आत्मसम्मान के साथ मायके आऊंगी। – अर्चना खंडेलवाल : Moral Stories in Hindi

अरे!! ये क्या अच्छा भला घर छोड़कर मायके में आकर बैठ गई है, कुछ शर्म भी है या नहीं, बेटी शादी के बाद ससुराल में ही अच्छी लगती है, इस तरह मायके में रहना शोभा नहीं देता है, फिर मायके वाले कब तक तेरा बोझ उठायेंगे? चाची ने तंज कसा और चली गई।

सुधा निशब्द बैठी थी, क्योंकि वो अब तक अपने अंतर्मन से लड़ रही थी, उसका मन कह रहा था कि उसने जो भी फैसला लिया है, वो सही है, एक फैसला जो उसने अपने आत्मसम्मान के लिए लिया है, वो अपने फैसले से खुश और संतुष्ट हैं, पर दुनिया वाले उसके फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं, कभी चाची, कभी दादी तो कभी आस-पड़ौसी वाले आकर ताना दे ही जाते थे।

सुधा अभी तक भी उलझन में थी कि वो क्या करें और किससे अपने मन की बात कहें, मां की अब उम्र हो चली थी, वो बीमार भी रहती थी, पापा भी जैसे तैसे घर चला रहे थे, छोटा भाई अभी बेरोजगार ही था, घर की माली हालत ज्यादा ठीक नहीं थी, ऐसे में उसका वापस मायके आना सबको अखर रहा था।

शादी के बाद बेटी का असली घर उसका अपना ससुराल ही होता है, वो मायके कभी-कभी बुलावे पर जाती है, लेकिन यहां तो वो हमेशा के लिए ही आ गई है, ऐसे में उसका रहना मुश्किल हो रहा था।

मां -पिताजी ने उसे बीए तक पढ़ाया और फिर अपनी ही जाति बिरादरी में उसके लिए लडका तलाशा, सुरेश प्राइवेट कंपनी में काम करता था, उसके घर में सास-ससुर और दो ननद थी, सबका खर्च सुरेश ही उठा रहा था, सुरेश से उसकी शादी अभी एक साल पहले हुई थी, शादी उनके बजट से ऊपर ही की गई थी, सुरेश के घरवालों की कोई विशेष मांग नहीं थी, परिवार अच्छा जानकर पिताजी ने हाथ पीले कर दिये थे।

विवाह के बाद सुधा कई स्वप्न लिए ससुराल की दहलीज तक आ पहुंची, ससुराल में उसका बड़े प्यार से स्वागत हुआ। शादी के दो दिन हो गये थे, और वो जानने को उत्सुक थी कि सुरेश उसे हनीमून के लिए कहां लेकर जा रहे हैं? लेकिन सुरेश ने कोई जवाब नहीं दिया। एक दिन उसने फिर से पूछा तो सुरेश बोले कि ‘हनीमून पर जाकर इतना पैसा बर्बाद करने से क्या फायदा ? मां ने मना कर दिया है, अभी दोनों बहनों की शादी भी करनी है।

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हां, मै जानती हूं कि हमारे ऊपर अभी काफी जिम्मेदारी है, लेकिन ये दिन भी तो वापस नहीं आयेंगे, हम आस-पास ही कहीं दो-तीन दिन के लिए जाकर आ जाते हैं, हनीमून तो कहीं भी कम खर्च में भी जा सकते हैं, लेकिन सुरेश ने उसकी बात अनसुनी कर दी, सुधा मन मारके रह गई।

शादी के कुछ दिनों बाद दोनों ननदें कॉलेज टूर पर जाने की बातें करने लगी तो सुधा की सास ने एक पल  में हां कर दी, दोनों का खर्चा भी काफी था, ये देखकर सुधा हैरान थी, जब उसने अपने पति से कहा तो वो भी अपनी मां की तरफ ही बोलें।

अब सुधा को समझ में आ गया था, जिस घर में वो आई है, वो वहां सिर्फ एक बहू ही बनकर रहेगी, और बहू के पास ना घूमने-फिरने का हक है और ना ही अपनी मर्जी से कुछ लेने का।

