सात फेरों के सातों वचन – कंचन शुक्ला

अद्वैता की इक्यावनवी सालगिरह थी कल।

रात से भोर तक उसका मन अनमना था। उसके कानों में बार बार समन्वय का “सॉरी माफ कर दो” गूँज रहा था। पर उसे ऐसा लगा, मानो धरती फट जाए और वो उसमें समा जाए।

वो उसका बार बार पूछना,” कहाँ कमी रह गई मुझसे??”, “तुम्हारी उम्मीदों पर मैं खरा नही उतर पाया” और ना जाने क्या क्या कह दिया था नशे में।

खूब जोशोखरोश के साथ, समन्वय ने, शहर के अच्छे होटल में, चुनिंदा लोगों के मध्य, अद्वैता के जन्मदिन का सरप्राइज जलसा रखा था। तीन दिन से शहर से बाहर वह टूर पर था सो प्रबंधन वहीं से चालू था।

अद्वैता ने पहले से ही घर रहने का मन बना रखा था। कार्यालय जाने का कोई कार्यक्रम नही था। पर फिर अचानक एक फ़ोन लगा, तैयार हो, वह चली गई।

नीचे जैसे ही विधान, अद्वैता से रूबरू हुआ, सफेद गुलाबों के गुलदस्ते के बीचोंबीच उसने नीला सा छोटा सा बॉक्स रखते हुए, उसे पकड़ा दिया। बॉक्स में रूबी हीरों से जड़ित अँगूठी थी।

अद्वैता की आँखों में तारों सी चमक थी। आसपास देख, विधान को उसने गले लगा लिया, बोली “आई लव यू।” बस वहीं से कार्यक्रम ने अलग ही मोड़ ले लिया। वे सीधे अद्वैता के घर चल दिए। घर पहुँचते ही प्रेम का सुरूर सर चढ़ बोलने लगा।

इतने में समन्वय, अद्वैता को सरप्राइज करने की ताक में, बिना कोई शोर किए, अपनी चाभी से दरवाज़ा खोल, घर में दाखिल हुआ। आवाज़ें बेडरूम से आ रही थीं सो उस तरफ हो लिया।

वहाँ का नज़ारा कल्पना से परे था। वह उल्टे पाँव वहाँ से भाग गया। किसी मंदिर की सीढ़ियों पर सूटकेस रख, अपना चेहरा घुटनों में टिका सुबकने लगा।

वो नज़ारा उसकी दुनिया दहला गया। इतने सालों का समर्पण, प्रेम, आदर सद्भाव, कुशल और संस्कारी बिटिया शमिता का पालनपोषण, सब तो करने का प्रयास किया। फिर कहाँ चूक हो गई उससे???


अद्वैता का व्यक्तित्व वैसे तो यूँ बहक जाने वाला नही था। इस घटना से पहले तक, समन्वय को ऐसा ही विश्वास था। पर अब उसे लग रहा था, जैसे पिछले दो साल में ये red flags उसने नजरअंदाज किये थे।

अद्वैता को काम से घर आने की हमेशा ज़ल्दी रहती थी। शमिता को दाई के भरोसे छोड़ना उसे बिल्कुल नही रुचता था। शमिता के कॉलेज हॉस्टल में शिफ्ट हो जाने पर भी वह समय से घर लौट आती। शौक से समन्वय के लिए, कभी कुछ बनाती तो कभी कुछ।

पिछले कुछ समय में उसके अंदर अमूलचूल परिवर्तन आ रहा था। अद्वैता का देर से घर आना। जब तब अपने दोस्तों साथ खाना खाने, फ़िल्म देखने, आउटिंग पर जाने का बहाना करना। जो कि उसके व्यवहार के विपरीत दिशा उजागर कर रहा था।

समन्वय को लगा, अद्वैता कोई कमसिन बीस बाइस वर्ष की नवयौवना तो नही जो किसी को भी देख बहक जाए। इसलिए उसने कभी कोई आपत्ति नहीं जताई। ना ही कोई प्रश्न किए।

