एक फैसला आत्म सम्मान के लिए – उमा वर्मा : Moral Stories in Hindi

आज फिर आफिस में त्याग पत्र दे आया ।घर पहुंचा तो किरण ने सवाल किया “इतनी जल्दी आ गये सुबोध, बात क्या है “?”हाँ आज फिर नौकरी छोड़ दिया ” आत्म सम्मान के लिए ही यह फैसला किया है ।नहीं बेच सकता मै अपना आत्म सम्मान ।” पर हुआ क्या “? बताओ भी? चीफ मैनेजर चोरी छिपे तस्करी का धंधा करता है, मुझे भी  फंसाना चाहता था।

दूसरी बात यह थी कि बीस हजार रुपये पर रखा था लेकिन कहता है कि पन्द्रह हजार ही मिलेगा, पाँच वह खुद रखेगा, ।फिर मै बीस पर साइन क्यों करूँ? बस छोड़ दिया काम ।किरण परेशान हो गई ” कैसे चलेगा काम? आमदनी का कोई स्त्रोत भी नहीं है हमारे पास ” किरण को समझाया, चिंता मत करो,कुछ न कुछ तो उपाय होगा ही ” पर उसके चेहरे पर बेचैनी झलक रही थी ।

मै भी शान्त रहने का दिखावा तो कर रहा था लेकिन चिंता मुझे भी खाये जा रही थी ।दो साल से कहीं टिक नहीं पा रहा ।जीवन कठिन होता जा रहा है ।बेटा मुम्बई में नौकरी कर रहा है ।बार बार आने को कह रहा है ।” अब यहाँ आ जाइए पापा, एक जगह, एकसाथ रह लेंगे ” पर मेरा मन कहाँ मानने वाला है ।अपने हाथ का पैसा अपना ही होता है ।बहुत ताकत मिलती है उससे ।

कुछ जरूरत पड़ी तो बेटे बहू के आगे हाथ पधारें? नहीं, अभी तो ताकत और दम भी है मुझमें ।कमसेकम पाँच साल तो कर ही सकता हूँ ।किरण समझाती है कि आखिर रिटायर मेंट की उम्र तो हो ही गई है ।बच्चे ठीक ही कह रहे हैं ।मैं भी क्या करूँ ।महानगर की भीड़, बच्चों की अपनी जीवन शैली, भाग दौड़, कोई जान पहचान नहीं ।

दुख सुख की बातें किससे कहें ।यहां तो अपना घर है ।चार दोस्त साथी,नाते रिश्ते, जिन्दगी के लिए काफी है ।समय कट जाता है ।वहां मुम्बई में अकेले बिताना? ना बाबा ।मुझसे नहीं  होगा ।हर बात में बच्चों पर निर्भर रहना, बहुत खराब लगता है ।कितने सपने थे पिता जी के ।पिता जी अपने बेटे को आफिसर देखना चाहते थे ।किस्मत की मार ऐसी पड़ी कि कुछ नहीं बन पाया ।

नौकरी में कहीं जान पहचान, कहीं रिश्वत आगे आ गया ।पिता जी एक नेक दिल, इमानदारी से चलने वाले, ।जिन्दगी में दौड़ धूप से पढ़ाई पूरी करके कुछ कमाने लगा ।अच्छी ही नौकरी ज्वाइन कर ली थी ।समय बीतता गया, फिर किरण मेरे जीवन में आ गयी दो साल में एक बेटे का पिता भी बन गया ।जीवन सुचारु रूप से गुजर रहा था कि अचानक समय पलट गया ।मेरी नौकरी डगमगाने लगी ।

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इधर बेटे की शिक्षा की परेशानी ।थोड़ा बहुत संभलता कि फिर नौकरी छूट जाती।माँ बाबूजी भी बहुत टेंशन में रहते ।लगता घर मे खुशियों को किसी की नजर लग गई है ।बेटे की शिक्षा किसी तरह पूरी हो गई ।वह मुम्बई में एक अच्छी कम्पनी में लग गया ।और अपने ही आफिस के एक सहकर्मी कन्या से विवाह की अनुमति चाही।किरण का कहना था

