दूसरों में नहीं खुद में खुशियाँ ढूढ़ें… – संगीता त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

पार्क में घूमते रजनी की निगाहें बेंच पर बैठी अपने में गुम महिला पर पड़ी…,कानों से इयरफोन हटा कर उसने गौर से देखा चेहरा कुछ पहचाना सा लगा, दिमाग पर जोर डाला,पर कुछ याद नहीं आया…., रजनी अपना वाक पूरा कर उस महिला के बारे में सोचते घर की ओर चली गई….।
घर में भी उस महिला का चेहरा जेहन में उभरता रहा, अचानक याद आया ये तो लता है, उसके क्लास की सबसे तेज और सुन्दर लड़की थी…।

अगले दिन रजनी बेसब्री से शाम होने का इंतजार कर रही थी, दिन भर लता की बात ही याद आती रही.., शाम होते ही रजनी आज समय से पहले ही पार्क पहुँच गई, उस बेंच पर निगाह डाली, जहाँ कल लता बैठी थी, खाली थी।

“हे भगवान, आज भी लता जरूर आये,”मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रजनी वाक करने लगी, बार -बार बेंच पर नजरें पड़ती रही, बेंच खाली ही दिखी , निराश हो रजनी अपना वाक अधूरा छोड़ कर उसी बेंच पर बैठ गई, वो बेंच पार्क के साइड में इस तरह था कि पार्क की पूरी गतिविधि उस पर बैठ देखी जा सकती थी…।

 तभी धीमी चाल से लता उसी बेंच की ओर आती दिखी, रजनी एक किनारे खिसक ली, लता बेंच पर बैठ गई, आपस में नजरें मिली तो रजनी बोली,”लता, पहचाना मुझे..”

“तुम रजनी हो….. कितनी बदल गई…कितनी स्मार्ट हो गई हो.. पहले जैसे गोलू -मोलू नहीं हो…” कहते रजनी के गले लग गई .।

“पर लता, तुम तो बिल्कुल भी पहचान में नहीं आ रही हो, ये उलझी लटें, अस्त -वस्त साड़ी, चेहरे पर असंख्य झुरियां….., मै तो तुम्हे कल देख कर भी पहचान नहीं पाई,ये हमारी सुन्दर सहपाठी लता है..”रजनी ने कहा तो लता के होठों पर फीकी मुस्कान उभर आई…।

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“चल छोड़ ये सब… यहाँ कब आई, कहाँ रहती हो..बच्चे कैसे है, इससे पहले जब मै मायके गई थी तब तू वहाँ मिली थी करीब बीस साल हो गये इस बात को….”रजनी ने उसकी फीकी मुस्कान देख बात पलट दी..।

“पार्क से बाहर निकलते ही उस लाल घर के बाद हमारा घर है, आ ना किसी दिन..”लता बोली

“किसी दिन क्यों अभी चलती हूँ,”रजनी बोली..
“हाँ चलो ना,”लता बोली, दोनों सहेलियां लता के घर चल दी।

दरवाजे का ताला खोल लता के साथ रजनी भी अंदर आ गई… घर बहुत सजा -संवरा था, थोड़ी देर में लता के पति सुदर्शन जी भी आ गये, रजनी को नमस्ते कर अपने कमरे में चले गये… ना लता ने उनसे कुछ पूछा ना उसके पति ने लता से कुछ माँगा…लता चाय बना लाई., रजनी बोली “जीजा जी को भी बुला ले यही चाय पिएंगे…।”

“छोड़ ना, वे अपनी मोबाइल के साथ ही चाय पीते है, उनका कहना है, ऑफिस के कामों से थकने के बाद उनका बात करने का मन नहीं होता है “लता ने उदासी से बताया।

 रजनी ना मानी, समझ गई यहाँ सब अपनी खोल में छुपे हुये है…,जा कर सुदर्शन जी को बुला लाई,थोड़ी देर वो अनमने रहे फिर रजनी और लता की बातों में रूचि लेने लगे…चुटकुलों का दौर, कॉलेज की बातें.. हँसी -ठहाके के बीच वे सब कुछ भूल गये , बेटे -बहू ने घर से बाहर ठहाके की आवाज सुनी तो घबरा कर अंदर आ गये, मम्मी -पापा को खिलखिलाते देख बेटे प्रतीक की ऑंखें भर आई, कब से घर में इसी खिलखिलाहट को मिस कर रहा था,..।

थोड़ी देर बाद, रजनी ने विदा मांगी और फिर आने का वादा कर घर आ गई….।

दूसरे दिन पार्क में लता पहले से ही बैठी उसका इंतजार कर रही थी..

