष्मी स्वरूपा मेरी बहू भी शामिल हो गई है।
बस फिर क्या था जैसे ही रोमी दामोदर जी के पांव छूना चाहती है दामोदर जी प्रेम से उसे गले लगा लेते हैं और कहते हैं मेरी प्यारी बिटिया, सदा खुश रहो……… रोमी भी पहली बार पिता का स्नेह महसूस कर रही हैं क्यूंकि उसके पिता तो उसके बचपन में ही एक एक्सीडेंट में उसे और उसकी मां और छोटे भाई को छोड़कर चल बसे थे। तब से लेकर आज तक रोमी हर जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाती जा रही है, पर दिल के किसी कोने में पिता का प्यार पाने की एक कसक सी थी जो आज दामोदर जी के इस स्नेह पूर्ण आशीर्वाद ने पूरी कर दी थी।उसकी आंखों से अश्रु की निर्मल धारा बहने लगती है।
कल्याणी जी भी अपनी आंखों से आए आंसूओं को पौंछती हैं, मन ही मन सोचती हैं कि किस तरह अपनेपन और स्नेह की खाद से किसी का पत्थर दिल भी जीता जा सकता है।
वे मन ही मां अपने इष्ट देव को मानती हैं कि हे प्रभु मेरे घर में लगे इस “स्नेह के बंधन” के इस नन्हे से छोटे से पौधे को अब किसी की भी नजर ना लगे। उधर भी विभु भी आंखों ही आंखों में रोमी की तारीफ करता है, कहता है आखिर तुमने वह सब कर ही दिखाया जो मैं सिर्फ सोचता रह गया। इस दीपावली दामोदर जी और कल्याणी जी के घर पर सालों बाद इस तरह खुशियां बरस रही है मानो साक्षात लक्ष्मी छम छम करती आ रही हो।
ऋतु गुप्ता
खुर्जा बुलन्दशहर
उत्तर प्रदेश