**********
पार्थिव की कम्पनी में इंटरव्यू चल रहे थे। अचानक कमरे में एक सुरीली आवाज गूॅज गई – ” मे आई कम इन सर।”
” यस।” चयनकर्ताओं की टीम में से एक ने कहा।
पार्थिव को लगा कि यह स्वर तो बहुत जाना पहचाना है और जब उसने सामने देखा तो अवाक रह गया। यहॉ तक हड़बड़ाहट में उठकर खड़ा हो गया और वातानुकूलित कमरे के बावजूद उसका पूरा शरीर पसीने से नहा गया – ” क्या हुआ सर? क्या आपकी तबियत खराब है?”
” हॉ, लग रहा है कि ब्लडप्रेशर या सुगर डाउन हो गई है। मैं चलता हूॅ, आगे का काम आप लोग देख लीजिये।”
” आप चाहें तो हम इंटरव्यू की तारीख आगे बढ़ा देते हैं।”
” पता नहीं कितनी दूर से बच्चे आये हैं। इन्टरव्यू की प्रक्रिया पूरी करके चयनित अभ्यर्थियों की लिस्ट तैयार कर लेना। बाद में हम सब बैठकर निर्णय कर लेंगे।”
पार्थिव घर तो आ गया लेकिन उसके मस्तिष्क में इंटरव्यू के कमरे में प्रवेश करती वह लड़की ही घूम रही थी। ऐसा कैसे हो सकता है? यह कैसा संयोग है? जिस लड़की को ढूंढने के लिये वह सारी जिन्दगी भटकता रहा लेकिन कभी आशा नहीं छोड़ी थी, वह आज मिली भी तो बाइस वर्षों बाद।
तभी उसे ख्याल आया कि यह लड़की शांभवी कैसे हो सकती है? शांभवी अगर कहीं होगी भी तो उसकी तरह ही प्रौढ़ावस्था में कदम रख रही होगी।
********************************************
कालेज के वार्षिकोत्सव में ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पौराणिक कहानी का मंचन करने का विचार किया गया ।
विश्वामित्र के लिये पार्थिव और मेनका के लिये शांभवी को चुना गया। नाटक तो इतना सफल रहा कि कालेज में पार्थिव विश्वामित्र और शांभवी मेनका के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
उस नाटक में मात्र वल्कल के कारण विश्वामित्र के रूप में पार्थिव की खुली देहयष्टि पर शांभवी और मेनका के रूप में अप्सरा की सज्जा और श्रंगार के कारण अतीव सुन्दरी शांभवी को देखकर पार्थिव के युवा हृदय के तार झंकृत हो उठे। पहले तो पार्थिव और शांभवी ने स्वयं पर नियंत्रण रखकर अपने मनोभावों को छुपा लिया लेकिन बार बार परिहास में दोनों का नाम एक दूसरे से जोड़ा जाने लगा। छात्र – छात्रायें पार्थिव को विश्वामित्र और शांभवी को मेनका कहने लगे।
दोनों ही नकली गुस्सा दिखाते हुये जब एक दूसरे का नाम सुनकर शर्माने लगे तो मित्रों को यह समझते देर नहीं लगी कि भले ही अभी चिनगारी रूप में है लेकिन इश्क की आग दोनों दिलों में बराबर लगी हुई है।
धीरे धीरे पार्थिव और शांभवी के बीच का प्यार मुखरित हो गया और उनके इश्क की सुगंध भी फैलने लगी। दोनों इस बात से अनजान थे कि उस दिन मेनका के रूप में शांभवी को देखकर कोई और भी दिल हार बैठा था वह था पार्थिव का मित्र अनुराग। वह युगल के प्यार को सहन नहीं कर पा रहा था। पार्थिव और शांभवी को साथ देखकर उसका तन मन सुलग जाता।
अनुराग को आश्चर्य होता कि उस जैसे पैसे वाले के स्थान पर शांभवी पार्थिव जैसे फटीचर को मिली। एकाध बार उसने शांभवी से परिहास में कह भी दिया – ” तुम्हारी जैसी मेनका को तो रानी – महारानी जैसी सुख सुविधायें मिलनी चाहिये। इस फटीचर को छोड़कर मेरे पास आ जाओ। सारे सुख लाकर तुम्हारे कदमों में डाल दूॅगा।”
” तुम भूल रहे हो अनुराग, मेनका ने विश्वामित्र को तब प्यार नहीं किया था जब वह राजा कौशिक थे बल्कि पर्णकुटी में निवास करने वाले, अभावों में जीवन बिताने वाले, वल्कल धारी ऋषि विश्वामित्र से प्यार किया था। मुझे भी अपने विश्वामित्र पार्थिव से अगले जन्मों तक के लिये प्यार हो गया है।” शांभवी ने पार्थिव को प्यार से निहारते हुये कहा।
” सुन लिया।” पार्थिव ने भी हॅसते हुये कहा – ” हमारी तो कई जन्मों की बुकिंग हो गई है। इसलिये यह आशा करना भी बेकार है कि शांभवी अगले जन्म में मिल जायेगी।”
” मैं नहीं विश्वास करता अगले जन्म का। मैंने तो एक प्रस्ताव दिया था लेकिन यदि इसके भाग्य में तुझ जैसा फटीचर ही लिखा है तो क्या किया जा सकता है?”
