पापा तुम कहाँ हो – अलका प्रमोद : Moral Stories in Hindi

बाहर ज़ोरों की आँधी आई थी मानो टीन और छतों को सामना करने के लिए ललकार रही हो। खिड़की की झिर्री से प्रवेश करती वायु विचित्र-सी सीटी के समान ध्वनि उत्पन्न कर रही थी, कि तभी आँधी के कारण बिजली चले जाने से वातावरण और भी रहस्यमय हो उठा।

इतने बड़े घर में एकाकी बैठे रामेश्वर जी का हृदय अज्ञात आशंका से काँप उठा वह सोचने लगे कि यदि इस भयावह रात में उन्हें कुछ हो जाय तो वह किसे पुकारेंगे? उनकी हृदय गति रुक जाए तो पता नहीं वह कब तक यों ही पड़े रहेंगे, संभवत: लोगों को पता भी तब चलेगा जब उनकी देह से दुर्गंध आने लगेगी।

अपनी इस वीभत्स कल्पना मात्र से ही वह सिहर उठे और अपने विचारों को झटक कर मोमबत्ती ढूँढ़ने का प्रयास करने लगे। उन्हें याद भी नहीं आ रहा था कि घर में मोमबत्ती है भी कि नहीं और यदि है भी तो कहाँ रक्खी है। यह सब तो मालती का दायित्व था, उन्होंने कभी यह जानने का प्रयास भी नहीं किया कि घर में क्या है

और क्या नहीं है।  उन्हें यह भी पता नहीं रहता था कि उनके पास कितने कपड़े हैं और किस शर्ट के साथ कौन-सी पैंट पहननी है, वह तो दुकान पर जाने से पूर्व मालती को आवाज़ देते, “मालती, हमारे कपड़े निकाल दो” और कपड़े उन्हें हाथों-हाथ मिल जाते।  

हाँ कभी नहाने जाने पर तौलिया या साबुन नहीं मिलता तो पारा अवश्य सातवें आसमान पर पहुँच जाता और बेचारी मालती कभी सब्ज़ी की कड़ाही गैस से उतार कर, कभी आटा सने हाथों दौड़ती-हाँफती आती और उनको कपड़े पकड़ाती। उनसे तो यह भी नहीं होता था कि स्वयं ले लें।

सच, आज वह सोचते हैं कि उन्होंने मालती को कितना सताया था। तब तो उन्हें यही लगता था कि घर में काम ही क्या होता है दो समय खाना बना दो, कपड़े धो दो और चादर तान कर सो। उन्हें बस अपने काम ही महत्वपूर्ण लगते थे, कभी थोक का सामान जाना है तो कभी आयकर वालों से निबटना है।

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कभी-कभी कोई झगड़ालू ग्राहक आ जाता तो घंटों सिर खपाना पड़ता है। घर आ कर भी रुपए का हिसाब-किताब ही मस्तिष्क में घूमता रहता है। अब आज जब उन्हें घर गृहस्थी से दोचार होना पड़ा तो ज्ञात हुआ कि इसे सँभालना भी कम दुर्वह कार्य नहीं है।

पर अब तो पश्चाताप का अवसर भी मुट्ठी से रेत बन कर फिसल चुका है। मालती ने तो सारे झंझटों से मुक्त हो कर परलोक की राह पकड़ी। वैसे वह भाग्यशाली थी कि उसने वह सब नहीं देखा जो आज उन्हें देखना पड़ रहा है। वह तो प्राय: ईश्वर को धन्यवाद देती थी और कहती,

“सच शकुन के पापा ऊपर वाले का धन्यवाद है कि उसने भले ही हमे लड़का नहीं दिया पर हमारी तीनों बेटियाँ और दामाद इतने भले हैं कि हमे कोई कमी नहीं, उस पर अपना दिनेश और उसकी बहू जितना मानते हैं वह तो शायद पेट जाया भी न करे।”
इस पर रामेश्वर चुटकी लेते और कहते, “पहले जब मैं कहता था कि लड़का और लड़की बराबर हैं तो तुम कहाँ सुनती थीं, न जाने कहाँ-कहाँ पूजा पाठ और मन्नत नहीं मानी तुमने।”
मालती तुनक कर कहती, “अरे यह हमारे पूजा पाठ और मन्नत का प्रताप है कि भगवान भी पसीज गए, चलो बेटा नहीं दिया तो क्या बेटे का सुख तो दे ही दिया।”
रामेश्वर हँसते, “चलो-चलो तुम्हारे पूजा पाठ से ही सही हमारा बुढ़ापा तो चैन से कट रहा है।”