कि बेटे की पसंद को ही हमे अपनी खुशी मान लेना चाहिए ।लड़की हमे अच्छी लगी ।देखने में सुन्दर, शिक्षित, शालीन ।हमें और क्या चाहिए ।शादी धूम धाम से हो गई ।बहु अच्छे स्वभाव की थी।दिन खुशी खुशी बीत रहा था ।मै भी किरण के साथ अपने घर में खुश था।बेटा बहू समय समय पर आते रहते ।अब मेरी भी उम्र हो चली थी ।थकान हो जाती थी।फिर भी कुछ करने का जज्बा था।

जीवन में इतनी आमदनी नहीं थी कि भविष्य बना सकूँ ।कुछ रख नहीं पाया ।अब अफसोस करने से क्या फायदा ।किरण की बात में दम होता था कि एक उम्र हो जाने पर बच्चों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है ।बच्चों को भी हमारी जरूरत होती है ।कहीं न कहीं समझौता तो करना ही पड़ेगा न ।मै कहता “देखो किरण मै मानता हूँ कि समझदारी से ही जीवन चलता है ” हमे भी कभी पैसे की दिक्कत हुई ।

कभी किसी चीज को नहीं खरीद पाये,तब एक संतुष्टि थी अपनी गृहस्थी की।अपने हाथ की।हो सकता है बेटे के पास कभी दिक्कत हो, और हमें जरूरत पर न दे पाये तो लगेगा कि वह देना नहीं चाहता ।तुम मुझे गलत मत समझो, लेकिन मन का क्या, वह गलत ही समझ लेगा।इसी से मै चाहता हूँ की कुछ दिन और काम कर लूं ।फिर बच्चे तो है ही अपने ।किरण चुप हो गयी ।मै फिर नौकरी की तलाश में लग गया ।

लेकिन जहाँ जाता बात पैसे पर अटक जाती ।आखिर खाने भर तो चाहिए ही ना ।कहीं काम लगता तो पूरा पैसा नहीं मिलता ।किरण बार बार जोर देती।”चलिए जी, अब बच्चों के पास ही रहेंगे ” एक दिन बैठ कर चाय पी रहा था तभी खयाल आया कि ऐसा करते हैं, घर बेच कर बेटे के पास चले जाते हैं एक साथ रहेंगे ।किरण से पूछा तो वह भी मान गई ।

हमें लगा कि अम्मा शायद न माने, कयोंकि घर से उनका लगाव और भावना जुड़ी हुई थी।अम्मा से पूछा तो वे सहर्ष तैयार हो गई ।”अब घर का क्या मोह करना “जब घर बनाने वाले ही नहीं रहे।”अभी जरूरत को ध्यान में रखते हुए यह फैसला ठीक है ।घर तो एक न एक दिन बिकता ही है ।अम्मा ने कहा, तुम नहीं बेचोगे तो अगली पीढ़ी बेच देगी”अम्मा बहुत समझदार थी ।

बाबू जी नहीं रहे तो अम्मा भी अकेले कैसे रहेगी ।और मै भी थक गया हूँ ।जीवन में उतार चढ़ाव तो आते ही रहते हैं ।हमें समझौता करना ही होगा ।मन का क्या, यह तो बे लगाम का घोड़ा है, दौड़ता रहता है सरपट।आज ही एक इश्तहार दे दिया है घर बिक्री के लिए ।बच्चों के साथ जीवन का आखिरी समय हंसी खुशी बिताना है ।मै टिकट के लिए मोबाइल देखने लगा ।जितनी जल्दी हो बच्चों के पास पहुचने के लिए ।वहां छोटी सी पोती हमारा इन्तजार कर रही है ।

—उमा वर्मा ।नोयेडा ।स्वरचित ।मौलिक ।

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