अनुराग की इस बात पर सभी हॅस पड़े लेकिन शांभवी के मन में कुछ खटक गया – ” मुझे नहीं पसंद है यह अनुराग। जब देखो ऐसी बातें करता रहता है।”
” पागल हो क्या, मजाक करता है तुमसे। आने वाले समय में तुम उसकी भाभी बनोगी तो इतना तो उसका अधिकार है ही।”
शांभवी चुप तो हो गई लेकिन अब उसने अनुराग से दूरी बना ली। जब उसके ग्रुप में अनुराग होता तो वह कोई न कोई बहाना बनाकर वहॉ जाती ही नहीं। हर स्त्री की छठी सक्रिय इन्द्रिय उसे आने वाले खतरे से सावधान कर देती है।
कभी कभी तो वह उन दोनों को साथ देखकर खुद पर से नियंत्रण खो देता। एक बार उसने शांभवी को अकेले देखकर उसका हाथ पकड़ लिया – ” शांभवी, बहुत चाहता हूॅ मैं तुम्हें। पार्थिव से शादी करके तुम्हें अभाव के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। वह एक खेतिहर मजदूर का बेटा है उसके ऊपर अपने पूरे घर की जिम्मेदारी है। मैं तुम्हें रानी बनाकर रखूॅगा।”
शांभवी का शरीर क्रोध से कॉपने लगा और दूसरे ही क्षण अनुराग के गाल पर एक थप्पड़ पड़ा – ” शर्म नहीं आती, दोस्ती की आड़ में इतनी घिनौनी हरकत करते हुये। एक बार की बात समझ में नहीं आई तुम्हें? पार्थिव के सिवा मुझे कोई नहीं चाहिये।”
अनुराग ने तुरन्त पैंतरा बदला और ऑखों में ऑसू भरकर घुटनों के बल शांभवी के सामने हाथ जोड़कर बैठ गया – ” मुझे क्षमा कर दो, शांभवी। मेरी इस बेवकूफी को पार्थिव या मेरे दोस्तों से मत बताना। आज के बाद मैं कभी भी तुम्हारे और पार्थिव के रास्ते में नहीं आऊॅगा। मैं यह कालेज छोड़कर चला जाऊॅगा।”
शांभवी ने भी अपने क्रोध को नियंत्रित किया – ” कालेज छोड़ने की जरूरत नहीं है। केवल आज के बाद मुझसे बात मत करना, मैं किसी से कुछ नहीं कहूॅगी।”
शांभवी ने किसी से कुछ कहा तो नहीं लेकिन कुछ दिन तक बहुत डरी सी रही । मना करने के बाद भी अनुराग कालेज के साथ वह शहर भी छोड़कर चला गया। अनुराग के इस तरह कालेज और शहर से चले जाने के कारण सभी मित्रों को आश्चर्य हुआ लेकिन जानते थे कि वह पैसे वाले घर का बिगड़ैल बेटा है और अपनी उच्छ्रंखलता के कारण उसके लिये कुछ भी किया जाना संभव था।
इम्तहान के बाद अचानक शाम्भवी गायब हो गई। उसके घर वाले कहते थे कि आगे की पढ़ाई के लिये अपने मामा के यहॉ चली गई और मुहल्ले वाले कहते थे कि किसी के साथ भाग गई। पार्थिव पागलों की तरह ढूंढता रहा लेकिन किसी ने उसे सच नहीं बताया। धीरे धीरे सभी जिन्दगी में आगे बढ़ने लगे और शाम्भवी को भूलने लगे लेकिन पार्थिव उसी जगह उम्मीद का दीपक जलाये खड़ा रह गया। वह कभी नहीं भूल पाया अपनी मेनका को। कैसे भूलता जिसने अगले जन्मों का वादा किया था वह ऐसे अचानक पता नहीं कहॉ चली गई?
