सलोनी ने फोन उठाते हुए हेलो किया । वही चहकती, खिलखिलाती पहचानी सी आवाज़ लगी । आवाज़ थोड़ी कट रही थी और फोन भी कट गया । इत्मिनान होकर भी वह घर के अनसुलझे कामों में ब्यस्त होकर सोच नहीं पाई की आवाज़ किसकी थी । इतनी ही देर में दुबारा फोन आ गया ।
“हेलो सलोनी ! मैं दिव्या बोल रही हूँ, तुम्हारी कॉलेज की सहेली । सलोनी की आवाज़ में खुशी झलक रही थी । “दिव्या तुम, कहाँ से मेरा नम्बर मिला ? पहचान गई मैं तुम्हें ।
“कहाँ हो तुम ? मैं बनारस (मायके ) आयी हुई थी वहीं तुम्हारी बहन मिली उसी से नम्बर लिया । अभी गाज़ियाबाद में हूँ मैं, दो दिन बाद का टिकट है । दिव्या ने कहा ।
आश्चर्यपूर्ण स्वर में सलोनी बोली..”गाजियाबाद में हो तुम ? मैं भी तो यहीं नोएडा में हूँ । बहुत नजदीक हैं हम दोनों तो ।
“रुक ! जल्दी मुझे आने दे, फिर मिलने की योजना बनाते हैं दोनों । लगभग आधे घण्टे दोनों की बातें चली और फोन रखा गया ।
फोन रखते ही सलोनी के दिलो दिमाग में दिव्या की बातें घूमने लग गयी । कॉलेज के प्रथम वर्ष में आई थी दिव्या और मेरी दोस्ती हुई थी । बहुत बिंदास और मस्तमौला । पहले दिन मेरी सीट पर बैठी और तभी से दोस्ती हो गयी और दिनों दिन और गहरी होते चली गई । मैं कम बोलने वाली थी और वो बहुत बोलने वाली ।
उसे देखकर मुझे जिंदादिली का अर्थ समझ आता था । धीरे – धीरे घर आना जाना शुरू हुआ । दोस्ती हमारी लगभग ढाई सालों तक किसी तरह अच्छी चली ।पर मम्मी की आँखों में खटकती थी दिव्या । बार बार मम्मी मुझे मना करने लगीं…”कैसी सहेली बनाई है । मत इससे दोस्ती रख । हर समय
बस खुद की तारीफ के पूल बाँधते रहती है । जब देखो तो नेलपॉलिश, लिपस्टिक और ड्रेस के किस्से । पढ़ना है तुम्हें या फैशन शॉप खोलना है ।
उस समय कॉलोनी में नए ट्रांसफर हुए थे । मेरे ही घर के पीछे वाले क्वाटर में दिव्या का परिवार शिफ्ट हुआ था । मंदिर आते – जाते मम्मी और दिव्या की मम्मी की दोस्ती हो गयी थी या यूँ कह सकते हैं साथ जाने के लिए समूह में एक संख्या बढ़ गयी थी । कई बार पापा टहलने के लिए निकलते तो दिव्या की हरकतों से रूबरू हो जाते । हर दिन एक नया दोस्त बनाती थी प्यार नहीं था उसे किसी से पर दोस्तों में लड़कों की गिनती बहुत ज्यादा थी ।
फैशन में रहना और फैशन करना मैं उसी से सीखी थी । मम्मी पापा उसके बहुत आधुनकि विचारों वाले थे । छोटे कपड़े स्मार्ट ढंग से बहुत सहजता से वो पहनती थी, पढ़ने में भी बहुत अच्छी थी, और सबसे बड़ी बात मुझसे नाराज नहीं होती थी और हर कदम पर मेरा साथ देती थी ।
घर आकर पापा मम्मी से बताने लगते की पीछे जो नई शिफ्टिंग वाले विनोद जी हैं उनकी बेटी बिल्कुल अलग है । जब देखो लड़कों के साथ घूमती रहती है ।हमारी बेटी को उसके कुसंस्कार वाले छींटे न पड़ें नहीं तो बर्बाद हो जाएगी । मम्मी मुझपर दबाव बनाने लगीं अपनी दोस्ती को दाव पर लगाने के लिए ।फिर धीरे धीरे मैंने दिव्या से थोड़ा कटना शुरू कर दिया ।
वो समय ही ऐसा था । माँ – बाप के विरुद्ध नहीं जाती थी लड़कियाँ । बहुत मुश्किल था दिव्या से अलग होना पर हरसम्भव मैं कोशिश करती थी ।
मैंने अपनी सीट बदल ली फिर भी मेरे साथ वाली को हटाकर वह बगल में बैठ जाती और बोलती…”चल न सलोनी ! कैंटीन से कुछ खाकर आते हैं । और मेरा जवाब हमेशा ना रहने लगा ।
फिर मेरी चोटी पकड़कर वो जिद करते हुए कहती..”आजकल तू ज्यादा भाव खा रही है । तेरे लिए भी समोसे लेकर आती हूँ और लाकर प्यार से मुँह में ठूँस देती । बहुत शौकीन थी समोसे की, हर खुशी हर बात में उसे समोसा याद आता । मुश्किल था मेरे लिए उससे खुद को अलग करना । मेरे हाथ के बने समोसे की दिवानी थी वो
। जब भी घर आती तो समोसा जरूर बनाती थी उसके लिए । रास्ते में भी समोसे खाने को हरदम तैयार ।उसकी मम्मी भी मुझे बहुत तरह के पकवान खिलाती थीं ।
एक दिन पिकनिक की योजना बनी । इतवार था अगले दिन , उसी दिन जाना निश्चय हुआ । हम सत्रह सहेलियाँ साथ जा रहे थे । कॉलेज का आखिरी ही दिन था लगभग । मम्मी को मना रही थी मैं, मम्मी ने पूछा कौन – कौन जा रहा है ?
