मैं अपने अहंकार में रिश्तों के महत्व को भूल गई थी। – मुकुन्द लाल : Moral Stories in Hindi

 अजेय अपने दफ्तर से छुट्टी लेकर अपनी पत्नी स्नेहा दोनों बच्चे धीर व साची के साथ अपनी छोटी साली प्रतिमा की शादी में शामिल होने के लिए ससुराल पहुंँचा । वहांँ घर में दाखिल होते ही अजेय, उसकी पत्नी और बच्चों ने भव्या(सासु मांँ) का चरणस्पर्श किया। उसने हल्की मुस्कान बिखरते हुए खुश रहने का आशीर्वाद दिया। उसके बाद उसने किसी घर के सदस्य को जलपान लाकर देने के लिए कहा, फिर एक नजर अजेय द्वारा लाई गई अटैची, बैग आदि पर डालती हुई वह आगे बढ़ गई।

   अजेय किसी सरकारी विभाग के दफ्तर में मामूली क्लर्क था। 

   स्नेहा ने अपने सामानों को उठाकर  एक कमरे में रख दिया। 

   शहर से उस कस्बेनुमा बाजार में पहुँचते-पहुँचते 

   दोपहर हो गई थी। ये लोग अंधेरे मुंँह शहर से चले थे सुबह का हल्का सा नास्ता और चाय लेकर। सभी भूखे प्यासे थे। स्नेहा ने बच्चों को बिस्कुट के पैकेट से बिस्कुट निकालकर दिया। वे लोग वहीं पर रखी हुई कुर्सियों पर बैठ गए थे।

   शायद दूसरे कामों में व्यस्त रहने की वजह से उसके ससुर महावीर जी पर नजर नहीं पड़ी।

   जब स्नेहा पांँच-छः वर्ष की थी तो उसी समय उसकी सगी मांँ किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होने के कारण  मर गई थी। भव्या उसकी सौतेली मांँ थी। उसकी तीन सौतेली बहनें थी और एक भाई था जो सबसे छोटा था। दोनों सौतेली बहनों की शादी पड़ोसी शहर के धनी व्यवसायियों के पुत्रों के साथ हुई थी।

   प्रतिमा की शादी की सारी जिम्मेवारी अजेय के दोनो साढ़ुओं ने अपने कंधों पर उठा रखी थी।

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   शादी वहाँ से दस-पन्द्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध और प्राचीन मंदिर में होना तय हुआ था। वहीं जाने की तैयारी में लोग लगे हुए थे। शादी के कपड़ों-लत्तों , दुल्हा-दुल्हन की पोशाकों , श्रृंगार-सामग्रियों , दहेज में दिये जाने वाले सामानों, जेवरों… आदि को बड़े-बड़े ट्रकों और अटैचियों में रखे जा रहे थे। इस प्रकार के सभी कार्य दोनों साढ़ुओं और स्नेहा की सौतेली बहनों के निर्देशानुसार किये जा रहे थे।

   अजय पर नजर पड़ते ही उसके दोनों साढ़ुओं ने शिष्टाचारवश हल्का सा सिर झुकाकर अभिवादन किया। फिर ‘कब आए’ कहते हुए अजेय का बिना जवाब सुने वहाँ से वे दोनों खिसक गए।

   अजेय और स्नेहा भी चाह रहे थे कि शादी-ब्याह के घर के कार्यों में हाथ बटांँएं किन्तु  न तो किसी ने पूछा इस संबंध में और न किसी प्रकार की जिम्मेदारी सौंपी। पति-पत्नी संकोचवश मूकदर्शक बनकर बैठे रहे। कोई उनके पास पल-भर के लिए भी नहीं ठहर रहा था।

   रिश्तेदारों और आमंत्रित लोगों से भरे उस घर में भी पति-पत्नी एकाकीपन महसूस कर रहे थे। 

   सभी अपने-आप में मगन थे।कुछ लोग समूह बनाकर हंँसी-ठिठोली कर रहे थे तो कुछ कीमती और फैशनेबुल पोशाक पहनकर इधर-उधर चहलकदमी कर रहे थे।

