वटवृक्ष – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

बरसों पुरानी बात है कि मैं ट्रेन से किसी काम से काशी जा रहा था। जब मैं अपनी रिजर्व सीट पर पहुंचा तो मेरी सीट पर एक अत्यंत साधारण कपड़े पहने झुकी सी कमर वाले साँवले से उम्रदराज व्यक्ति बैठे थे। उनके कपड़े सिलवट भरे थे और उनकी बेतरतीब सी दाढ़ी बढ़ी हुई थी।

मैंने कहा मान्यवर ये सीट तो मेरी है तो वो उठकर एक दूसरी सीट के कौने पर सिमट कर बैठ गए। उनकी तरफ विशेष ध्यान देने का कोई कारण नहीं था।

तभी दूसरी सीट वाले सज्जन भी आ गए और उन्होने हिकारत से कहा “बाबा ये रिज़र्वेशन वाला डिब्बा है। आप के पास रिज़र्वेशन वाला टिकट नहीं है तो जनरल डिब्बे में जाइए। तब भी वे सज्जन कुछ नहीं बोले और हल्के से मुस्कराकर एक कौने में खिसक गए।

थोड़ी देर में टीटी आ गया और सब के टिकिट चैक करने लगा। जब उन सज्जन से टिकिट मांगा तो उन्होने सहज ही जेब से एक कागज निकालकर दे दिया।

अचानक न जाने क्या हुआ, टीटी ने उन के पाँव छूए और कहने लगे “सर आप तो फर्स्ट क्लास के लिए ऐलेजेबल हैं। यहाँ कहाँ बैठे हैं।”

उन्होने कहा “सीट शायद एलौट नहीं हो पायी थी। कोई नहीं मैं ऐसे ही….।

“क्या बात करते हैं सर। इस देश के स्वतन्त्रता सीनिकों को सुविधाएं उपलब्ध करना हमारा कर्तव्य है। स्टेशन आने पर आप मेरे साथ चलिये।”

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अब पूरे कम्पार्टमेंट का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक था। पूछने पर टीटी ने बताया कि “ये गोवा के महान स्वतन्त्रता सेनानी दाभेकर साहब हैं। आज भी इनके स्वतन्त्रता संघर्ष की कहानियाँ वहाँ की किताबों में पढ़ाई जाती हैं।”

मैंने उन से क्षमा मांगी और सम्मान के साथ अगला स्टेशन आने तक अपनी सीट पर बैठने का अनुरोध किया और पूछा “मान्यवर आप कहाँ जा रहे हैं।” उन्होने बताया कि “मैं इन दिनों सनातन धर्म के सभी धार्मिक स्थलों की यात्रा करने निकला हूँ। बद्रीनाथ धाम से लौटकर अब काशी विश्वनाथ के दर्शन करने जा रहा हूँ।”

मैंने कहा “मान्यवर गोवा की संकृति की तो एक अलग प्रकार की छवि है हमारे दिमागों में। शराब, विदेशी गाने, समुद्र के किनारे अय्याशियां और खास तौर पर ईसाई और पाश्चात्य संस्कृति का गहरा प्रभाव।

उन्होने बताया कि “लंबे समय तक पुर्तगालियों का गुलाम रहने के कारण कुछ विकृतियाँ आई हैं किन्तु गोवा के मूल निवासी आज भी अपने धर्म और संस्कृति से बहुत प्रेम करते हैं। पूरे सनातन धर्म की तरह हम गोवा निवासी भी सारे संक्रमण और विदेशी अतिक्रमण झेलने के उपरांत अपनी संस्कृति और अपने धर्म को संजोकर रख पाए हैं।”

बाद में उनका छोटा सा सामान उठाकर प्रथम श्रेणी के डिब्बे तक छोड़ने उनके साथ जाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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