सबका नाम बताया मैंने दिव्या को छोड़ कर । मम्मी ने मुझे समझा दिया …”अब परीक्षाएँ नज़दीक आ रही हैं, वो बहुत चतुर और शातिर लड़की है, सिर्फ अपना काम निकालना जानती है । उसने ही सबको पिकनिक के लिए उकसाया होगा और खुद पढ़ने में तल्लीन होगी ।
मैंने मम्मी की बातों को अनसुना करते हुए पिकनिक के लिए बैग तैयार करना शुरू किया ।
अगले दिन पिकनिक गए और खूब मौज – मस्ती सैर- सपाटा किया । शाम ढलने पर जब लौटने का समय होने लगा तो ऑटो ही नहीं मिल रहा था । सबने अपने घर से गाड़ी मंगवाई और मैं तो झूठ बोलकर आयी थी । दिव्या ने मुझे कहा कि चल मेरी गाड़ी से तुझे घर से पहले छोड़ दूँगी । “क्या समस्या है यार ! लड़कों से बात करने में ? मम्मी पापा को समझा दे न, बस मानसिकता अच्छी होनी चाहिए । लड़कियों से ज्यादा भले मुझे लड़के लगते हैं ।
अब पापा मम्मी का डर मुझे सता रहा था । देर होती तो भी डांट पड़ती और दिव्या के साथ जाती तो भी । फिर मैं पहला वाला रास्ता अपनाने के लिए उसके साथ गाड़ी में बैठ गयी । जैसे ही उतरने लगी मेरे पापा दूध लाते हुए दिख गए और घूरते हुए थोड़ी देर रुके फिर घर चले गए ।
अब अपनी हालत का अंदाज़ा हो रहा था मुझे । घर जाकर बेतुकी बातें, दिव्या पर फब्तियाँ, दिव्या की लड़कों के प्रति दोस्ती , उसके मेकअप, ड्रेसअप पर खूब बातें सुनाकर मुझे धमकाया गया दुबारा उससे नहीं मिलने के लिए । वो शायद हमारा मिलना आखिरी ही था ।परीक्षा के दौरान ही किसी रिश्ते में बात चली और
एक दिन मनीष के मम्मी – पापा मुझे देखने आए और मैं पसन्द आ गयी । फिर गाँव जाकर मेरी शादी हो गई, कोई फोन, जरिया कुछ नहीं था मिलने का , कहीं न कहीं घरवालों को दिया वादा भी बांध रहा था । मेरी बहन की शादी बनारस में ही हुई थी, कभी कभी उसके जरिये खबर मिल जाती थी । ऐसी निःस्वार्थ दोस्ती आज तक किसी से नहीं हुई ।
अचानक फोन की घण्टी सुनकर मन अतीत से बाहर आया । मनीष सब्जी लेने गए हुए थे, और तब से मैं अपने ख्यालों में खोई हुई …। “कब से डोर बेल बजा रहा हूँ, बनारस पहुँच गयी थी क्या ? मेरे पति ने मीठा तंज कसते हुए कहा और मेरे चेहरे पर फीकी मुस्कान फैल गयी ।
मम्मी भी अब शरीर से लाचार थी । कोई होशहवास नहीं था जो कुछ बोल पाती । बहुत असमंजस में थी, कदम बढाऊँ या नहीं मिलने के लिए, रास्ते से तो ज्यादा दूरी नहीं थी लेकिन दिल से हम बहुत दूर हो गए थे ।
थोड़ी देर विचलित मन से बैठी रही । फिर मनीष ने समझाया..”वो पुराना दौर, पुराना माहौल और पुरानी दोस्ती , कब की गुम हो गयी । मम्मी जी भी शायद होश में होतीं तो तुम्हें नहीं रोकतीं । तुम चलो मैं तुम्हें छोड़ आऊँगा । तब तक पड़ोस वाले घर में देखी सारी सहेलियाँ एक साथ गाड़ी में बैठकर पिकनिक के लिए जा रही हैं । मुझे भी वो आखिरी दिन याद आ गया और मैंने जल्दी से अपने हाथों से समोसे तैयार किए और लेकर मनीष के साथ गाड़ी में बैठकर चल दी समोसे की यादों के साथ दोस्ती को जीवंत करने ।
मौलिक, स्वरचित
अर्चना सिंह