   इधर अजेय और उसके परिवार को कोई पूछने वाला भी नहीं था कि नास्ता या खाना किया भी है या नहीं जबकि उनके पेट में चूहे कूद रहे थे। जब कोई जलपान लेकर नहीं आया तो अजेय ने धीमी आवाज में स्नेहा से कहा कि कैसा शादी का घर है कि कोई खाने-पीने के लिए पूछने वाला भी नहीं है कि ऐसी रद्दी व्यवस्था तो मैंने कहीं देखा ही नहीं है अपने सर्किल 

में। 

   तब लज्जित होकर स्नेहा शादी की घरेलू गतिविधियों में व्यस्त मांँ से भेंट की और इस बाबत बातें की तो उसने रूखे स्वर में कहा, ” तुम तो पहुना नहीं हो… इसी घर की बेटी हो!… कहांँ क्या है तुम्हें पता है.. ले जाकर खिलाओ या नास्ता कराओ… देख रही हो न, यहाँ सिर खुजाने की भी फुर्सत नहीं है किसी को भी…” 

   ” मैं तो कई वर्षों के बाद आई हूँ मांँ!… कहांँ भंडार-घर है, मुझे क्या पता?… कहांँ क्या है?… इधर दो-तीन नये कमरों का निर्माण भी हुआ है, बताएगी तब न… “

 ” दस-बीस कदम चलकर खोज नहीं सकती हो?… पहाड़ पर चढ़कर तो नहीं न खोजना है… मेहमान भले इस घर से अनजान हैं, तुम तो नहीं हो… जाओ!… पूरब दिशा में जो कमरा है, उसमें सारा सामान खाने-पीने का भरा  पड़ा हुआ है।… सुबह में हलवाई ने जो पूरियां तली थी वह तो है ही, कई प्रकार की मिठाइयाँ, बुन्दियांँ… भी है।… बाल-बच्चों के साथ छककर खाओ और दामाद जी को भी खिलाओ! “खिसिया कर तैश में उसने कहा, फिर पैर पटकती हुई आगे बढ़ गई, होठों में बुदबुदाती हुई। 

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   मांँ के व्यवहार से उसका दिल दुखी हो गया। उसके चेहरे पर उमंग-उत्साह की जगह अवसाद ने ले लिया था। उसने स्वतः अपने मन में कहा कि शादी का दिन नहीं रहता तो वह एक क्षण भी यहांँ नहीं ठहरती कोई न कोई बहाना बनाकर ही सही वहाँ से चली जाती। 

   कुछ पल के बाद ही उसने अपने भूखे पति और बच्चों के लिए विवश होकर पत्तल प्लेट में पूड़ी-सब्जी, मिठाई आदि लेकर अपने पति और बच्चों के पास पहुंँच गई। अजेय और बच्चों ने खाया किन्तु उसने स्वयं नहीं खाया । सिर्फ एक लड्डू खाकर पानी पी लिया।

   देखते-देखते शाम हो गई। 

   आठ-दस छोटी गाड़ियाँ और एक बड़ी गाड़ी(बस) घर के आस-पास आकर लग गई। 

   मन्दिर जाने की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थी। 

   मन्दिर में शादी संपन्न करवाने की सारी व्यवस्था महावीर जी के ही अधीन थी। 

   बड़ी गाड़ी में उसके साढ़ुओं द्वारा वर-पक्ष को दी जाने वाली कीमती व भारी-भरकम सामान लादे जा रहे थे।  उसमें सामान्य लोगों को बैठने की व्यवस्था की गई थी। उसीमें अजेय को भी ले जाने की अधिक संभावना दिख रही थी। छोटी गाड़ियों में धनी रिश्तेदारों, कीमती गिफ्टों

और दान-दहेज़ में मोटी रकम देने वालों के लिए सीट रिजर्व कर दी गई थी।  एक स्पेशल सजी-धजी आकर्षक छोटी गाड़ी भी घर के मुख्य द्वार के पास आकर लगी, जिसमें अजेय की सबसे छोटी साली(दुल्हन), उसके दोनों जीजा और घर के प्रमुख रिश्तेदारों को जगह दी गई थी। 