वह ग़लत भी नहीं कह रहे थे मालती थी तो यही घर कितना भरापूरा रहता था। आए दिन कोई न कोई लड़की दामाद आते ही रहते थे, सभी दामाद बेटों के समान घर में आते थे कोई नखरा नहीं था, यदि आवश्यकता हो तो सब्ज़ी आदि भी लाने में नहीं हिचकते। जब छोटी बेटी प्रीती के विवाह की बात उठी थी

तो मालती ने हठ पकड़ लिया, “दो बेटियाँ तो दूर चली गईं पर उसे तो इसी शहर में ही ब्याहेंगे समय बेसमय का सहारा रहेगा।” उनका निर्णय ग़लत भी नहीं था। प्रीती तो नित्य प्रति हालचाल पूछ ही लेती दामाद राजीव भी किसी भी कार्य के लिए एक पाँव पर खड़े रहते, यही नहीं छोटे भाई बशेशर जो पास में ही रहते थे, उनका बेटा दिनेश भी दूसरे तीसरे दिन चक्कर लगा ही लेता था।

दिन चैन से कट रहे थे, पर भाग्य का लिखा व्यक्ति देख पाता तो ईश्वर को कौन पूछता? उस दिन जब रामेश्वर दुकान से लौटे तो मालती के सीने में दर्द हो रहा था। छोटी-मोटी परेशानी तो वह सह लेती थी और उन्हें पता भी नहीं चलता था, पर उस दिन अवश्य असह्य कष्ट था जो वह साँझ ढले बिस्तर पर लेटी थी।

उन्होंने उसका माथा छूते हुए पूछा था, “क्या हुआ मालती?” तो बड़े प्रयास से वह कराह कर बोली, “ज़रा कोई चूरन-वूरन दे दो लगता है गैस चढ़ गई है, सीने में दर्द हो रहा है।” जब तक रामेश्वर जी ढूंढ कर चूरन और पानी लाए, मालती के हाथ पांव ठंडे होने लगे, वह बेसुध सी हो गई। मालती की स्थिति देख कर रामेश्वर जी के हाथ पाँव यों ही ठंडे हो गए, उन्होंने दिनेश और राजीव को काँपते हाथों से फ़ोन मिलाया।

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राजीव तुरंत पहुँच गए और दोनों मिल कर मालती को पास के रामा नर्सिंग होम में ले गए। तब तक दिनेश भी आ पहुँचा था। अस्पताल में डॉ. मेहरा ने निरीक्षण करके बताया, “इन्हें दिल का दौरा पड़ा है।”
रामेश्वर घबरा गए और बोले, “डॉ. साहब अब क्या होगा?”
डॉ. ने कहा, “तुरंत आपरेशन करना होगा।”
पर वह निष्फल रहा, मालती सबको हतप्रभ छोड़ कर चली गई।

इस आघात से रामेश्वर जी तो मानो पत्थर हो गए, उन्होंने कभी सोचा भी न था कि जीवन की राह में सदा साथ देने वाली मालती, अंतिम पड़ाव में जब वह स्वयं निर्बल होने लगे थे उन्हें इस प्रकार धोखा दे जाएगी। वह तो निष्प्राण से वहीं बैठ गए, उन्हें कुछ सुध नहीं कि कब क्या हुआ। सारा कार्य राजीव और दिनेश ने ही सँभाला।

किसने लड़कियों को सूचना दी, नाते रिश्तेदार कब आए और कब मालती अपने अंतिम पड़ाव पर निकल गई, उन्हें कुछ भी पता नहीं। उनसे जो कहा जाता रहा वह करते रहे, वे चौंके तो तब जब उनसे चिता को अग्नि देने को कहा गया। जिस अट्ठारह वर्ष की कोमलांगनी मालती को वह चालीस वर्ष पूर्व ब्याह कर घर लाए थे

