प्रेम के रंग – सीमा वर्मा

स्थानीय इंजिनियरिंग कॉलेज में दूसरे बर्ष के छात्र रीतेश और ज़ारा में कुछ तो गुपचुप अवश्य चल रहा है।

जा़रा जितनी प्यारी है ,उतनी ही मीठी उसकी आवाज।

रीतेश स्वभाव से जितना खुशदिल उतना ही अच्छा गजल भी लिख लेता है।  

उसकी लिखी गज़ल और जा़रा की मीठी आवाज वाली गाएकी में कौन किसे शोभाएमान करते हैं ? यह कहना मुश्किल है ?।

फरवरी का महीने में जब फिजा में चारो तरफ फगुनाहट की बयार बह रही है। रीतेश और जा़रा के मन में भी प्यार की कलियाँ खिलने को बेताब हैं। वे बादलों के पंख पर सवार हो आजाद परिंदों की भांति उड़ने को मचल रहे हैं।

एक दिन ऐसी ही खुशनुमा शाम को दिल के हांथों मजबूर हो, रीतेश ने जा़रा को गुलाब के फूल देते हुए अपने प्यार का इज़हार कर ही दिया,

” क्या मेरा प्यार स्वीकार करोगी?”

तब जा़रा ने हँस कर उसके दिए फूल को अपने बालों में टांक लिया।

उन्हें प्यार में एक साथ डूबे हुए चार बर्ष

बीतने को आए।

कॉलेज खत्म करने के बाद दोनों के कैंपस सेलेक्शन हो गये। लेकिन उनकी पहली पोस्टिंग अलग-अलग शहरों में हुई।


जा़रा अपनी सैलरी में से कुछ पैसे निकाल कर बाकी सब अम्मी को दे देती है।  घरवालों को अभी तक उसके और रीतेश के बिषय में कुछ भी पता नहीं है।

बेटी सयानी हो है।

घर में अब उसके निका़ह की बातचीत चलने लगी है।  जिस कारण से जा़रा चिंतित है।

रीतेश के घर में उसके परिवार के नाम पर सिर्फ उसकी माँ हैं। जिन्होंने उसके पिताजी की मृत्यु के बाद अकेले ही रीतेश को  पाल पोस कर बड़ा किया है।

जा़रा अक्सर सोचती है,

” क्या अब्बू,अम्मी और छोटे भाई मेरी इस दूसरे धर्म वाली प्रेमकथा को स्वीकार कर पाएंगे ? “

” धर्म की ऊंची दीवार को सहजता से ढ़ा पाएगें ? “

सशंकित हो भय से आंखें मूंद लिया करती है।

लेकिन क्या महज आंखें मूंद लेने भर से समस्या का निदान हो पाया है?

यही सोच एक दिन हिम्मत कर घर के गर्म माहौल में उसने अपना निर्णय सुना दिया,

” अम्मी मैं द्वारका नगर में रहने वाले ‘रीतेश’ से शादी करने की सोच रही हूँ”


अम्मी रीतेश का नाम सुनते ही

आग-बबूला हो गयीं,

” क्या कह रही हो जा़रा? तुमने तो हमारे खानदान की इज़्जत ही उछाल कर रख दी है ” इस प्रंसग का कुछ-कुछ भान तो उन्हें,  अपने निकाह को लेकर जा़रा की उखड़ी बातें सुन कर हो चुका था।

बाकी बचे हुए रहे-सहे आग में घी के जैसे, जा़रा के इस प्रस्ताव ने पूरा कर दिया।

“अच्छा होता “,

” पैदा होते ही तुम्हारा गला दबा दिया होता ?”।

जा़रा बीच में ही उन्हें टोक कर समझाती हुई बोली,

” अम्मी रीतेश बहुत नेक दिल इंसान है , हमनें पूरे चार साल एक साथ बिताए हैं”।

” हम एक दूसरे को अच्छी तरह समझते हैं “।

अम्मी डपटते हुए,

” और हम, हम नहीं  समझते तुम्हें ? “

“वो बात नहीं है अम्मी, अब मैं आपको कैसे बताऊँ , हमने एक साथ जीवन व्यतीत करने की कसमें खाई हैं “।


“कुछ भी हो, तेरी अपनी पहचान है जा़रा उस काफि़र के बच्चे से निका़ह कर तू कभी नहीं खुश रह पाएगी “।