एक दिन सुधा ने अपने पति से कुछ सामान खरीदने के पैसे मांगे तो सुरेश ने कह दिया, अभी उसका हाथ तंग है, फिर अभी तो शादी हुई है, तुम्हें सामान की और कपड़ों की क्या जरूरत है? सुधा मन मसोसकर रह गई, क्योंकि शादी में मिले कुछ सूट काफी भारी थे और उसे हल्के कपड़े लेने थे। दोनों ननदें कॉलेज जाती थी तो नित नयी शॉपिंग करती रहती थी, मतलब उनके लिए रूपये पैसे की कमी नहीं थी, लेकिन बहू कुछ मांगे तो सास भी झट से मना कर देती थी।

धीरे-धीरे सुधा की हालत बस एक नौकरानी की तरह हो गई थी, वो दिनभर घर का सारा काम अकेले करती और रात को पति द्वारा दी गई शारीरिक पीड़ा को बर्दाश्त करती थी। उसकी मानसिक स्थिति बिगड़ने लगी थी, सारे घर के लोग उस पर हुकुम चलाते थे, उसे सबके इशारों पर दौड़कर काम करना होता था।

क्या शादीशुदा जिंदगी ऐसी होती है? वो इस सबसे खुश नहीं थी, और दिन-रात की प्रताड़ना उससे बर्दाश्त नहीं हो रही है।

सुरेश को उसकी मां और बहनें भड़काती रहती थी तो उनके बहकावें में आकर वो उस पर हाथ भी उठाने लगा था, अपने आत्मसम्मान को रोज मरता देख वो छटपटाने लगी थी, जीवन की इतनी तकलीफें अब बर्दाश्त नहीं हो रही थी।

 सुधा को एक दिन खबर मिली कि पापा सड़क दुर्घटना में घायल हो गये है तो वो दौड़कर उनसे मिलने अस्पताल पहुंच गई, और अगली सुबह आने का कहकर घर आ गई, घर आते ही पति समेत सभी ससुराल वाले उस पर भड़क गये, ‘तू रात भर कहां गई थी? हमसे पूछना भी जरूरी नहीं समझा, हमारे घर की बहूएं यूं रात बाहर नहीं गुजारती है, अब तेरे लिए इस घर में कोई जगह नहीं है, सास के मुंह से ये शब्द सुनकर सुधा चौंक गई।

मम्मी जी, मै आपको बताकर गई थी कि मै पापा से मिलने जा रही हूं, और आप मुझ पर चरित्रहीन होने का दोषारोपण कर रही है, सुरेश आप कुछ क्यों नहीं बोलते ? मै मायके गई थी, पापा की देखभाल के लिए, सुधा का गला कहते-कहते भर आया।

सुरेश चुपचाप खड़ा था, ऐसे समय में सुरेश की चुप्पी सुधा को कचोट रही थी, वो दोषी की तरह कटघरे में खड़ी कर दी गई थी, और सबकी नजरें उससे सवाल कर रही थी।

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‘तूने मेरे ऑफिस से आने का इंतजार क्यों नहीं किया? तेरे  पापा मर तो नहीं रहे थे, मर भी जाते तो तू क्या उन्हें बचा लेती, अब तू पहले इस घर की चिंता किया कर, मायके वाले बाद में है, और हां, तू सिर्फ बताकर गई थी, पूछकर नहीं गई थी, बताकर जाने में तेरी मर्जी थी, और पूछकर जाती तो मम्मी की मर्जी होती, इसलिए अपराध तो तुझसे हुआ है, इसलिए तू अब इस घर में नहीं रह सकती, सुरेश की बातें सुनकर सुधा के पैरों से जमीन सरक गई।