वह शरीर पल भर में अग्नि में झुलस जाएगा इस कल्पना मात्र ने उनके पत्थर हो आए मन का बाँध तोड़ दिया और उस दरार से उनका शोक जो प्रवाहित हुआ तो सारी सीमाएँ पीछे छोड़ दीं, उनके रुदन ने पाषाण दयों के नेत्र भी नम कर दिए, पर उनकी एक पुकार पर दौड़ आने वाली मालती ने आज उनकी पुकार नहीं सुनी, वह तो लकड़ी की शय्या पर चिर निद्रा में सोती ही रही।

थके-हारे जब वह सब कुछ स्वाहा करके लौटे तो घर शोक व्यक्त करने वालों की भीड़ से भरा हुआ था, पर वह इस भीड़ में भी स्वयं को नितांत एकाकी पा रहे थे। बेटियों, दामादों और भाई ने मिल कर तीसरे दिन हवन करने का निश्चय किया, तेरह दिन रुकने का समय तो किसी के पास था नहीं, किसी के बच्चों की परीक्षा थी तो किसी का घर अकेला था। तीसरे दिन शांति पाठ और हवन के साथ मालती के अस्तित्व को पूर्ण रूप से विदा दे दी गईं। शांतिपाठ वाले दिन रामेश्वर जी निढाल से बैठे थे कि उनके भाई बशेशर आ कर बैठ गए और बोले,
“भइया एक बात कहनी थी,”
“हाँ हाँ बोलो।”
“भइया भाभी तो हमें छोड़ कर चली गईं, बेटियाँ अपने घर की हो गईं अब हमें तो बस आपकी चिंता खाए जा रही है।”
रामेश्वर ने कहा, “अरे, अब ऊपर वाले ने जैसा किया वह तो सहना ही पड़ेगा, फिर तुम लोग तो हो ही, दिनेश और उसकी बहू तो दूसरे तीसरे दिन आते ही रहते हैं।” बशेशर ने अपनी बात थोड़ी और स्पष्ट करते हुए कहा,
“यही तो, भइया आजकल के लड़कों की तो भली चलाई, वो तो अपनी मन मर्ज़ी के मालिक हैं, मन आया तो पूछेंगे वर्ना कोई दबाव तो है नहीं, फिर थोड़ा रुक कर झिझकते हुए बोले,
“हमारा तो यह कहना था कि आप उसे अपना बेटा बना लें।” इस पर रामेश्वर जी ने चौंक कर कहा,
“अरे बेटा जैसा तो वह है ही, क्या हमने उसे कभी पराया माना है?” बशेशर ने खीजते हुए कहा,
“भइया बेटा और बेटा जैसा में बहुत अंतर है। अब तो उसे दुकान सौंप कर तुम आराम करो, जब ज़िम्मेदारी उसके सिर आएगी तो उसे भी लगेगा कि दुकान उसकी है और वह मन लगा कर काम करेगा और बहू भी तुम्हारी सेवा करेगी, नहीं तो उसे अपना धंधा जमाने से फुरसत ही कहाँ मिलेगी।”

