डकैत – कमलेश राणा

पापा बैंक मैनेजर थे,,,उनका ट्रांसफर नई नई जगह होता रहता था,,,,और हमें उस नई जगह के भूगोल,भाषा और परम्पराओं को जानने का मौका मिलता और साथ ही साथ बहुत सारे नये लोगों से मिलने का सौभाग्य भी।

उनमें कुछ लोग तो ह्रदय पर अमिट छाप छोड़ जाते,,,,,कुछ की स्मृतियाँ मन को कड़वाहट से भर देतीं हैं और,,,कुछ लोगों के रोमांचक अनुभव यदा-कदा स्मृतियों की अथाह राशि में से अपने वजूद का एहसास करा देते हैं।

एक बार पापा का ट्रांसफर भिंड जिले के एक कस्बे में  हुआ,,,,,,वह कस्बा क्वारी नदी के बीहड़ में था।

चम्बल और क्वारी के बीहड़ का नाम ही बहुत लम्बे समय तक लोगों के मन में खौफ पैदा करने के लिए ही पर्याप्त था,,,,,यहाँ की मिट्टी कुछ ऐसी है कि पानी के तेज बहाव से वह कट जाती है,,,,परिणामस्वरूप मिट्टी के ऊंचे ऊंचे टीले बन जाते है,,,,उनके बीच में संकरे रास्ते,,,,

इन्हीं बीहड़ में डकैत पुलिस से बचने के लिए शरण लेते थे,,,,1940 से 1970 तक यह इलाका काफी कुख्यात रहा है,,,,यह घाटी डाकुओं के आतंक से थर्राती थी।

1978 में जब पापा की पोस्टिंग यहाँ हुई तो लोगों की बातों ने मन में एक भय पैदा कर दिया था।

जब यहाँ आये तो सब कुछ सामान्य था,,,,,जिन दुर्दांत डाकुओं के बारे में सुना था,,,वैसा कुछ भी नहीं लगा।

क्योंकि 1971 में डॉक्टर एन एस सुब्बाराव की सार्थक पहल पर एक साथ 70 डकैतों ने आत्मसमर्पण कर दिया था,,,,,पर जिन कारणों से वो बागी बने,,,,उनके चलते वो अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित थे,,,,तब तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी ने उनके लिए खुली जेल बनवाने का आश्वासन दिया,,,,,साथ ही परिवार के एक सदस्य को नौकरी और कृषि कार्य के लिए भूमि भी दी गई,,,और उन पर चल रहे सारे केस भी वापस ले लिये गये,,,

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कुछ बागी ऐसे भी थे जो काफी समय पहले ही स्वेच्छा से  यह कार्य छोड़ चुके थे और परिवार के साथ खुशहाल जीवन बिता रहे थे

एक दिन पापा के साथ  कुछ लोग लोन के लिए विचार – विमर्श कर रहे थे,,,,तभी उनके केबिन में  एक रौबदार व्यक्ति ने प्रवेश किया,,,उनकी उम्र लगभग 65वर्ष थी,,,गोर रंग ,,तगड़ा बदन,,बड़ी-बड़ी मूँछे,,,

आ कर बैठ गए,,जब काफी समय हो गया तो पास बैठे एक व्यक्ति से बोले,”अब कहा बतायें,जब शेर बकरिया बन जाये तो कोऊ नई पूछ्त। “

उनकी इस बात ने पापा का ध्यान आकृष्ट किया,,,बतायें क्या काम है आप को,,

वो बोले,,,मुझे एफ डी  करानी है ,,

पर पापा ,,उनके द्वारा कहे गए शब्दों का मतलब जानने को उत्सुक थे ,,

पूछने पर बताया,,,साहब पहले बागी थे तो सब जगह काम हाथोंहाथ हो जाता था ,,,अब साधारण जीवन जी रहे हैं,,,तो  वो रुतबा भी नहीं रहा ,,,