जीवन में सब कुछ किया पार्थिव ने – अपने परिवार, अपने भाई बहन का दायित्व निभाया, सबको बहुत खुशहाल जीवन दिया, पहले नौकरी की लेकिन कुछ दिनों बाद अपने और शांभवी के नाम के पहले अक्षर से एक छोटी सी कंपनी ( एस० पी०)से शुरू करके आज यहॉ तक पहुॅचा। शांभली नाम का अनकहा दर्द हमेशा सीने में मचलता रहा। इस आशा में कि एक बार शाम्भवी मिल जाये और सच्चाई बता दे।
********************************************
दूसरे दिन ऑफिस पहुॅचते ही उसने सबसे पहले कल इंटरव्यू के लिये आये हुये अभ्यर्थियों के आवेदन पत्र देखे तो उसे पता चला कि उस लड़की का नाम काया गोस्वामी है। पिता के स्थान पर पार्थ और माता के स्थान पर राधिका था। उसने देख लिया कि लिस्ट में काया गोस्वामी का भी नाम है।
उसने तत्काल चयनकर्ताओं की एक मीटिंग बुला ली। अंतिम निर्णय उसे ही करना था। इंटरव्यू का परिणाम उसके सामने रखा था। मेरिट के आधार पर लिस्ट बन चुकी थी – ” ठीक है, इन सबको मेरिट के आधार पर नियुक्ति पत्र भेज दो।”
” सर, चयन कर्ताओं में से एक बोला – ” एक ऐसा अभ्यर्थी है जिसके लिये हम सब एक मत नहीं हैं, उसके लिये अंतिम निर्णय आपको लेना है।”
फिर वह बताने लगा कि इंटरव्यू में मयंक के नम्बर तो कम हैं लेकिन उसके पास तीन वर्ष का कार्य का अनुभव है जबकि काया के नम्बर तो बहुत अच्छे हैं साथ ही वह बुद्धिमान और परिश्रमी मालुम होती है लेकिन उसकी यह पहली नौकरी है और उसके पास कार्य का अनुभव नहीं है।
पार्थिव के सामने दोनों फाइलें रखी थी। उसके होंठों पर शांभवी का नाम आते आते रह गया।
” आप लोग क्या चाहते हैं?”
” यही तो हम लोग निर्णय नहीं कर पा रहे हैं।”
” वैसे मेरा मानना है कि हमें योग्य और परिश्रमी कर्मचारी का चयन करना चाहिये। अनुभव तो कार्य करने से आ ही जायेगा। “
” हम सबकी दुविधा समाप्त हो गई है, हम लोग सबके साथ काया गोस्वामी को भी नियुक्ति पत्र भेज देंगे।”
सबके जाने के बाद पार्थिव ने काया गोस्वामी का आवेदन पत्र एक बार फिर से देखा और उसका पता अपने मेल बॉक्स में ट्रान्सफर कर लिया।
काया दिल्ली की रहनेवाली नहीं थी। आवेदन पत्र में उसका पता कानपुर का था। उसका मन करता कि काया से इस सम्बन्ध में बात करे लेकिन एक कम्पनी के मालिक का अपने कर्मचारी के व्यक्तिगत जीवन में रुचि लेना अमर्यादित और अनुचित तो था ही साथ ही उसकी और काया के प्रतिष्ठा के लिये भी अशोभनीय था, यही सोंचकर चुप रह जाता। धीरे धीरे काया को नौकरी करते एक वर्ष हो गया। पार्थिव इस पहेली को सुलझाना तो चाहता था लेकिन साथ ही चाहता था कि किसी को पता भी न चले ताकि अपनी और काया की प्रतिष्ठा पर कोई ऑच न आ सके।
