नम्रता पति दिवाकर के साथ आज मायके आई हुई है ।
श्राद्ध है माँ – बाबूजी का ।
पूरे सात बरस गुज़र गए । कुल 3 महीने का ही फ़र्क़ रहा ,पहले माँ पूरी हुईं और फिर बाबूजी ।
मन नहीं करता उसका यहाँ पैर रखने को । बचपन से लेकर कॉलेज तक के सारे दृष्य रील बन कर इन कमरों और आँगन में दौड़ लगाने लगते हैं ।
सत्ता हस्तांतरण भी यहीं देखा और ख़ूब देखा ।
बेटे के विवाह में जो माँ दीवानी बन नाचती, इधर- उधर ख़ुशी से बावरी बनी डोलती रही थी , वहीं कुल 8बरसों में ही अपने कमरे में सिमटा दी गईं थीं बाबूजी सहित ।
“ कहाँ चल पड़ती है आप सुबह -सुबह स्नान करने ? बच्चों को स्कूल जाना होता है । आप दोपहर में नहाया करें ।”
“ आपने सुबह चाय रस तो लिया है , अब तो सीधा खाना ही खाएँगी न ? “
“ पापा तो शाम 5बजते ही डाइनिंग टेबुल पर आ जाते हैं । चाय बनते -बनते ही बनेगी ।”
तीर – तीर और सिर्फ़ तीर । घर में हँसना -हँसाना तो ग़ायब हुआ ही , एक बचाव मुद्रा में सहमापन और पसरता चला गया था ।
बाबूजी के फेशियल पैरालेसिस का सुन वह खुद को रोक न पाई थी । बाबूजी के कृष शरीर को ऐसी अवस्था में बेबस पा वह उस कमरे में ठहर न सकी और बैठक में जाकर फूट -फूट कर रो पड़ी ।
“ दीदी ! बिल्कुल ठीक थे पापा । दोपहर को छक के खाना खाया । पूरी 5कटोरी तो उड़द की दाल पी गए । भाती है न उन्हें । अब टोकें तो बुरा मानते हैं । “ भाभी ही थीं ।
वही भैया -भाभी आज पंडित जी द्वारा बताए पूरे विधि -विधान से श्राद्ध कर्म में रत थे , पूरी श्रद्धा के साथ ।
“ दीदी ! आप दोनों को आया देख , जी जुड़ गया । जब परिवार के सभी सदस्य एक जुट सम्मिलित हों , तभी तो माँ -पापा जी की आत्मा को सुख मिलेगा , और शांति भी ।
है न दीदी ? “
डॉ आदर्श / उधमपुर