सोने की मुर्गी! – कुसुम अशोक सुराणा : Moral Stories in Hindi

सुबह-सुबह जैसे ही मानसी के बाबा बरामदे में रक्खी कुर्सी पर आ कर बैठे, मोहिनी जी ने चाय-नाश्ते की ट्रे कांच के टी-पॉय पर रख दी और खुद सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। मानसी के पिताजी रतनचंद जी शहर के नामी-गिरामी कॉलेज में प्रोफेसर थे।

राज्य सरकार के अधीन महाविद्यालय होने के कारण उनकी राज्य के अलग-अलग शहरों में बदली होती रहती थी। माता-पिता को बार-बार यहाँ-वहाँ सामान और परिवार को ले जाने में जरूर मुश्किल होती थी लेकिन मानसी को बड़ा मज़ा आता था। हर चार-पांच साल में नया शहर देखने को मिलता था, नए दोस्त बनते थे और नया विद्यालय- महाविद्यालय! नया-नया माहौल, नए दर्शनीय स्थल और नए मिजाज़ के लोग! मौजा-ही-मौजा था। 

मोहिनी जी को इतने समय सामने बैठी हुई देख कर रतनचंद जी समझ गए कि वो कुछ न कुछ बात करना चाहती है। रविवार का दिन था। मंद-मंद पवन के झोंके उन्हें छेड़ रहे थे, परिंदों के उड़ानखटोले उन्हें लुभा रहे थे। हवा के साथ-साथ पत्तों की सरसराहट सुबह को सुरों से सराबोर कर रही थी। चेहरे से ऐनक निकाल कर उन्होंने उसे कुर्ते के जेब में डाला, अख़बार को समेटा और प्रश्नवाचक मुद्रा कर 

बोल पड़े, ” क्या बात है मोहिनी? “

पूछने की देर थी कि मोहिनी जी बोल पड़ी, ” मैं क्या कह रही थी? सप्ताह से ऊपर हो गया लड़केवाले आ कर मानसी को देख कर चले गए! आप फ़ोन कर पूछिए तो सही, उनका क्या विचार है? लड़का-लड़की तो एक-दूसरे को पसंद कर चुके है। फिर देर किस बात की?

रतनचंद जी ने गर्दन हिलाई और फिर अख़बार देखने लगे। मोहिनी जी फिर बोल पड़ी, ” अभी लगाइएं न फोन… “

इस कहानी को भी पढ़ें:

सुनो, बहू क्या लाई हो – मनु वाशिष्ठ : Moral Stories in Hindi

रतनचंद जी समझ गए यह काम पूरा किए बिना मेरा पीछा नहीं छोड़ेगी! “

उन्होंने मोबाइल से कॉल किया। छुट्टी का दिन था तो सज्जन जी, लड़के के पिता घर पर ही थे। रतनचंद जी ने घुमा-फिरा कर नहीं सीधे ही सवाल किया, ” मान्यवर! क्या विचार है आपका? क्या लड़की पसंद है आपके बेटे और परिवार को? “

दो मिनिट कॉल होल्ड पर रख कर उन्होंने किसी से बात की और कहा, “बाकी सब तो ठीक है, आप हमारे यहाँ पधारिये शाम को! यहीं बात करते हैं! साथ में धर्मपत्नी जी को भी ले आइयेगा जी !”

मोहिनी जी ने इशारे से ‘हाँ ‘ कहा तो रतनचंद जी ने नौता स्वीकार कर लिया!

वक़्त बहुत कम था। खाली हाथ तो कैसे जाएं? रतनचंद जी ने कुछ फल, मेवा-मिठाई मंगवाई और मानसी से स्वीकारोक्ति ले कर लड़केवाले के यहाँ जाने की तैयारी करने लगे। मोहिनी जी ने अपने रुतबे के हिसाब से कांजीवरम सिल्क की गुलाबी साड़ी पहनी थी। ‘गार्नीयर कलर नेचुरल’ से रंगे हुए बालों का जुड़ा और उस पर अपने ही बगीचे का गुलाबी गुलाब, गले में मोतियों की माला और उससे मेल खाते झुमके! ड्राइवर के आते ही दोनों ने सामान रखवाया और गजानन जी को दंडवत कर निकाल पड़े अपने गतंव्य की ऒर!