बहुत सोंच विचार कर उसने कानपुर की एक प्राइवेट डिटेक्टिव कम्पनी से संपर्क करके काया का पता देकर उसके परिवार के बारे में पता करने के लिये कहा। कुछ दिन बाद ही प्राइवेट डिटेक्टिव ने पता करके बता दिया कि परिवार के नाम पर केवल काया और उसकी मॉ राधिका ही हैं और राधिका गुड़िया और खिलौने बनाने का काम करती है। डिटेक्टिव ने यह भी बताया कि काया बिल्कुल अपनी मॉ राधिका जैसी है।
पार्थिव नाम के अन्तर के कारण असमंजस में था। क्या शांभवी और राधिका एक ही हैं? या काया की सूरत शांभवी से मिलना मात्र एक संयोग है? हो सकता है कि अब भीतर ही भीतर मचलते इस अनकहे दर्द से छुटकारा मिल जाये। शाम्भवी उसे जीवन में मिल पाये या न मिल पाये लेकिन केवल उसके प्रश्नों के उत्तर दे दे।
यही सब सोंचते हुये उसने एक निर्णय लिया। काया का पता उसके पास था ही। वह कानपुर आ गया और बहुत हिचकते हुये उसने काया के घर की कालबेल बजा दी। थोड़ी देर बाद शाम्भवी और पार्थिव आमने सामने थे –
” तुम!” इसके बाद न पार्थिव के पास शब्द थे और न ही शांभवी के पास। काफी देर तक दोनों ऐसे ही खड़े रहे और गीली ऑखों से एक दूसरे को देखते रहे। एक दरवाजे के इस ओर और दूसरा उस ओर। फिर शांभवी को ही होश आया। वह बिना कुछ बोले दरवाजे के सामने से हट गई तो पार्थिव आकर बैठ गया।
आखिर शांभवी को ही बोलना पड़ा – ” तुम यहॉ कैसे आ गये? मेरा तो यहॉ किसी को नाम भी नहीं मालुम है।”
बदले में पार्थिव सब बताता चला गया – ” काया को देखकर मुझे यह तो पता चल गया कि इसका तुमसे कोई न कोई सम्बन्ध अवश्य है लेकिन जब पता चला कि काया की मॉ का नाम राधिका है, तब भ्रम में पड़ गया था। फिर भी मन में एक उम्मीद तो जाग ही उठी थी।”
” हॉ राधिका मेरे घर का नाम है क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि किसी को मेरे बारे में पता चले।”
” तुम अचानक कहॉ चली गई थीं? मैं पागलों की तरह तुम्हें ढूंढता रहा लेकिन इतने वर्षों तक तुम्हारे बारे में कुछ पता नहीं चला। जानती हो, तुम्हारे मुहल्ले में तुम्हारे बारे में कितनी गन्दी गन्दी अफवाहें फैली थीं जिनको मेरे मन ने आज तक स्वीकार नहीं किया। आज मुझे सब सच बताओ कि तुमने ऐसा किस विवशता के कारण किया।”
शाम्भवी के नेत्र झरते रहे, उसके बाद उसने कहना शुरू किया।
********************************************
वार्षिक परीक्षाओं के पहले जैसे ही शांभवी कालेज जा रही थी कि गली के नुक्कड़ पर ही उसे एक लड़का खड़ा मिला – ” आप! शांभवी जी।”
” हॉ लेकिन आपको कैसे पता चला?”
” कल रात को मेरी मोटरसाइकिल से पार्थिव का एक्सीडेंट हो गया था। आज सुबह उसे होश आया है तो उसने ही आपका पता देते हुये बुलाने को कहा। आपके घर आ नहीं सकता था इसलिये यहॉ खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था।”
सुनते ही शांभवी बदहवास सी हो गई, उसे पता था कि पार्थिव यहॉ अकेला ही रहता है -” अब कैसा है वह?”