मै भी ऐसे घर में रहना नहीं चाहती हूं, मुझ निरपराधी को जहां दोषी  ठहराके मेरे चरित्र पर लांछन लगाया जा रहा है, मुझे आत्मसम्मान से जीना है, और मैंने अभी एक फैसला अपने आत्मसम्मान के लिए लिया है, तुम मुझे घर से निकाल रहे हो, मैं अपने जीवन से तुम्हें निकाल रही हूं, अपना जरूरी सामान लेकर सुधा ने अपने पति का घर त्याग दिया।

पापा बीमार थे तो उसने कुछ नहीं बताया, लेकिन वो जब दोबारा ससुराल वापस नहीं गई तो घर में कोहराम मच गया, गरीब की बेटी वापस घर आ जाएं तो मायके वालों की चिंता और बोझ दोनों बढ़ जाता है, सुधा को इस सदमे से उभरने में काफी समय लग गया, सुरेश से तलाक के बाद उसने अपना जीवन नये सिरे से शुरू किया, अपनी आगे की पढ़ाई की और प्रतियोगी परीक्षा दी, जिसमें सफल होने पर उसे बैंक में नौकरी मिल गई।

वो घर की आर्थिक मदद करने लगी, छोटा भाई अखिल भी अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया था, उसकी उम्र भी अब विवाह की हो गई थी, लेकिन सबको सुधा की चिंता थी कि वो जीवन भर अकेले कैसे रहेगी?

अखिल अब सुधा के लिए रिशते तलाशने लगा, ये सुनते ही सुधा ने कहा कि उसे अब शादी नहीं करनी है, वो अपना जीवन अकेले गुजार लेगी।

अखिल ने उसे समझाया, ‘दीदी आप नौकरी करते हो, अपने पैरों पर खड़े हो, अच्छी बात है, लेकिन जीवन सिर्फ अपने पैरों पर खड़े होने से नहीं चलता है, जीवनसाथी और परिवार तो सबको चाहिए, कल को मेरी शादी हो जायेगी, मै अपने परिवार में व्यस्त हो जाऊंगा, मम्मी -पापा की भी उम्र हो रही है, फिर मेरी शादी में मेरी बहन ही मेरे नेगचार नहीं करेंगी, तो कौन करेगा? मेरी शादी अच्छे से होगी, पर उसके लिए पहले जरूरी है कि आपकी शादी हो।’

मै नहीं चाहता कि मेरी शादी में सब लोग आपको ताना दें, तरह-तरह के सवाल करें, मै चाहता हूं कि मेरी शादी में मेरी दीदी खुश रहें और आत्मसम्मान के साथ मायके में आयें।

ये सुनकर सुधा सोचने लगी, अखिल सही कह रहा है, आत्मसम्मान तो हर जगह जरूरी है, चाहें वो ससुराल हो या मायका, अब सुधा ने भी फैसला कर लिया था, वो दोबारा शादी करेगी, और आत्मसम्मान के साथ मायके आयेंगी, ताकि कोई चाची, रिश्तेदार और आस-पड़ौसी उसकी बातें ना बना सकें।

अखिल ने सुधा के लिए वर तलाशना शुरू किया, काफी दिनों बाद भी कहीं रिश्ता नहीं बैठा, तभी एक दिन फोन की घंटी बजी, ‘मै नमन बोल रहा हूं, मै सुधा को कॉलेज के जमाने से ही पसंद करता हूं, और उसी के साथ बैंक में  नौकरी करता हूं, मुझे उसके पहले विवाह और तलाक की भी जानकारी है, मै तुम्हारी बहन को हमेशा खुश रखूंगा, वो अपने घर में आत्मसम्मान के साथ जीयेगी’।

ये सुनते ही अखिल खुश हो गया, उसने सबको घर में बताया और सुधा की हां सुनकर दोनों का विवाह करवा दिया।

आज अखिल की शादी थी, सुधा अपने पति के साथ पूरे आत्मसम्मान के साथ मायके आई थी, ये सब देखकर चाची, रिश्तेदारों और आस-पड़ौसी की जुबान पर ताले लगे हुए थे।

धन्यवाद 

लेखिका 

अर्चना खंडेलवाल

मौलिक अप्रकाशित रचना 

#एक फैसला आत्मसम्मान के लिए

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