बड़ी सी हवेली, नौकर-चाकर, मखमली सोफे देख रतनचंद जी ने मोहिनी जी की ऒर देखा! हौले से मोहिनी जी ने कहा, ” चिंता मत कीजिये! इनके खानदान में लेने-देने की नहीं रिश्तों में प्यार और अपनेपन को अहमियत दी जाती हैं। सुना नहीं उन्होंने उस दिन क्या कहा? ” और दोनों यजमान को आते देख मौन हो गएं।

लडके की माँ लक्ष्मी जी , पिताजी सज्जन जी और छोटी बहन शिल्पा भी बैठी थी माँ के पास! तभी लड़के के पिता ने दोनों का ‘रोज मिल्क’ से स्वागत किया।  

कुछ समय इधर-उधर की बातें कर रतन चंद जी सीधे मुद्दे पर आएं। “तो मान्यवर! मैं रिश्ते को आपकी ‘हाँ ‘ समझूं?” “जी..जी! वैसे तो लड़का-लड़की ने एक-दूजे को पसंद किया हैं मगर… ” मगर क्या श्रीमान जी… “

लड़के के पिता जी ने अपनी पत्नी की ऒर देखा! आँख का इशारा होते ही वह बोल पड़े, “वैसे तो हमारे खानदान में लेने-देने की परम्परा तो हैं नहीं लेकिन… क्या हैं कि समाज, बिरादरी में उठते-बैठते हैं न! फेहरीश्त में कांट-छांट के बाद भी काम से कां 700-800 लोगों को तो खाने पे बुलाना ही होगा “… रतन चंद जी बोल पड़े… हाँ जी! कोई चिंता नहीं! हम मान-मनुहार में कोई कसर नहीं रक्खेंगे!”

रतनचंद जी की बात अभी ख़त्म भी नहीं हुई थी कि माताजी लक्ष्मी जी बोल पड़ी, ” बड़े घर की बहूँ बनेगी आप की बेटी तो “लंका की पार्वती” बन कर थोड़े ही आएगी? वैसे तो क्या रक्खा हैं आभूषणों में! हमें तो बस रिश्ते में प्यार-अपनापन चाहिए जी… बस! क्या हैं न… बिरादरी में नाक नहीं कटनी चाहिए.. फिर शिल्पा की भी तो शादी करनी है! ” 

अब तक खामोशी से उनकी बातें सुन रही मोहिनी जी बोल पड़ी, ” हमारी भी एकलौती बेटी हैं…, हमारी हैसियत के हिसाब से पहना-ओढ़ा कर ही भेजेंगे जी… आपके घर! 

“हाँ..जी! हाँ..जी! मुझें पूरा विश्वास हैं आप बेटी को साज-श्रुँगार कर ही भेजेंगे! वैसे कितना जचेगा न इनका जोड़ा! लक्ष्मी-नारायण सा! उनका तो ठीक हैं.. शेषनाग पर विराजमान हैं। मगर क्या आप चाहेंगे आपका जँवाई बेटी को पैदल ले जाएं सिनेमा देखने? नहीं न! मैं जानती थी! वैसे खानदानी लोग हम! दहेज लेने में बिल्कुल विश्वास नहीं करते! सिर्फ बच्चों की ख़ुशी चाहिए जी… ख़ुशी! “

इस कहानी को भी पढ़ें:

अपनत्व तो अनमोल है – नेमीचन्द गहलोत : Moral Stories in Hindi

नकली आभूषण से प्याज़ के उतरते छिलके सी एक-एक परत उतर रही थी और मोहिनी जी और रतनचंद जी यथार्थ की खुरदरी सतह से रूबरू हो रहे थे। 

सामने दर्जनों तश्तरियों में रक्खे मेवा, मिठाई, फल उन्हें चिढ़ा रहे थे। उनके मुंह से निकले शब्द खोखले नज़र आ रहे थे। शब्दों का खेल तो सह लिया था उन्होंने लेकिन अपनी बेटी की ज़िन्दगी से ‘खेला’ कैसे होने देते दोनों?

मोहिनी जी और रतनचंद जी उठ खड़े हुएं! यजमान चाय का पूछते उसके पहले ही रतनचंद जी बोल पड़े! 

“क्या करें… हम भी ठहरे खानदानी लोग! हम तो आपके ‘उच्च’ विचारों का सम्मान कर लेते लेकिन हमारी बेटी हैं न! बड़ी सिद्धांतवादी हैं। मानती ही नहीं! अब उसे कैसे समझाऊ? यह गाड़ी-बंगला, आभूषण, मान-पान दहेज थोड़े ही हैं? पगली! समझती ही नहीं आप जैसे खानदानी लोगों को! कितना भी समझाऊंगा, मानेगी नहीं वह!” 

रूठ कर कहेगी हमें,” बाबा! सोने की मुर्गी मत बनाओ मुझें! नहीं चाहिए मुझे ऐसा खानदानी घर… रिश्तों में प्यार-अपनापन! मुझें कुँवारी रहने दो बाबा!”

“श्रीमान जी! धन्यवाद! आपकी खानदानी आपको मुबारक!” और दोनों खाली हाथ चल पड़े अपने घरौंदे की ऒर..

स्वरचित तथा मौलिक,

कुसुम अशोक सुराणा, मुम्बई।

#हमारे जगह रिश्तों में प्यार हो और अपनापन हो, इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!