” पहले से ठीक है। एक पैर और एक हाथ में फ्रैक्चर हो गया है।”
तभी वहॉ एक आटो आकर रुका और पूॅछा – ” कहॉ चलना है?” लड़के ने अस्पताल का पता बताया और शांभवी के साथ बैठ गया। शांभवी रोये जा रही थी। कितनी बार उसने पापा से मोबाइल दिलाने को कहा लेकिन वह हमेशा टाल जाते – ” बेकार का खर्चा बढ़ाने की क्या जरूरत है? जब जरूरत हो मेरे मोबाइल से फोन कर लिया करो।”
वह पापा को कैसे बताये कि पापा के मोबाइल से न तो वह पार्थिव को फोन कर सकती है और न ही उनके मोबाइल पर पार्थिव का फोन आ ही सकता है। ( उस समय स्मार्टफोन का चलन मध्यम वर्ग तक नहीं पहुॅचा था और काल दरें काफी मंहगी होने के कारण मोबाइल भी विलासिता में ही गिना जाता था)
उस लड़के ने शांभवी को चुप कराते हुये कहा – ” अधिक चिन्ता की बात नहीं है।”
फिर उसने अपने बैग से पानी की बोतल निकालकर शांभवी की ओर बढा दी। रोते रोते शांभवी के गले में कॉटे से उगने लगे थे, इसलिये उसने पानी लेकर एक बार में पूरी बोतल खाली कर दी। वह इस बात से अनजान थी कि आटो ड्राइवर और उस लड़के की नजरें मिलीं और दोनों के होंठों पर एक मुस्कान तैर गई।
शांभवी पता नहीं कितनी देर सोती रही। जब ऑख खुली तो हड़बड़ाकर उठ बैठी। सामने घड़ी पर नजर गई तो शाम के चार बज चुके थे। उसे याद आने लगा कि वह नौ बजे सुबह कालेज जाने के लिये निकली थी, फिर उस लड़के का मिलना, पार्थिव का एक्सीडेंट सुनकर आटो रिक्शा में बैठना और पानी पीना – उसके बाद का कुछ याद नहीं। तो क्या यह सब कोई षड्यंत्र है?
उसने अपने शरीर की ओर देखा तो उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उसके साथ कुछ बहुत गलत हो चुका है। लेकिन कौन कर सकता है उसके साथ ऐसी घिनौनी हरकत? वह चीखकर दरवाजे की ओर भागी तो पाया कि दरवाजा बाहर से बंद है। वह चीखते हुये दरवाजा खटखटाने लगी – ” खोलो, कौन है यहॉ?”
थोड़ी देर खटखटाने के बाद दरवाजा खुल गया और तीन व्यक्ति मुस्कराते हुये अन्दर आये। उन्हें देखकर डर के कारण पीछे हटते हुये वह दुबारा पलंग पर आकर गिर पड़ी – ” तुम लोग!”
” हॉ, अब पता चला कि घिनौनी हरकत किसे कहते हैं?” उनमें से एक बोला – ” इन सबने पैसे और तुम्हारे शरीर के बदले मेरा साथ दिया। उठो और बाहर निकलो और हॉ साथ में यह भी देखती जाओ।” कहकर उसने एक वीडियो दिखाया जिसमें अनुराग, वह अजनबी लड़का और आटो ड्राइवर ने उसके साथ कुकर्म किया था।
शांभवी फूट फूटकर रो पड़ी – ” मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? मैं पार्थिव से प्यार करती थी तो तुमसे कैसे कर सकती थी?”