जब लाख मनाने पर भी घर में उसकी किसी ने नहीं सुनी तब उन दोनों ने कोर्ट मैरिज करने का निर्णय ले लिया है।

नियत दिन ,नियत समय के बाद जब वे दोनों कोर्ट में शादी कर लेने के उपरांत जा़रा के घर उनके आशीर्वाद लेने गये। तो उनके लाख मिन्नतें करने के बाद भी वे बंद दरवाजा नहीं खुलवा पाए।

” तुम हमारे लिए मर गयी हो जा़रा “

अंदर से आई आवाज सुन वो बेहोश हो गिरने को हो आई।

तब रीतेश ने आगे बढ़ उसे फूल की तरह गोद में उठा लिया है।

इधर रीतेश के घर उसकी माँ जा़रा के स्वागत की तैयारियां जोर-शोर से कर रही हैं। 

यद्धपि कि उनके रिश्तेदारों द्वारा भी इस विवाह को सहज ही स्वीकार नहीं किया गया है। उन्होंने भी रीतेश के परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर रखा है।

फिर भी रीतेश की माँ ने उसे बेटी सा प्यार दे कर आलिंगन में भर लिया और खुले दिल से बोली ,

“चिंता मत कर बेटी, तुम्हारी अम्मी, अब्बू और भाई सब मैं ही हूँ, ” ।

फिर रीतेश और जा़रा ने एक जगह ही जॉब करने की सोच माँ के साथ बंगलुरू चले आए।

जहाँ माँ के सहयोग से जा़रा अपने ऑफिस में लगन से कार्य करती हुई प्रमोशन पा कर उच्च पद पा गई है। यों उनके व्यवहार ने उसे अम्मी की कमी तो कभी भी नहीं खलने दी है।


लेकिन अभी भी कभी-कभी ‘रीतेश के मुँह पर फटाक से बंद हुए दरवाजे’  की आवाज उसके कानों में गूंज जाती है।

बहरहाल… दिन गुजरने के लिए होते हैं… गुजर रहे हैं।

समय के साथ जा़रा ने चाँद सी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम उन दोनों के नाम पर “जा़श्ती ” रखा गया।

जा़रा को लगा अब तो अम्मी-अब्बू की नाराजगी दूर हो जाएगी।

उसका अंदाजा गलत निकला। नातिन की पैदाइश की खबर सुन कर भी जब उनका दिल नहीं पिघला।

तब जा़रा ने इस कसक को मन में ही दबा लिया और संतोष कर के जाश्ती की परवरिश पर अपना पूरा ध्यान लगा दिया है।

जा़श्ती अब छह साल की होने को आई है। बहुत ही प्यारी बच्ची है। अपनी मीठी बातों से सबका मन बहलाए रखती है।

तभी अचानक एक दिन जा़रा को पता लगा, कि अब्बू की तबियत बहुत खराब है। दोनों छोटे भाईयों की आमदनी उनके इलाज के लिए पर्याप्त नहीं है।

उन्हें खून चढ़ाने की नौबत आ चुकी है। लेकिन उनके ग्रुप के खून मिल नही पारहा है। सुन कर वह बेचैन हो उठी है। संयोग से रीतेश और उनका ब्लड ग्रुप एक ही है।

जा़रा यह बात जानती है।


” क्या बात है ?तुम कुछ सोच कर बेचैन हो लेकिन शायद संकोच वश मुझे बता नहीं पा रही हो ?”

माँ की स्नेहिल आवाज सुन कर जा़रा फूट पड़ी और रो-रो कर सारी बात बता दी,

” बस इतनी सी बात मेरी बिटिया को परेशान कर रही है “

” हाँ माँ क्या धर्म और समाज की दीवार इतनी ऊंची होती है कि कोई उसे पार ही ना पाए? “।

” नहीं जा़रा नहीं , उसे हम पार करेंगे ” “हम कल ही तुम्हारे छूटे हुए घर और अब्बू के पास जा रहे हैं  “

“आखिर ज़ाश्ती को भी तो अपने नानी-नानू से मिलना है “

“फिर तुम्हारे अब्बू, अम्मी को रीतेश और

तुम्हारी दोनों की ही जरुरत है “।

यह कहती हुईं वे ट्रैवल एजेंसी वाले को फोन मिलाने लग पड़ी हैं।

सीमा वर्मा /स्वरचित

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