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रामेश्वर जी समझ रहे थे कि उन्हें ढँके मुँदे शब्दों में चेतावनी दी जा रही थी कि यदि तुम उसे दुकान और मकान में अधिकार दोगे तो वह तुम्हारी देख भाल करेगा वर्ना नहीं। उन दोनों की वार्ता चल ही रही थी कि छोटे दामाद राजीव और बड़ी बेटी शकुन वहाँ आ गए। शकुन बोली,
“यह चाचा पापा दोनो भाई मिल कर क्या सलाह कर रहे हैं?” बशेशर सकपका गए, लड़कियों के सामने वह यह बात करना नहीं चाह रहे थे अत: टालते हुए बोले,
“कुछ नहीं घर परिवार की आपस की बात है।” पर शकुन के अधिक आग्रह पर रामेश्वर ने बता दिया कि बशेशर क्या चाहता है। यह सुन कर शकुन और राजीव की भृकुटि तन गई। शकुन बोली,
“क्यों हम बेटियाँ मर गई हैं क्या जो पापा दिनेश को गोद लेंगे?” राजीव भी बोले,
“मैंने भी सदा पापा को ससुर नहीं पिता माना है फिर आज अचानक मुझे पराया समझा जाने लगा।” वार्तालाप के स्वर अचानक ही ऊँचे हो गए थे जिसे सुन कर शेष लोग भी आ गए। बात समझ में आने पर सभी को आपत्ति हुई कि दिनेश को अधिकार दिए जाएँ। अपनी दाल गलती न देख कर बशेशर आवेश में आ कर बोले,
“ठीक है बड़ी सगी हो अपने पापा की तो आ कर रहो यहाँ और करो देख-भाल अपने पापा की, पर एक बात हम डंके की चोट पर कहे देते हैं कि अपना खून अपना होता है जमाई किसी के नहीं हुए। अरे, हमारे शास्त्रों में भी बेटी दामाद के पराए होने की बात लिखी है।” फिर सफ़ाई देते हुए से बोले,
“हम तो भइया के बुढ़ापे की चिंता में बोल पड़े वर्ना हमें क्या पड़ी है किसी के फटे में टाँग अड़ाने की।” फिर अपनी बात विपरीत धारा में जाते देख कर पैर पटकते हुए वहाँ से चलते बने। पर जो कंकड़ वह शांत दरिया में फेंक गए वह ऊपर से शांत झील के अंतस में हिलोरे लेती लहरों को सतह पर ले आया। सभी के मन में यह प्रश्न उठा कि कहीं पापा अपने सहारे के लिए किसी एक बेटी को न चुन लें या बशेशर चाचा ही समझा बुझा कर दिनेश को दुकान पर बैठा दें क्यों कि उसका वैसे भी कोई स्थायी धंधा तो है नहीं।

जो प्रश्न हवा में उछला था उसे सबसे पहले छोटे दामाद और बेटी ने लपका। प्रीति बोली, “अब समझ में आया कि दिनेश और उसकी पत्नी मम्मी पापा की इतनी सेवा क्यों करते थे, आज चाचा का आवरण में छिपा असली चेहरा सामने आ ही गया। अरे हम बेटियों के होते उन्हें पापा की चिंता करने की क्या सूझी?” फिर इससे पूर्व कि कोई और नया प्रस्ताव रखे उसने सुझाव दिया,
“मैं वैसे भी सोच रही थी कि अब पापा इतने बड़े घर में अकेले कैसे रहेंगे, फिर मैं भी इतनी दूर से उनकी देखभाल नहीं कर पाऊँगी, इसीलिए मैं यहीं शिफ्ट हो जाती हूँ, मेरी आँखों के सामने रहेंगे तो मुझे भी चिंता नहीं रहेगी और पापा को अकेलापन भी नहीं लगेगा।”

प्रीति उसी शहर के किराए के दो कमरों में रहती थी उसके साथ उसके सास ससुर और देवर भी रहते थे। वह मन ही मन हिसाब लगा रही थी कि यहाँ चार कमरों का मकान खाली है यदि यहाँ आ जाएगी तो पैर फैला कर रह पाएगी पापा का क्या है, एक कमरा भी बहुत है उनके लिए। फिर दिन भर तो वह दुकान पर बैठेंगे, सुबह शाम की उनकी चार रोटी ही तो बनानी पड़ेगी। राजीव भी अपनी पत्नी का समर्थन करते हुए बोले,
“पापा ने यही सोच कर तो प्रीति की शादी शहर में कर दी थी कि समय बेसमय सहारा रहेगा, अब समय आ गया है तो मैं अपने कर्तव्य में पीछे नहीं हटूँगा।” पर शकुन ने उनकी कामनाओं पर पानी फेरते हुए कहा,
“तो क्या आज से मेरा मायका खतम?”
“अब मैं तुम्हारे ससुर देवर वाले घर में तो आने से रही।” इस बात का समर्थन मंझली बेटी विपुला और दामाद गिरीश ने भी किया। वे समझ रहे थे कि यह बात तो निश्चित है कि यदि प्रीति यहाँ आ कर रहने लगी तो घर तो हाथ से गया, इस पर तो उसी का अधिकार हो जाएगा। इससे पूर्व कि घर पर किसी एक का हो विपुला ने सुझाव दिया कि, “मैं तो कहती हूं कि आपको अब दुकान पर बैठने की क्या आवश्यकता है बहुत दिन काम कर लिया अब आराम करें और दुकान और मकान का अपने जीते जी बंटवारा कर दें इसमें किसी के साथ अन्याय नहीं होगा।” इस पर प्रीति चिढ़ कर बोली, “और पापा कहां रहेंगे?” विपुला ने समाधान किया, “पापा हम सबके पास बारी-बारी से रह लेंगे।”