अनुराग ने उसे बॉह पकड़कर सख्ती से उठाया – ” यह रोने धोने का नाटक बंद करो और अगर नहीं चाहती कि ये फोटो पार्थिव और उसके परिवार तक पहुॅचें और तुम्हारी छोटी बहनों के साथ यही सब हो तो अपनी जबान बन्द रखना। कानून और पुलिस को खरीदते मुझे देर नहीं लगेगी।”
बड़ी मुश्किल से ऑखों के ऑसू कलेजे में दबाये शांभवी घर पहुॅची। समय अधिक नहीं हुआ था तो उसने चिन्तित मम्मी से कह दिया कि वह लाइब्रेरी में बैठी पढ रही थी, इसलिये उसे समय का पता ही नहीं चला और सिर में भी भयंकर दर्द होने लगा है। आते ही वह सीधे बाथरूम में गई और दोनों हाथों से मुॅह ढककर देर तक रोती रही।
उसकी लाल ऑखें और बुझे चेहरे का कारण सबको सिर दर्द ही समझ में आया। रात में तीनों बहनें एक ही कमरे में सोती थीं। शांभवी ऑखें बन्द किये बिस्तर पर लेटी अन्दर घुमड़ती रुलाई को रोके बहनों के सोने का इंतजार करती रही।
रात में जितनी बार उसके अन्दर की रुलाई बाहर आने लगती, वह उठकर बाथरूम चली जाती और कुछ देर रोकर बाहर आ जाती। बहनों और पार्थिव के भविष्य के सम्बन्ध में सोंचकर वह किसी से कुछ कह नहीं पाई।
उसे लगा कि उसकी बहनें उसकी स्थिति से अनजान सो रही हैं लेकिन सुबह दोनों बहनों ने मम्मी से कहा – ” मम्मी, दीदी को सिरदर्द के साथ दस्त भी हो रहे हैं। रात में बहुत बार बाथरूम गई हैं।”
मम्मी ने पापा से कहकर उसके लिये दवा मंगवा दी। वह किसी को क्या बताती? उसे तो इस दर्द को अनकहा ही रखना है। मानसिक और शारीरिक संताप से जूझते हुये उसे बुखार आने लगा। करीब पन्द्रह दिन तक बुखार और तनाव में जूझने के बाद शांभवी ने उस भयानक घटना को अनकहा दर्द बनाकर अपने सीने में दबा लिया।
उसकी खराब तबियत को जानकर उसके दोस्तों के साथ पार्थिव भी आया। पार्थिव को देखकर उसे नियंत्रण करना कठिन हो गया लेकिन सभी मित्रों, मम्मी और बहनों के सामने न पार्थिव कुछ कह पाया और न ही शांभवी ही कुछ कह पाई। अपने और पार्थिव की बात होती तो शायद वह पुलिस और मीडिया के माध्यम से तहलका मचा देती लेकिन अपने और पार्थिव के परिवार के हित के लिये होंठ सिल लिये।
उसके इम्तहान शुरू हुये तो उसने दिल पर पत्थर रखकर पढ़ाई में मन लगाया। उसने सोंचा था कि इस दर्द भरी भयानक घटना को हमेशा के लिये भुला देगी लेकिन अगले महीने जब शांभवी को मासिक धर्म ( पीरियड ) नहीं हुआ तो उसे लगा कि हो सकता है कि बुखार, परीक्षा के तनाव या किसी और कारण से देर हो रही है। फिर भी एक डर तो अन्दर शुरू ही हो गया। इंतजार करते करते पूरा महीना बीत गया। इसी बीच उसकी परीक्षायें भी समाप्त हो गईं।
अब तो शाम्भवी की चिन्ता का कोई अन्त नहीं था। वह चुपके से बाजार से प्रेग्नेंसी टेस्ट किट खरीद तो लाई लेकिन ईश्वर से यही मनाती रही कि उसका संदेह गलत सिद्ध हो। उसका संदेह गलत सिद्ध नहीं हुआ, सच्चाई उसके सामने थी। जिस दर्द को उसने चुपचाप भीतर ही छुपा लिया था, वह इस रूप में उजागर हो गया तो वह क्या करेगी? उसकी बहनों का क्या होगा?