   ऐसी व्यवस्था देखकर स्नेहा ने सोचना शुरू किया कि अगर वह जानती कि उसके घर के वातावरण में इतना बदलाव आ गया है, इतना पक्षपात होता है तो वह पति और बच्चों को अपमानित और उपेक्षित होने के लिए उन्हें कभी नहीं लाती  और न स्वंय आती। उसकी आँखें भर आई। उसकी माँ धन के घमंड में अंधी हो गई है।  उसकी उचित-अनुचित की समझदारी खत्म हो गई है। उसका दिमाग खराब हो गया है। अपने ही दामादों में भेद कर रही है। इस लिए कि मैं उसकी सगी बेटी नहीं हूँ, तो क्या हुआ?… मैं भी तो उसी बाप की बेटी हूँ। अपने दो दामादों को सिर पर बैठाएं हुए है, मेरे पति को मान-सम्मान देना और कद्र करना तो दूर की बातें हैं, अच्छी तरह से न तो किसी ने बातचीत की और न हाल-समाचार पूछा।उसका  अंतस्थल हाहाकार कर उठा।ऐसे बर्ताव की वजह से वह उद्वेलित हो उठी।  

   जहाँ इज्जत नहीं हो,  मान-मर्यादा नहीं हो  और अपनापन नहीं हो वैसे रिश्तेदारों से संपर्क नहीं रखने में ही अपनी भलाई है।  

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   जब अजेय ने पूछा कि क्यों वह शादी में जाने के लिए तैयार नहीं हो रही है तो उसने कहा कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है, पेट में दर्द हो रहा है और भोमेटिंग टेंडेंसी बनी हुई है। वह चले जाएं, अगर बच्चे जाना चाहते हैं तो ले जाएं, नहीं तो उसके पास ही छोड़ दें।  शादी के मंडप में प्रतिमा को नेग में एक जोड़ी पायल और एक वेसर दे दीजिएगा।बैग में रखा हुआ है। दूसरों से तुलना मत कीजिएगा ऐसे अवसरों पर। 

   उसके जवाब में अजेय ने कहा कि वह अकेले नहीं जाएगा। उसका घर है, उसकी बहन की शादी है। उसकी ही मुख्य भूमिका है, वह नहीं जाएगा तो काम चलेगा। 

  जब आपस में वाद-विवाद चल रहा था, उस समय तक सभी लोग मन्दिर के लिए प्रस्थान कर चुके थे। 

   जब भव्या ने देखा कि बड़े मेहमान और स्नेहा मन्दिर न जाकर आपस में बहस कर रहे हैं तो लोक-लाज और सामाजिकता के भय से वह वहाँ पर पहुंँची। फिर उसने दोनों को मन्दिर चलने के लिए कहा शादी में शामिल होने के मकसद से तो स्नेहा ने अपनी तबीयत खराब होने का वास्ता देकर अजेय को ले जाने का अनुरोध किया। तब अनुभवी भव्या ने कहा, 

” मैं सब समझती हूंँ कि क्यों तुम जाना नहीं चाहती हो?… वास्तव में मुझसे जाने-अनजाने कुछ गलतियांँ हो गई है…  मैंने तुम्हारे दिल को घमंड में चूर होकर ठेस पहुंँचाया, तुम्हारे जज्बात के साथ छेड़छाड़ किया दिखावा और अपनी श्रेष्ठता के वशीभूत होकर… मैं अपने अहंकार में रिश्तों का महत्व भूल गई थी। यह भूल गई थी कि तुम भी मेरी बेटी ही हो, सगी और सौतेली में फर्क करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी… मुझे माफ कर दो बेटी!… मेरी बेटी की शादी बिना किसी विघ्न-वाधा के संपन्न हो जाए यही ईश्वर से प्रार्थना 

है। “

  स्नेहा की आंँखों से आंँसू बहने लगे थे। उसने रोते हुए कहा,” जब मैं पांँच वर्ष की थी तो तुम्हीं ने मुझको पाल-पोष कर बड़ा किया था मांँ… क्यों मुझे सौतेली बेटी समझती हो” कहती हुई वह भव्या के गले लग गई थी।” 

   दोनों के दिल में जो कटुता पनप गई थी, वह दूर हो गई। 

   भव्या एक छोटी गाड़ी में स्नेहा, अजेय और बच्चों के साथ मन्दिर की ओर शादी में शामिल होने के लिए चल पड़ी थी। 

   स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                 मुकुन्द लाल 

                 हजारीबाग(झारखंड) 

                   05-02 – 2025

            बेटियाँ वाक्य कहानी प्रतियोगिता 

      वाक्य:- # मैं अपने अहंकार में रिश्तों के महत्व को भूल गई थी।

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