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रामेश्वर जी विमूढ़ से अपने जीते जी अपनी वर्षों की लगन और परिश्रम से अर्जित की संपत्ति की गई छीना झपटी देख कर स्तब्ध थे। उनका मन वितृष्णा से भर उठा, वह सोच रहे थे, काश! मैं मालती जैसा भाग्यशाली होता, मेरी आंखें भी यह सब देखने से पूर्व ही बंद हो जातीं तो अच्छा था। ‘उस समय किसी को भी उनके अंदर उठ रहे झंझावत और दुख की अनुभूति नहीं थी उन्हंे तो यह चिंता थी कि कहीं कोई दूसरा उस संपत्ति पर अधिकार न कर ले और वह पिछड़ जाएं। अपनी ही बेटियां जिन पर वह मन प्राण अर्पित करते रहे थे वह स्वार्थ में अंधी हो रही थीं। शकुन बोली,
“पापा कल तो हम लोग चले जाएँगे इसीलिए आप आज ही तय कर लीजिए कि आपने क्या सोचा?” रामेश्वर जी आवेश में बोले,
“जाना है तो तुम लोग जाओ अभी मैं इतना निर्बल नहीं हुआ कि अकेले न रह सकूँ। अकेले रहूँगा और दुकान भी सँभालूँगा। मेरी संपत्ति का क्या किसको देना है यह सोचना मेरा काम है तुम्हारी नहीं। एक बात कान खोल कर सुन लो कि मैं तुमको कुछ नहीं दूँगा।” यह सुन कर वहाँ सन्नाटा छा गया, एक-एक कर के सभी उठ कर सोने चल दिए। सब के जाने के बाद एकांत में रामेश्वरजी बिलख कर रो पड़े आज वह स्वयं को और भी एकाकी अनुभव कर रहे थे।

बड़े दामाद अजय मन ही मन सोच रहे थे, “बुढ़ऊ को इस उमर में भी इतनी माया मोह है अरे जीतेजी बँटवारा कर देते तो मैं हिंद नगर वाली ज़मीन ख़रीद लेता, मौके से मिल रही थी।” राजीव बुदबुदा रहे थे, “यह अच्छा न्याय है, काम के समय सदा हमें याद किया जाता है, जब देखो दौड़ाते रहते हैं और अब हिस्सा लेने को सब तैयार बैठे हैं। मँझले दामाद गिरीश ने जब देखा कि कोई दाल नहीं गलनी तो प्रात: पहली बस से निकलने की सोचने लगे। अगले दिन सभी अपने-अपने घर चले गए।

अचानक बिजली आ गई शायद आँधी थम गई थी सबके जाने के बाद अब तो बस रामेश्वर जी थे और मालती की स्मृतियाँ। जब कभी मन बहुत व्यग्र होता तो मालती की फ़ोटो से बातें करते, पुराने एलबम देखते और उन्हीं दिनों में विचरते रहते। मन पर वैराग्य घर करता जा रहा था। अब तो दुकान पर भी जाने का भी मन नहीं होता, क्या करेंगे और धन अर्जित करके, जो धन है वही उनके अपनों के मध्य क्लेश का कारण बना हुआ है। विश्वास नहीं होता कि यह सब उसी मालती की संताने हैं जिसे धन वैभव कभी मोह ही नहीं पाया। वह तो अपने लिए कभी कुछ भी लेती ही नहीं थी जब देखो प्रीति, विपुला और शकुन की ही चिंता में लगी रहती थी फिर जब उनके परिवार हो गए तो उसकी चिंता का घेरा और भी बड़ा हो गया था कभी विपुला के बेटे का जन्मदिन है तो उपहार देना है तो कभी प्रीति को नागपंचमी की साड़ी देनी है या शकुन बहुत दिनों बाद आई है तो दामाद जी को कपड़े देने हैं संभवत: मालती ने इन्हें दे-दे कर ही इतना अभ्यस्त बना दिया है जो पापा के लिए संवेदना को किनारे रख कर अपने अधिकार पाने की होड़ में लग गईं।