पापा ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसा नहीं है,,,सब को पर्याप्त वक़्त देना होता है

पापा को डाकुओं के जीवन के बारे में जानकारी लेने की बड़ी दिलचस्पी थी,,,उन्हीं दिनों पुतलीबाई फिल्म काफी हिट हुई थी,,,वह भी बातें दिमाग में थी कि सच में इनका जीवन होता कैसा है,,,

वो हाथ आये मौके को खोना नहीं चाहते थे,,,तुरंत  कहा कि आप मुझे अपनी पुरानी ज़िंदगी के बारे में कुछ बतायें,,,

तब उन्होनें बताया,,,बहुत मुश्किल जीवन है,,न सर्दी से बचाव का कोई साधन था ,,,बस आग जला कर ताप लेते थे,,,बारिश से बचने का एकमात्र सहारा पेड़ ही थे,,,वो भी बहुत कम थे,,,छोटे कंटीले वृक्ष और झाड़ियां ही ज्यादा होतीं हैं वहां,,,धरती पर सोना,,जंगली जानवरों और सांप बिच्छु का डर अलग ,,

पुलिस पीछे पड़ी रहती थी ,,बस भागते ही रहते,,,,कई बार तो महीनों पुलिस घेरा डाले रहती,,,तब खाने के भी लाले पड़ जाते,,मिल जाये तो बाजरे की रोटी घी में डुबो कर खाते और न मिले तो पत्ते और जड़ें ,,,

साहब ,,एक बार तो पानी नहीं मिला दो दिन तक ,,,पुलिस अन्धधुन्ध फायरिंग कर रही थी,,,खोह में से निकल ही नहीं पा रहे थे,,,गोलियाँ साँय-साँय करती बगल से निकल जाती,,,तब रूमाल से पसीना पोंछ कर मुंह में निचोड़ कर जान बचाई,,,,

जो रुपया पैसा पास था उसे एक जगह छुपा दिया,,,और निशानदेही के लिए एक बड़ा सा पत्थर रख दिया,,,

कुछ दिनों बाद जब उस सामान को लेने गये तो वह जगह मिली ही नहीं,,,,सारे टीले एक जैसे ही तो दिखते हैं न ,,

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तब लगा ,,,परिवार और समाज में रहने का जो सुख है ,,,,वो कहीं नहीं है और तब से गाँव में खेतीबाड़ी करते हैं और चैन से रहते हैं ,,

पापा का मन अभी भी बहुत कुछ जानना चाहता था,,पूछा,,तो फिर तुम बागी बने क्यों,,,

बोले,,क्या बताएं साहब गुस्से को काबू में नहीं रख पाए,,उसकी सज़ा भुगती हमने,,,हमारे खेत में पड़ोसी ने जानबूझ कर अपने जानवर घुसा दिये,,,जब हमने कहा,,तो गाली गलौच करने लगा,,,बहुत समवाई करी हमने,,,वो चढ़ा ही जा रहा था,,,फिर क्या आवेश में उठाई बन्दूक और पूरी गोली उतार दी सीने में,,,

और भाग गये बीहड़ में,,,अब एक तो पुलिस का डर,,,दूसरे दुश्मन घात लगाए बैठा था तैयार,,,मारने  को ,,

फिर जी कड़ा किया और आपस में समझौता कर के अपनी गलती का प्रायश्चित किया,,,अब चैन की ज़िंदगी जी रहे हैं,,

समाजसेवा और वृक्षारोपण को जीवन का लक्ष्य बना लिया है,,अगर कोई युवा भटकता दिखाई देता है तो उसे समझाते हैं कि कानून के रास्ते पर चल कर ही न्याय मिल सकता है,,,खुद कानून को  हाथ में न ले,,,

किसी भटकते युवा को सही रास्ता दिखाकर कर सच में बड़ा सुकून मिलता है।

कमलेश राणा

ग्वालियर

 

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