उसने अपने स्कूल बैग में अपने दो जोड़ी कपड़े, सारे प्रमाण पत्र और तीनों बहनों की बचत के सारे पैसे रख लिये और मम्मी से सहेली के घर जाने को कहकर निकल आई। दोनों बहनें स्कूल गईं थीं इसलिये उसने उनकी अलमारी में किताबों के ऊपर एक पत्र भी लिखकर रख दिया कि वह अपनी मर्जी से घर छोड़कर जा रही है, उसे मरा हुआ समझकर भूल जायें, वरना उसके कारण सबकी जिन्दगियॉ बरबाद हो जायेंगी।
घर से तो निकल आई लेकिन न कोई उद्देश्य सामने था और न ठिकाना। वह जल्दी से जल्दी अपना शहर छोड़ना चाहती थी। इसीलिये रेलवे स्टेशन पर पहुॅची तो सामने कानपुर की ट्रेन खड़ी देखी उसी की टिकट ले ली।
वह ट्रेन उसे ऐसे शहर में ले आई जहॉ उसे कोई नहीं जानता था।
उसके पास कुछ पैसे अवश्य थे लेकिन इतने नहीं कि वह होटल में कमरा लेकर कुछ दिन रह सके। इसलिये उसने रिक्शे वाले से किसी धर्मशाला में ले चलने को कहा। पहले तो अकेली लड़की को कोई कमरा ही देने को ही तैयार नहीं था।
तब बहुत सोंच विचार कर उसने एक कहानी तैयार की। अब वह सबको यह बताने लगी कि वह एक विधवा लड़की है और लालची घर वाले उसका गर्भपात करवाकर उसकी शादी एक पैसे वाले शराबी से करना चाहते हैं जबकि वह अपने पति को बहुत प्यार करती है और अपने गर्भस्थ शिशु की रक्षा के लिये घर से भाग आई है। उसकी करुण कहानी से प्रभावित होकर धर्मशाला प्रबन्धक से उसे रहने को जगह तो मिली ही साथ ही उसी धर्मशाला में खाना बनाने की नौकरी भी मिल गई।
जितना उसे वह दिन याद आते ही हर पुरुष से नफरत होती उतना ही धीरे धीरे गर्भ में आकार ले रहे शिशु से प्यार होता जा रहा था। उस घटना के कारण इस शिशु में भले ही किसी का शुक्राणु हो लेकिन बाकी सब तो उसका अपना है जिसने इस शिशु को भ्रूण से शिशु बनाया। अब यही शिशु उसका सर्वस्व होगा, उसकी वीरान जिन्दगी का पूरक।
समय बीतने के बाद उसने बिल्कुल अपना ही प्रतिरूप बेटी को जन्म दिया। काया की परवरिश और शिक्षा के लिये उसे अधिक पैसों की जरूरत थी। इसलिये खाना बनाने के साथ ही उसने बच्चों के खिलौने और गुड़िया बनाने का काम सीख लिया। खाना बनाने के बाद बचे समय में वह खिलौने और गुड़िया बनाया करती।
पहले तो सोंचा कि पिता के स्थान पर किसी का नाम न बताये और समाज से लड़ जाये कि पिता का नाम क्यों आवश्यक है लेकिन फिर सोंचा कि बिना पिता के नाम के उसकी मासूम बच्ची को बहुत कुछ सहना पड़ेगा जिससे उसके कोमल मन पर गलत प्रभाव पड़ सकता है। इसलिये पार्थिव के नाम को ही छोटा करके स्कूल में पार्थ लिखवा दिया।
काया बहुत समझदार थी। मॉ के संघर्ष को उसने छोटी उम्र से ही देखा और महसूस किया था। दुनिया के लिये शाम्भवी ने भले ही अपना नाम बदल कर झूठी कहानी बताई थी लेकिन काया के अठ्ठारहवें जन्मदिन पर अपने जीवन की सच्चाई आसुओं के मध्य बेटी को बता दी।
********************************************
पार्थिव सब सुन रहा था। ऑसू उसकी ऑखों से भी बह रहे थे – ” तुम्हीं बताओ पार्थिव, मैं क्या करती? मेरे सामने कोई रास्ता नहीं था। अब जितनी बहादुरी से लडकियॉ बलात्कार की शिकायत कर लेती हैं, हमारे तुम्हारे समय में क्या संभव था? फिर मेरी और तुम्हारी बहनें, माता पिता – सबका ख्याल रखकर यही कदम उठाना सही लगा। फिर भी तुम्हारी गुनहगार तो हूॅ ही।”
