आभागी , दुर्भाग्य का अंत – रीमा महेंद्र ठाकुर

लो  भकोस लो “””इस  बुढिया से जाने कब छुटकारा मिलेगा,

इतना कहते  हुए ,रेवती ने चावल की तपेली दादी सास के सामने उँडेल दी ,कुछ चावल बर्तन मे कुछ जमीन पर कुछ दादी सास के हाथो पर चिपक गये!

  जलन से दादी तडप उठी , दादी उस तपेली को खमोशी से देखती रही ,जली हुई तपेली सामने औधी पडी थी ! बिल्कुल काली राख की तरह ,रेवती खीज गई , 

दादी सास को धकियाते हुए बाहर निकल गई ,,, उसके  चिल्लाने की आवाज़ , दादी को अब भी सुनाई दे रही थी!

दादी की आंखो से कुछ बूदें  ढुलक कर उसकी झुर्रीयो से भरे चेहरे कही सूख गयी ,,,वो धीरे से उठी और  जाकर अपनी खाट पर लेट गई  ,उन्हें  याद आया वो पल जब दादा उन्हें ब्याह कर लाये थे!     

लालटेन की रोशनी मे वो किसी अफ्सरा से कम नहीं लग रही थी ! 

दादा जी ,तारीफ करते तो उनके मुखडे पर लाली आ जाती ,

,समय के साथ ,पाँच बच्चों की मां थी  वो ,पैंतालीस की  उम्र मे दादा जी छोडकर चले गए थे  !

    दो बेटों की शादी हो चुकी  थी !

तीन की शादी दो बडे बेटो ने कर दी  थी ,,,,बडे बेटे की बहू थी  रेवती, उसका पति डाॅक्टर था !


,वो दोनों शहर में ही रहते थे, भरापूरा परिवार था जाने  किसकी नजर लग गई,,,,

गाँव में  महामारी ने  दस्तक  दी ,उस परिवार का हर सदस्य महामारी की चपेट में आ गया  !एक एक कर सब मौत की  गोद में समा गये, सिर्फ दादी बची दादी पगला सी गई थी !

अपने बच्चों को  तडप कर मरते देखा था ! उनका कलेजा फट सा गया था! पर मौत न आयी, रेवती ऐसी  न थी ! उसका कूसुर भी  क्या,

दादी की  सेवा के लिए उसके पति विनय ने उसे दादी के पास  छोड रखा था! 

उसकी एक बेटी थी, जो बाप के साथ रहकर शहर में पढाई कर रही थी !  बडी प्यारी  बच्ची थी  नेहा,,, दादी से बहुत लगाव था पर रेवती नही चाहती थी , दादी की छाया  भी पडे उसपे ,

गाँव वाले  पीठ पीछे दादी को डायन कहते थे ! 

धीरे धीरे ये  बात रेवती के  मन मे बैठ गई,   पिछले हप्ते ही नेहा आयी थी, और माँ के चोरी दादी के पास आ गई  ,रेवती ने  देख लिया , और उसे खिचते हुए ले  गई ,

नेहा “”माँ तुम भी  दकियानूसी बातों को मानती हो, दादा दादी ताऊ सबकी मौत दादी की वजह से  नहीं हुई,, वो  तो””” रेवती ने बात काट दी ,,,मुझे कुछ नहीं सुनना ,,,,,,,,,,,,,,,,,, 

नेहा “””””दादी अपना  खून है,  आपका बर्ताव    दादी  के प्रति  गंदा है,   मै अब यहाँ कभी नहीं आऊंगी,          

रेवती रोने लगी तू डाक्टर बन गई तो बहुत बडी हो गई,,,,,, अखिरी सहारा है हमारा, 


सुबह जाते समय माँ के न चाहते हुए भी,,,,,नेहा दादी से मिल कर गई,, दादी के कपँकपाते हाथ उसके सिर को सहला रहे थे,  जुग जुग जिये मेरी बच्ची ,,,

 

रेवती के मन में बैठा डर, सही साबित हो गया “

और नेहा सच में वापस नहीं आयी! 

ऐ एक इत्तफाक था! 

नेहा का एक्सीडेंट हो गया था, वो अब इस दुनिया से विदा ले चुकी थी! 

 

तभी बाहर से रेवती रोती हुई अन्दर आयी दादी कुछ समझ न पायी, रेवती दादी को कोसे जा रही  थी ,,,ये  डायन मेरी बच्ची  को खा गई  ,,,दादी ने सिर उठाकर देखा रेवती की आखो में  तिरस्कार था ! दादी उठकर धीरे धीरे रसोइ की ओर बढ गई ,,, वहां चावल अभी भी  वैसे ही पडे थे,,,,,,  राख में सने  ,,दादी धीरे से जमीन पर  बैठ गई ,, नेहा का चेहरा उनकी आँखों में तिर गया ,,,,,,,   उन्होने एक मुठठी चावल की अपने  मुहँ मे भर ली, एक दो तीन जब तक उनके गले में चावल फँस ना गया ,,,,,,,,,,,एक हिचकी के साथ उनकी  गर्दन लुढक गई ,,,,, अचानक से रेवती रसोई में  आयी,,,,,,  ये बुढिया सच मे पगला गई,  रेवती ने  दादी का चेहरा उठाया ,,,,उनके प्राण पखेरू उड चूके थे!                  उनकी आखे निस्तेज हो चुकी  थी।  सब ओर चावल ही चावल बिखरे पडे थे।।    

समाप्त। 

रीमा महेंद्र ठाकुर”  कृष्णाचंद्र  “मेरी कलम से

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