जब से उन्होंने कह दिया है कि वह किसी को कुछ नहीं देंगे सब उनसे किनारा कर बैठे हैं। दिनेश इतने दिनों में औपचारिकतावश मात्र एक बार आया था वह भी अकेले। बेटियाँ अवश्य फ़ोन कर लेती थीं पर उनकी वाणी में वह आत्मीयता पता नहीं कहाँ खो चुकी थी, कभी जो पापा के लिए हुआ करती थी। रामेश्वर जी मन ही मन हँसते और सोचते- अरे, मैं यह सब अपने सीने पर थोड़े ही ले जाऊँगा, पर कम से कम मेरे मरने तक तो सब्र कर लेते।” इस उपेक्षा से व्यथित रामेश्वर जी का संसार के प्रति माया मोह समाप्त हो गया था, उन्हें जग मिथ्या लगने लगा था।

एक दिन शकुन अपने कार्यों में व्यस्त थी कि तभी किसी ने घंटी बजाई उसने द्वार खोला तो सामने कूरियर वाला खड़ा था उसने हस्ताक्षर करके लिफ़ाफ़ा खोला तो उसमें पापा का भेजा हुआ पाँच लाख रुपयों का ड्राफ्ट था, शकुन प्रसन्नता से नाच उठी, “आख़िर पापा को बेटियों के अधिकार का ध्यान आ ही गया।” उसने प्रीति को फ़ोन किया तो ज्ञात हुआ कि उसके पास भी ऐसा ही एक ड्राफ्ट आया है, अभी वह विपुला को फ़ोन करने की सोच ही रही थी कि विपुला ने स्वयं ही पाँच लाख रुपए मिलने की सूचना दे दी। तीनों बहनों को अचानक आज पापा पर बहुत प्यार आ गया और वे सब पापा से मिलने को व्यग्र हो गईं।

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विपुला शकुन आनन-फानन कार्यक्रम बना कर फरीदाबाद पहुँच गईं और प्रीति को ले कर पापा के घर पहुँचीं, पर घर पर ताला लगा था, उन्होंने सोचा पापा दुकान पर होंगे पर दुकान भी बंद थी अत: पड़ोस वाले वर्मा जी का दरवाज़ा खटखटाया। वर्मा जी तीनों बहनों को साथ देख कर आश्चर्य से बोले, “तुम लोग यहाँ?” तो प्रीति ने आगे बढ़ कर कहा, “चाचा जी हम लोग पापा से मिलने आए थे पर वह मकान और दुकान बंद कर के कहीं गए हैं, क्या आप से कुछ कह गए हैं?” वर्मा जी ने कुछ असमंजस में कहा,
“क्या तुम लोगों को कुछ नहीं पता?” तीनों बहनों को अब कुछ खटका हुआ, वे एक साथ बोल पड़ीं,
“क्या हुआ पापा को वह ठीक तो हैं?” वर्मा जी ने कंधे उचकाते हुए कहा,
“क्या पता, मुझे तो बस इतना ही पता है कि रामेश्वर जी एक सप्ताह पूर्व अपना मकान और दुकान बेच चुके हैं।” फिर कुछ रुक कर बोले,
“हम तो समझते थे कि वह तुम लोगों के ही पास होंगे।”
तीनों बहनें हतप्रभ रह गईं वे एक दूसरे से आँख नहीं मिला पा रही थीं क्यों कि वह समझ गईं थीं कि पापा उनसे रूठ गए हैं और उन्हें कभी नहीं मिलेंगे। आज उनके मन में एक ही प्रश्न था “पापा तुम कहाँ हो?”

लेखिका : अलका प्रमोद

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