शांभवी पार्थिव की दोनों हथेलियॉ पकड़कर इतना बुरी तरह रोने लगी कि पार्थिव की हथेलियॉ भीग गईं। इतने वर्षों में रोई तो बहुत बार लेकिन इस वही वर्षों पुराने आत्मीय प्यार को सामने पाकर और उसके समक्ष दिल खोलकर रखने से सारा अनकहा दर्द नदी के तेज बहाव की तरह बाहर आने लगा। पार्थिव ने बिना एक शब्द बोले उसे सीने से लगा लिया और शांभवी पार्थिव के हृदय में आज भी वैसी ही अपने नाम की गूंज सुनने लगी।
” तुमसे सब कुछ कहकर मन बहुत हल्का हो गया है और तुम्हें भी अपने सारे सवालों के जवाब मिल गये हैं। इसलिये अब वापस लौट जाओ। मुझे भूलकर आगे बढ़ जाओ।”
” क्या यह संभव है? अब तो मुझे तुम्हारे साथ साथ एक बेटी भी मिल जायेगी।”
” कैसी बातें करते हो? मेरे शरीर को तीन लोगों द्वारा रौंदा गया है, क्या अब मैं तुम्हारे लायक रह गई हूॅ और रही काया की बात तो मुझे तो यह भी नहीं पता कि उसका पिता कौन है और मैं जानना भी नहीं चाहती क्योंकि वह मेरी बेटी है, मेरे लिये इतना ही पर्याप्त है।”
” मेरे लिये भी इतना ही पर्याप्त है कि तुम मेरा प्यार हो और काया तुम्हारे कोख से उत्पन्न प्यारा सा सुगन्धित पुष्प है।” फिर पार्थिव ने उदास स्वर में कहा – ” लगता है कि अब तुम्हें मेरे प्यार पर विश्वास नहीं रहा, इसलिये एक बार फिर मेरे प्यार और मुझे ठुकरा कर दूर रहना चाहती हो। जबकि अब मैं तुम्हें एक पल के लिये भी अकेले नहीं छोड़ना चाहता।”
आखिर बहुत मुश्किल से ही सही पार्थिव ने शांभवी को मना ही लिया।
उसी रात काया ने ऑफिस से आने के बाद मॉ को फोन लगाया तो उनका फोन स्विच ऑफ आ रहा था। कई बार फोन लगाने के बाद भी जब स्विच ऑफ ही आता रहा तो उसने सोंचा कि हो सकता है कि चार्जिंग न हुई हो लेकिन उसे चिन्ता हो गई कि मॉ बीमार तो नहीं हैं। उसने फोन रख दिया कि अभी आधे घंटे बाद फिर करेगी।
करीब पन्द्रह मिनट बाद उसकी डोर बेल बजी लेकिन दरवाजा खोलते ही वह आश्चर्य से खड़ी रह गई – ” मम्मा आप?” ऐसे?”
” हॉ, सरप्राइज कैसा लगा?” शांभवी ने हॅसते हुये कहा।
काया शांभवी से लिपट गई और मॉ को लेकर अन्दर आने के पहले दरवाजा बन्द करने के लिये आगे बढी तो सामने पार्थिव को देखकर तो उसे जैसे बिजली के करेंट जैसा झटका लगा – ” सर, आप यहॉ कैसे?
” पहले अन्दर आने दो बाहर बहुत ठंड है।” काया की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह असमंजस में दरवाजे से हट गई और पार्थिव आकर अन्दर सोफे पर आराम से बैठ गया साथ ही उसने बहुत अधिकार से कहा – ” काया, बेटा। गरमागरम कॉफी या चाय पिलाओ।”
” बेटा……।” काया एक साथ होने वाले इन अचम्भों से हैरान थी।
काया कॉफी बनाकर ले आई – ” सर…. ।”
” सर, नहीं पापा बोलो बेटा। क्यों, यह अपनी मम्मा से पूॅछो।” पार्थिव ने एक नजर अन्दर से आती शांभवी पर डाली जिसका चेहरा शर्म से लाल हो रहा था।
कुछ देर बाद वे तीनों साथ बैठे खाना खा रहे थे। आज पहली बार शांभवी ने अपने हाथों से पार्थिव के लिये खाना बनाया था, काया ने सिर्फ उसकी सहायता की थी और खाना बनाते समय ही उत्सुकता से पगलाई जा रही काया ने शांभवी से सब जान लिया।
बाहर खड़ी कार पर बैठते हुये पार्थिव ने काया के सिर पर हाथ रख दिया – ” अब ऑफिस कर्मचारी के रूप में नहीं, मालकिन के रूप में आना। कल कोर्ट में मैं और शांभवी शादी के बंधन में बंध जायेंगे और फिर एक शानदार पार्टी में हम अपनी शादी की घोषणा कर देंगे। इसके बाद तुम कम्पनी सम्हालना और कुछ दिन के लिये मुझे और शांभवी को छुट्टी दे देना।”
काया” पापा ” कहकर एक बार फिर पार्थिव से लिपट गई।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर