वैसे तो हॉस्पिटल के बिस्तर पर नींद बहुत मुश्किल से आती थी लेकिन दवाईयोंसे कभी-कभार झपकी लग ही जाती थी। डनलोप की गादी, वातानुकूलित कमरा, गज़ब की शान्ति, सेवा में परिचारीकाएं फिर भी चैन कहाँ था?
थोडीसी झपकी लगी नहीं कि अवचेतन मन में अतीत की किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगते और गुजरे लम्हें दिल पर दस्तक देने लग जाते मानों कब से दरवाजा खुलने का कोई इंतज़ार कर रहा हो!
नई-नई दुल्हन बन कर आई थी मैं ससुराल! भरा-पूरा संयुक्त परिवार! सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर और मैं! ननद-ननदोई और उनके बच्चें 2-3 किलोमीटर की दूरी पर ही रहते थे।
सुबह से रात तक काम में दिन कैसे गुजर जाता पता ही नहीं चलता। परिवार एकलौती ननद और वह भी छ: भाईयों की एकलौती बड़ी बहन!
यह वह वक़्त था जब सास को बहूँ को कुछ कहना होता था तो वह सीधे-सीधे नहीं, बेटी को सुना कर कहती थी। ननद सहेली या बड़ी बहन कम, सास की ‘जासूस’ ज्यादा लगती थी। सुनी-सुनाई बातें , पूर्वाग्रह से ग्रसित विचार भी कई बार नवागत को आशंकाओं के कानन में भटकने के लिए अकेला छोड़ जाती हैं और यहाँ भी वहीं हाल हुआ था। पहल-पहले तो मैं उनसे खुल कर बोल नहीं पाती, कभी-कभार उनके बच्चों से बतियाती, खेलती लेकिन जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया, धारणाएं भी बदलती गई और मैं हकीकतों से रूबरू होती गई।
मेरी आशंकाओं की कड़ियाँ टट-टट टूटती गई और मस्तिष्क में छाएँ काले बादल हवाँ हो गएं।
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कुछ साल गुजर चुके थे। मैं भी ससुराल में घुल-मिल गई थी। मन की सभी शंकाएं गधे के सिर से सींग सी छूँ-मंतर हो चुकी थी। ननद इस शब्द का असली अर्थ अब समझ में आने लगा था। उन्हें अस्थमा की शिकायत थी। जब भी उन्हें कुछ तकलीफ होती, सहायता की आवश्यकता होती तो वह मुझें बुलाती जरूर! बच्चों से मेरी दोस्ती पहले दिन से ही हो चुकी थी।
अब रिश्ते ऐसे हो गए थे कि उनकी माँ की शिकायत भी हम सभी देवरानी-जेठानी उनसे बिनधास्त करने लगे थे। उनका एक बहुत अच्छा गुण था धरती sa धीरगंभीर स्वभाव! जो भी सुना उसे जज़्ब करने की आदत! वो हमें बहुत शान्ति से सुनती यहाँ तक कि हमारे होठों से निकली अपनी प्रिय माँ की बुराई भी! उनका यहीं धैर्य, भलमानसियत और शांत स्वभाव हमें राहत देता। न तो वह कभी हमारी चुगली करती न कभी किसी के कान भरती। सबका सुन कर अपने दिल में जादू की पोटली बना कर उसमें रख देती और मुस्कुराती!
हमें भी उनसे दिल खोल कर बात करने से बहुत राहत महसूस होती मानों पीहर होकर आएं! हमारा पीहर भी दूर था। साल में एक-आध बार जाने को मिलता था उस समय! न दूरभाष की व्यवस्था न दृश्य-संवाद! चिट्ठी पत्री ही साधन!
कभी-कभी चिट्ठी लिख भी देते तो क्या ससुराल वालों की बुराई करते? अपने माता-पिता को चिंता की खाई में धकेल देता? यह वह दौर था जब माता-पिता कहते,
“ससुराल वालों से झगड़ कर यहाँ आना मत! डोली में गई है, अर्थी में ही आना” न पति को कुछ कह पाते न पीहर वालों को!
ऐसे दौर में एक ममता लुटाने वाली ननद मिल जाएं तो फिर क्या कहने!
यादों के परिंदे चहचहा रहे थे, कोई इस डाल से उस डाल पर कूद रहे थे तो कोई उस डाल से इस डाल पर! अवचेतन मन में यादों ने मानों दिलोंदीमाग पर कब्ज़ा जमा लिया था।
तभी एक प्यारी सी आवाज़ आई और मैं जाग गई। सामने मेरी ननद बाई और उनका बेटा था।
वह कह रहा था, ” मामीसा! सोनी ने तो नहीं ही बोला था आने के लिए कि डॉक्टर ने मना किया है कहीं इन्फेक्शन न हो जाये, लेकिन क्या करूँ! माँ तो मानती ही नहीं! वह कहती है, ” इतना बड़ा ऑपरेशन हुआ और मैं भोजाई को मिलने न जाऊं? नहीं यह नहीं हो सकता! उन्हें देखे-मिले बिना मैं शान्ति से नहीं रह सकती!”
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मेरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। मैं उठने की कोशिश करने लगी लेकिन उन्होंने मुझे सोने के लिए कहा। इधर-उधर की बातें हुई। कुछ मोसम्बी वह मेरे लिए लेकर आई थी। उन्होंने सिर पर हाथ फेरा मानों मुझे कह रही हो, “चिंता मत कर, जल्दी ठीक हो जायेगी। ध्यान रखना अपना! ठीक हो कर जल्दी घर आना है। फिर आऊंगी मैं मिलने! ”
इतना कह कर वो दोनों जल्दी ही चले गएं लेकिन मेरा विश्वास दुगुना कर गएं!
सारी भ्रान्तियां तो कब की काफूर हो चुकी थी लेकिन उनके शब्द मन को हौसला और सुकून दे रहे थे, हालात से लड़ने का जज़्बा और जीवट मुझे में पैदा कर रहे थे।
इन्सान विपदा में घिरा हो तो तिनके का सहारा भी महत्वपूर्ण होता है। वहीं तूफानों से लड़ कर कश्ती को किनारे पहुंचता है।
आज भी खुद उम्र की ढलान पर होने के बावजूद भी अगर उन्हें पता चले कि उनका भाई, भाभी या परिवार का कोई भी सदस्य बीमार है, तो वो जरूर आएगी धरती सी अपनी गोद में लेकर उसे लौरियाँ सुनाने, अपनी उँगलियाँ बालों में घुमा कर उसे राहत देने, भले ही खुद ढलती उम्र और ढलते स्वास्थ्य का सामना क्यों न करती हो!
शादी की स्वर्ण जयंती के करीब पहुँचते-पहुँचते, ननद का अर्थ मुझें जो समझ में आया है वह है ‘न’ यानि की नेह की प्रतिमूर्ति, ‘न’ यानि की विपदा से निजात दिलाने वाली और ‘द’ यानि की दिल से दुआएं देने वाली…मेरी प्यारी ‘ननद’!
स्वरचित तथा मौलिक,
कुसुम अशोक सुराणा, मुम्बई, महाराष्ट्र।