संस्कार – मधु वशिष्ठ : Moral Stories in Hindi

    ताईजी  आपने हर वस्तु ,हर रिश्ते से ऊपर पैसे रखे है मुझे मम्मी और पापा ने पैसों से ज्यादा इंसानियत को महत्व देना सिखाया है । गगन की बात सुनकर आशा जी कुछ सोच में पड़ गई। सच ही तो है आज गगन को नहीं अपितु उनको ही गगन की जरूरत है।

अच्छा चलता हूं ताई जी कल आऊंगा कोई जरूरत हो तो फोन कर लेना कह कर गगन तो बाहर चला गया और आशा जी पुरानी यादों में खो गई। वर्मा जी दर्द की गोली खाकर आराम से सो रहे थे। 

          एक समय था जब वह  संयुक्त परिवार में रहती थी। सास ससुर, उनके पति पवन देवर सौरभ और दोनों के बच्चे सब उसी घर में ही रहते थे। वर्मा जी की दोनों बहने भी अपने बच्चों के साथ आती जाती ही रहती थी। घर का अधिकतर काम उनकी देवरानी शीला और ननदें इत्यादि सब मिलजुल कर ही करते थे

परंतु आशा जी को हमेशा यही लगता था कि उनके अफसर पति ही सारे घर का खर्चा उठाते हैं। उनका देवर सौरभ तो पानी के दफ्तर में क्लर्क था ना ही कोई उसकी ज्यादा आमदनी थी। इसके विपरीत कॉर्पोरेशन में उनके अफसर पति के कारण ही इन सब का भी मान सम्मान होता है।

अपने अभिमान में चूर आशा जी ने कभी किसी को कुछ समझ ही नहीं। उनके पति पवन वर्मा की जब प्रमोशन हुई तो प्रमोशन के साथ दिल्ली में ही उनको बड़ा सरकारी आवास भी मिल गया था। वहां जाने के बाद उनका रुतबा और रुपया जब दोनों ही बड़े तो वर्मा जी का परिवार आशा जी को बहुत छोटा लगने लगा।

किसी भी मौके पर दिल्ली के उस ग्रामीण से घर में जाना और वर्मा जी का भी ससुराल घर में किसी की भी सहायता करना आशा जी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। उनके इसी व्यवहार के कारण  पूरे परिवार ने उनके घर में आना बंद कर दिया था। सास और ससुर की मृत्यु के समय आशा जी मेहमान की तरह उस घर में गई थी और उनकी पूरी नजर इस बात पर रहती थी कि वर्मा जी उस  परिवार  में खर्च कितना कर रहे हैं।

राखी, भाई दूज पर शुरू में तो वर्मा जी की दोनों बहने उनके घर गई भी परंतु आशाजी के व्यवहार को देखते हुए उन्होंने भी वहां जाना छोड़ ही दिया था। शुरू शुरू में तो वर्मा जी ही सौरभ के घर में ही दोनों बहनों से राखी बंधवा लेते थे बाद में तो यह नियम भी लगभग छूट ही गया था।

        आशा जी की बेटी का विवाह भी अमेरिका में रहने वाले एनआरआई लड़के से हो गया था। बेटे को भी उन्होंने विदेश में ही इंजीनियरिंग करने भेजा था। रिश्वत में आए बहुत से पैसों से अपने बेटे को उन्होंने विदेश में ही पढ़ाया और बेटी की शानदार शादी की ।

इतना सब करने  के बावजूद भी आशा जी को यह मलाल था कि सौरभ की बेटी सरकारी स्कूल में अध्यापिका लग गई और उनका बेटा गगन सरकारी अस्पताल से डॉक्टरी के लिए चयनित हो गया था। पैसे का गुरुर उन पर हावी तो बहुत था परंतु तब उन्हें लगा कि बिना पैसों के भी बच्चे अपनी काबिलियत से सफल हो सकते हैं। 

