यामिनी सेन की लाश पंखे से लटक रही थी… सुधांशु दत्ता उसका पति जमीन पर लाचार बैठा था… पुलिस आने वाली थी… पूरा घर पड़ोसियों से भरा पड़ा था… सुधांशु की मां अनंदिता जी… अभी भी चुपचाप आंगन के दरवाजे के पास पड़ी कुर्सी पर… मुंह पर आंचल रखे बैठी थी… उस बेचारी को तो अभी तक भरोसा नहीं हो रहा था… कि सुबह हो गई है… और यह मेरा घर ही है… तभी पुलिस की गाड़ी दरवाजे पर आकर रुकी…
इंस्पेक्टर ने कांस्टेबल की मदद से लाश को उतरवाया… बला की खूबसूरत यामिनी का चेहरा… बिगड़ कर बहुत ही डरावना लग रहा था…
इधर-उधर जांच कर लेने के बाद… इंस्पेक्टर ने कपड़े से लाश ढक दिया…
” हां… सुधांशु नाम ही है ना तुम्हारा…!”
” जी सर…!”
” तुम्हारा कहना है कि… तुम ड्यूटी गए थे… जब मौत हुई… और यह बुड्ढी…” अम्मा तुम कहां थी…!” अनंदिता जी अभी भी चुप थीं… इंस्पेक्टर ने कसकर पूछा…” जल्दी बताओ… ज्यादा नाटक नहीं अम्मा… बहू को बस छः महीने ही हुए थे… लंबा जाओगी तुम तो…!”
” लेकिन बेटा… मैंने तो कुछ किया नहीं…!”
” वह तो बाद में साबित करना… चलो अभी…!”
पुलिस ने अम्मा और सुधांशु दोनों को जेल भेज दिया…
सुधांशु दत्ता एक सरकारी ऑफिस में मामूली क्लर्क था… अभी छः महीने पहले ही बड़ी धूमधाम से पढ़ी-लिखी… खूबसूरत… बड़े-बड़े सपनों वाली…यामिनी सेन से उसकी शादी हुई थी…
नौकरी देखकर यामिनी के घर वालों ने यह शादी करवा दी थी… मगर शायद वे भी आशंकित थे… अपनी बेटी के भविष्य को लेकर… तभी तो विदाई के वक्त उन्होंने दामाद से कहा था…” हफ्ते में दो-चार दिन यामिनी के लिए समय निकाल लीजिएगा दामाद जी… मेरी बेटी को घर में बंद रहना पसंद नहीं…!”
यह सलाह थी या चेतावनी… मगर सुधांशु ने इसे बस एक मजाक ही समझने की भूल कर दी… वह कुछ ज्यादा ही सीधा लड़का था… केवल घर नौकरी और मां के सिवा उसने कुछ जाना ही नहीं था…
यामिनी इस बंधे घर… ढर्रे की जिंदगी… को नहीं झेल पाई… वह एक ही काम रोज नहीं कर सकती थी… धीरे-धीरे झगड़े शुरू हुए… फिर खामोशी छा गई…पता नहीं उसे क्या हुआ… वह कितनी गहरी डिप्रेशन का शिकार हो गई… इस रिश्ते में… इस खामोशी का अंत ऐसा होगा… इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी… आखिर एक रात उसने अपनी जान ले ली…
पूरे दो साल लग गए सुधांशु को… खुद को निर्दोष साबित करने में… छः महीने की शादी ने उसके जीवन के छः साल ले लिए…
जेल से निकलने के बाद… वह दोबारा जिंदगी जीना चाहता था… अनंदिता जी भी अपने बेटे को दोबारा खुश देखना चाहती थीं जीवन में आगे बढ़ना चाहते थे वह… पर समाज…
समाज की नजरों में उनका दोष अक्षम्य था… “अपराध क्या था मेरा…!” सुधांशु यह बात बोलकर अक्सर ख्यालों में खो जाता… इतनी खूबसूरत बीवी… जो किसी किस्मत वाले को ही मिलती… वह उसे मिली थी… फिर क्या हुआ…
नौकरी तो वापस मिल गई… उन लोगों ने घर बदल लिया… कई जगह ब्याह के लिए जुगाड़ लगाना शुरू किया… मगर कहीं बात नहीं बनती थी… आधे लोग पिछला जानते थे… कुछ लोग उम्र का हवाला दे जाते… तो कई लोग तो अभी भी सीधे मुंह बात ही नहीं करते थे… जो गलती की नहीं उसकी सजा भोगते हुए तंग आ चुके थे…
खैर एक गरीब घर की… दिखने में अत्यंत साधारण लड़की के पिता ने… सब जानकर लड़की पैसे वाले के घर में जाएगी… यह सोच सुधांशु दत्ता को अपनी बेटी दे दी… समाज के सामने ब्याह हुआ…
सुगना दूसरी बीवी नहीं बनना चाहती थी… उसमें भी जब पहली बीवी के साथ क्या हुआ…इसका कुछ पता नहीं… वह एक डर के साए में थी… एक अनकहा दर्द और डर उसका पीछा कर रहा था… जो उसके साथ-साथ ससुराल आ गया… यहां उसने अपने दर्द से निकलने का नया तरीका अपनाया…
वह अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी… ना ही खूबसूरत ही थी… साधारण सोच की लड़की… उसके दिमाग में पहले से यह बात थी कि इस घर में एक औरत मर चुकी है… इसलिए मुझे सबसे संभल कर रहना है… वह लड़की सास और पति दोनों पर अपना रौब जमाने में लगी रहती… आए दिन दोनों को किसी न किसी बात पर जलील करती और कहती…” मुझे अपनी पहली बीवी मत समझना… मैं मरने वालों में नहीं… मारने वालों में हूं…!”
दोनों की जिंदगी अब दूसरी ही आफत में फंस गई थी… लेकिन अनंदिता जी अपने बेटे को समझा कर कहतीं…” यह आफत उस आफत से भली है… बोलती तो है… भला बुरा जो जी में आए… सुधांशु देखना… एक दिन सुगना को अक्ल आ जाएगी… बस उसके साथ प्यार से रहो और भगवान पर भरोसा रखो… हमेशा हमारे साथ ही बुरा नहीं होगा…!”
एक साल बाद ही सुगना एक बेटी की मां बनी… अनंदिता जी ने उस समय अपनी बहू और पोती की जी जान लगाकर सेवा की… सुधांशु भी दोनों का पूरा ख्याल रखता था… धीरे-धीरे सुगना के स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा… उसका दर्द धीरे-धीरे कम हो गया था और डर भी…
अब वह खुलकर उन लोगों से मिलने जुलने लगी… अनंदिता जी और सुधांशु का सच्चा प्यार… अब उसे दिखावा नहीं लगता था… उनके प्यार को अपना कर उसकी जिंदगी आसान हो गई… और उसने दोनों मां बेटे की मुश्किल भी आसान कर दी… अक्सर कुछ दर्द हमारी सोच के साथ ही शुरू होते हैं, और सोच बदलते ही खत्म भी हो जाते हैं…
रश्मि झा मिश्रा