समन्वय ने खुद पर और अपनी भावनाओं पर काबू किया। ज़हर का घूँट सदैव से स्त्रियाँ ही पीती आईं हैं। इस बार यह घूँट वह स्वयं पियेगा।

यह सोच वह नियत कार्यक्रम को अपने पूरे मनमस्तिष्क से कार्यान्वित करने की मंशा ले आगे बढ़ गया।

होटेल के सारे प्रबंध देख वहीं से अद्वैता को फोन कर तैयार रहने को कहा। अद्वैता, उसका फोन सुन, एकबारगी स्तब्ध रह गई।

खुद संयत हो, विधान को वहाँ से रवाना किया। फिर दोबारा, समन्वय को फोन कर, उसकी बातों और मौन के बीच की कसक को ध्यान से पढ़ने लगी।

***”इश्क़ मुश्क छलावा है, दिखावा है

आज नही तो कल इसमें, पछतावा है।”***

किसी बेहद ज़हीन शायर की ये लाइनें दिमाग में हिलोरे मारने लगीं। खुद को एकत्रित कर अद्वैता तैयार हुई। अपने नैतिकता से परिपूर्ण जीवन को जिस भ्रमजाल में उसने फँसा लिया था उसमें अब साँस लेना भी भयावह लगने लगा।


कबीर रचित ये पंक्तियाँ उसको कैसे कैसे ताने दे रहीं थीं।

**पतिवरता मैली भली काली कुचित कुरूप

पतिवरता के रूप पर वारों कोटि सरूप। पतिवरता पति को भजै और न आन सुहाय सिंह वचा जो लंघना तो भी घास न खाय।**

पार्टी के उपरांत वह अपनी गलतियों की क्षमा समन्वय से माँग, उसके निर्णय को स्वीकार करेगी, ऐसा उसने ठाना था।

सभी तय समय पर उपस्थित हुए। समन्वय का व्यवहार व जन्मदिन का आयोजन मनमोहक था। इसलिए भी अद्वैता की आँखों से पश्चाताप के आँसू झरझर बहने लगे।

मन के लाखों तूफानों का बवंडर थामें, खुद को विशाल समुंदर समझ, समन्वय ने अद्वैता को अपने सीने से लगा, ढाढस बँधाया। खाने पीने और वार्तालाप के बाद दोंनो के लिए गाना चला। 

***जब कोई बात बिगड़ जाए,

जब कोई मुश्किल पड़ जाए,

तुम देना साथ मेरा ओ हमनवां***

इस गाने के भावों में डूबते उबरते समन्वय तो जैसे अपना आपा ही खो बैठा। आमतौर पर वह कभी शराब नही छूता। पर ऐसे मौके पर कुछ ज़्यादा ही हो गई।

जब वह इस गाने की धुन पर अद्वैता के साथ थिरक रहा था तभी उसने अद्वैता से अंटशंट बकना शुरू कर दिया। उसके मन का पपीहा आखिर कब तक चुप बैठता।

सभी को शुभरात्रि कह अद्वैता, समन्वय को थाम, वहाँ से चल दी। घर पहुँच ऐसा भान हुआ जैसे सब बिखरा पड़ा है।

ईश्वर कैसे कैसे कर्मों/ फलों का हिसाब किताब करता है। यही सोच समन्वय को लिटा उसके पैर के पास बैठ गई।

भोर में उसकी आँख लग गई। अद्वैता उठी, नहा धोकर मंदिर में पूजा करने के लिए दीपक जैसे ही प्रज्ज्वलित किया, समन्वय उसके बगल में आकर खड़ा हो गया।

अद्वैता कुछ कहती उससे पहले समन्वय ने कहा,”ये घर तुम्हारा भी है। मुझसे कभी ऐसी गलती हो जाती तो?? जो हुआ, उस पर हम कभी चर्चा नही करेंगे। हर परिस्थिति में अपने सात फेरों के सातों वचन, इस बार मुझे निभाना है।”

मौलिक और स्वरचित

कंचन शुक्ला- अहमदाबाद

10.12.2021

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