फिर अपने मन को उन्होंने यही कहकर सांत्वना दे दी थी कि हमारे बच्चे तो  विदेश में है और डॉलर में पैसे कमा रहे हैं।  हालांकि उनकी किसी भी सोच का उनके परिवार में किसी पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनके  पति पवन भाई साहब सबके सामने तो नहीं परंतु चोरी छुपे परिवार की भी कुछ ना कुछ सहायता कर ही देते थे। 

     सेवानिवृत होने के बाद जब आशा जी अपने पौश कॉलोनी में खरीदे हुए मकान में शिफ्ट हुई तो मानो उनकी तो जिंदगी ही बदल चुकी थी। वही लोग जो चाटुकारिता में उनके आगे पीछे घूमते थे अब उनके फोन तक नहीं  उठाते थे। नई जगह पर शिफ्ट होने के कारण कामवालियों के भरोसे पर ही जीवन कटना था।

अभी तक तो उनके मातहत लोग उनके रुबाब के कारण उनके हर काम को करने के लिए तत्पर रहते थे। यहां पर सारे काम इन्हें खुद ही अपने पैसों से ही करने थे सरकारी मकान में तो उन्हें मेंटेनेंस की चिंता नहीं होती थी। अपनी कॉलोनी में उनकी तूती बोलती थी। अभी वह खुद को नई जगह रहने के अभ्यस्त बना ही रही थी कि वर्मा जी को दिल का दौरा पड़ गया।

भागा दौड़ी में वर्मा जी को संभालने के चक्कर में वह लिफ्ट की बजाय सीढ़ियों से जब अपने तीसरी मंजिल तक फ्लैट में जा रही थी  तो गिर गई और उनके हाथ ,पैर में काफी चोट आई इस कारण वह ज्यादा चल फिर भी नहीं पा रही थी। उनके तो दोनों बच्चे विदेश में थे इसलिए सौरभ का बेटा जो कि सरकारी अस्पताल में डॉक्टर बन गया था वही आकर अपने ताऊ जी  के हार्ट अटैक होने के बाद देखभाल करने  आता था।

आज जब वह घर आया तो अनायास ही आशा जी ने गगन से कहा कि तुम इतने अच्छे डॉक्टर हो अगर तुम भी चाहते तो विदेश जाकर अपनी प्रैक्टिस करते तो तुम भी काफी पैसे कमा सकते थे। तब गगन ने गुस्से से कहा ताई जी मुझे विदेश में जाने का कोई शौक नहीं है।आप में और मेरी मां में यही तो फर्क है उन्होंने मुझे रिश्ते बनाना सिखाया है और उनके दिए संस्कारों के कारण ही मैं सबका सम्मान करता हूं। वरना आप अपना व्यवहार याद कीजिए।

         आशा जी का पैसों का गुरुर तो खत्म हो रहा था और आज उन्हें महसूस हो रहा था कि उनकी  देवरानी अपने संस्कारों से ही कितनी ऊंची उठ गई। शांताबाई काम करने अभी तक नहीं आई थी। तभी डोर बेल बजी उन्होंने सोचा शांताबाई आई है परंतु धीरे-धीरे जब दरवाजा खोला तो देखा वर्मा जी की दोनों बहने उनसे मिलने आई थी।

आज पहली बार आशा जी उन्हें समीप पाकर खुश हो रही थी। तभी वर्मा जी की दोनों बहनों ने कहा भैया का फोन आया था कि हमारी तबियत बहुत ज्यादा खराब है हम दोनों ने फैसला किया है कि जब तक भैया और आप ठीक नहीं हो जाते तब तक हम एक-एक करके कुछ दिन आपके साथ ही रहेंगे। आशा जी का गुरूर उनके आंसुओं के रास्ते बह रहा था। वर्मा जी अपनी बहनों को अपने समीप पाकर बहुत खुश हो रहे थे।

मधु वशिष्ठ, फरीदाबाद, हरियाणा।

VM

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