इसके बाद क्या.… – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

पूरे दो साल हो गए थे… अविनाश को अपाहिज हुए… एक हादसे में उसने अपनी दोनों टांगें गंवा दी…व्हीलचेयर पर जिंदगी खींचने को मजबूर अविनाश… अभी सिर्फ 32 साल का ही हुआ था…

 तीन साल पहले… बड़ी ही धूमधाम से उसकी शादी अवंतिका से हुई थी… दोनों ने साल भर यहां-वहां घूम कर, खूब मस्ती की…

 अविनाश की तो नौकरी ही थी देश-विदेश घूमने फिरने की… इसलिए तो अवंतिका ने एक बार में ही शादी को मंजूरी दे दी थी…” क्या दिन थे वह भी…!” बोलकर कितनी ही बार अवंतिका आहें भर उठती…दो दिन के लिए उनके कदम घर में नहीं टिकते थे… कभी गोवा, तो कभी लद्दाख, तो कभी हॉलैंड, कितने ही हनीमून ट्रिप साथ मनाए थे उन्होंने…

 दो साल पहले की ही बात है.… दोनों मुंबई में थे, अविनाश ऑफिस से निकला ही था… रोड की दूसरी तरफ अवंतिका कैब के साथ उसका इंतजार कर रही थी… अविनाश ने फुर्ती से रोड क्रॉस करने की गलती की, और वह गलती उसकी दोनों टांगें लेकर चली गई…

 पूरे साल भर तो वह अस्पताल में ही रहा… जब घर वापस आया तो उसकी पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी…यूं तो घर में मां, भैया, भाभी सब थे, पर फिर भी नीचे के कमरे में पड़ा हुआ अविनाश… बिल्कुल अकेला था…

 अवंतिका साल भर की दौड़ धूप से ऊब सी गई थी… हर वक्त उखड़ी उखड़ी रहती थी… कभी मन किया तो दो बातें की, नहीं तो अपना मोबाइल हाथ में लिए ऊपर वाले कमरे में चली गई…

अविनाश का ख्याल मां ही रखती थी… एक दिन अवंतिका ने अविनाश से सुबह-सुबह कहा… “अविनाश, आज से मैंने एक नौकरी पकड़ ली है…!”

” मगर अवंतिका… तुम आज बता रही हो… जब जा रही हो…!”

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” मैं भूल गई बताना अविनाश… और वैसे भी क्या फर्क पड़ता है… तुम्हें तो बाहर जाना नहीं है, तो काम तो मुझे करना ही पड़ेगा ना…!”

 अविनाश उसके व्यंग्य से भीतर तक आहत हो गया… वह कुछ नहीं बोला… अवंतिका चली गई… अब वह पूरी बदल चुकी थी… ना अब उसके घर आने का कोई समय रहता था… ना ही जाने का…

 धीरे-धीरे दो महीने होते-होते उसने अविनाश को तलाक के कागज थमा दिए…” सॉरी अविनाश… मैं इस तरह घुट घुट कर… तुम्हारे साथ अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं कर सकती… मुझे आजाद कर दो… प्लीज अविनाश… मुझे मेरी जिंदगी जीनी है… काटनी नहीं… मुझे जाने दो…!”

 अविनाश इस बात के लिए कब से तैयार था… वह जान रहा था, अवंतिका कुछ ऐसा ही करने वाली है… उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ… उसने कागज पर बिना कुछ बोले कलम चला दिया… अवंतिका खड़ी थी… “कुछ पूछोगे नहीं अविनाश…!”

” नहीं…!”

” तुम्हारे साथ जो एक साल बीता… उसे मैं कभी नहीं भूल सकती… मगर उस एक साल के बाद, जैसे ये दो साल बीते हैं… उसे मैं आगे नहीं झेल सकती… मुझे माफ कर देना… मैं एक अपाहिज की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी नहीं बर्बाद कर सकती…!”

 वह चली गई… अविनाश ने उससे कुछ नहीं कहा… कोई सफाई नहीं मांगी… कोई जबरदस्ती नहीं किया… हां एक गहरी चोट, उसके आत्मसम्मान पर जरूर लग गई… “इसके बाद क्या…!” यह सवाल उसके जेहन में बार-बार उठने लगा… “क्या इसी तरह दया पर जीता रहेगा वह… मां की सेवा करने की उम्र में… उन पर बोझ बनकर… वह तो कहीं नहीं जाएगी उसे छोड़कर…!”  

अविनाश ने अपने लिए संभावनाओं की तलाश शुरू की… इसी क्रम में उसे पैरालंपिक गेम्स के बारे में पता चला… क्रिकेट खेलना बचपन से ही उसका सपना था… जब भी खाली समय मिलता… वह मैदान पहुंच जाता था… पर पढ़ाई और करियर की भाग दौड़ में वह कहीं पीछे छूट गया … 

अविनाश ने अब अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए एक फैसला लिया… क्रिकेट खेलने का… मां और भैया ने उसका पूरा साथ दिया…

 कुछ ही दिनों में वह अपने राज्य की पैरालंपिक क्रिकेट टीम का हिस्सा बन गया… रास्ता कठिन अवश्य था… पर अविनाश ने हार नहीं मानी… वह अवंतिका को ही नहीं, उसकी तरह सोच रखने वाले पूरे समाज को, और खुद को भी दिखाना चाहता था… कि हौसलों से मजबूत इंसान, कभी भी, किसी भी परिस्थिति में क्यों ना हो… मंजिल का रास्ता ढूंढ ही लेता है…

 अविनाश की पकड़ क्रिकेट में बहुत मजबूत हो गई… उसकी स्पिन बॉल के आगे कोई भी बैट्समैन टिक नहीं पता था… धीरे-धीरे वह टीम का एक अनिवार्य अंग बन गया… फिर से देश-विदेश की यात्राएं करने लगा…

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अब उसकी तस्वीरें अखबारों में आने लगी.… उसके संघर्ष के वीडियोज् वायरल होने लगे… वह दोबारा अपनी ज़िंदगी शान से जीने लगा…

 एक दिन अवंतिका का फोन आया.…” कैसे हो अविनाश… आज भी कुछ कहोगे या नहीं.… सामने आने की हिम्मत नहीं हुई… इसलिए फोन कर रही हूं…!”

” ठीक हूं… तुम कैसी हो…!”

” मैं भी ठीक हूं…!”

” शादी-वादी की या नहीं…!”

” हां… एक बेटी भी है…!”

” वाह… बधाई हो…!”

” थैंक्स…अविनाश… तुमने मुझे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की… शायद मैं रुक जाती…!”

” नहीं अवंतिका… अगर तुम रुक जाती, तो शायद मैं यह फैसला कभी नहीं ले पाता… एक फैसला मेरे आत्मसम्मान के लिए… बस अब उसका साथ नहीं छोड़ना… हर इंसान मेरी तरह फैसला नहीं ले पाता… और ना ही संभल ही पाता है… शायद वह तुम्हारा धोखा ना सह सके…!”

रश्मि झा मिश्रा 

एक फैसला आत्मसम्मान के लिए..…

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