रजनी उसे हाथ हिला कर वाक करने लगी, वाक पूरा करके ही लता के पास आई,
“तू, इतनी मेन्टेन और ऊर्जा से भरी कैसे हो.., हरदम खुश रहती है, तेरी आँखों की चमक बता रही तू बहुत सुखी है ..”लता ने पूछा।

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“तू भी मेरी तरह ऊर्जावान और खुश हो सकती है, बेशर्त हर परस्थिति में हौंसला रख…”रजनी बोली…

“और हाँ, अपने कपड़े और शरीर पर ध्यान देना जरुरी है, माना हमारी उम्र हो गई पर शौक जिन्दा है, जीने के लिये शौक रखना जरुरी है, ये सोच लेना,..”रजनी ने लता को समझाते हुये कहा…।

“अब क्या खुशियाँ… खुशियों की तलाश भी खत्म हो गई, जीवन में ही क्या बचा है…”लता बोली..।

“खुशियों की परिभाषा बदल दो तो सारी खुशियाँ दिखाई देगी .., तू अच्छे से तैयार होकर रहो तो अपने मन को भी अच्छा लगता है..,”समझाते रजनी बोली।

 “तुझे सब कुछ अच्छा मिला है, इसलिये तू ऐसा कह रही…,”लता ने कहा.।

रजनी गंभीर होते बोली “, लता, दूर से सबकी जिंदगी अच्छी दिखती है, ये मानव स्वभाव है उसे अपनी खुशियाँ कम दूसरे की ज्यादा दिखती है, पर संघर्ष सबकी लाइफ में आता है, बस नजरिये की बात है कौन उस संघर्ष को हँस कर जीतता है कौन रो कर….,।

मेरी जब शादी हुई थी, मै अपने पति को पसंद नहीं थी, हमारी पीढ़ी में तो माँ -बाप के पसंद से ही विवाह होते थे, पति गोरे -चिट्टे सुन्दर थे और मै साँवली -सलोनी…, सास ने मेरी सीरत देख कर पसंद किया था लेकिन बेटे को सीरत नहीं सूरत से प्यार था,पति की उपेक्षा देख कर परेशान होती थी, किसी को कुछ कह नहीं पाती थी, मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता था, ना मेरा किसी से बात करने या मिलने -जुलने का मन करता था,ये देख मेरी माँ ने मुझसे वज़ह पूछी,
“माँ भगवान ने मेरे हिस्से में खुशी क्यों नहीं लिखी..”मैंने माँ से पूछा।

“बेटा, भगवान ने सबके हिस्से में सुख और दुख बराबर लिखा है,किसी बड़ी खुशी के इंतजार में छोटी खुशियों को मत खो, खुशी से देखेगी तो रेगिस्तान में भी तुम्हे हरियाली दिखेगी, नहीं तो फूलों के बाग़ भी शूल की तरह देखेंगे…,और दूसरों से खुशी की उम्मीद ना कर अपने में खुशी ढूढ़…,तू वो काम कर जो तुझे अच्छा लगता है, दूसरे क्या कहते है, क्या करते है उसे छोड़ दें…”

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माँ की बात का मर्म मै समझ गई, पता है उसी दिन मै अपनी किताबें खरीद लाई, घर के काम के बाद पढ़ने में वक्त बिताने लगी, कभी पड़ोस में गप्पे मारने तो कभी शॉपिंग कर आती थी किसी सहेली के साथ…मनपसंद संगीत सुनने में अपने को व्यस्त कर लिया,. अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देने लगी, कोई भी मिले पर मै अपना वाक बीच में नहीं छोड़ती.. तूने देखा होगा…,मैंने अपनी खुशियाँ तलाश ली और खुश रहने लगी, मेरे सकारात्मक होते ही घर में भी परिवर्तन आने लगा, अब पति को मेरी अहमियत समझ में आने लगी थी,.. धीरे -धीरे ही सही मैंने खुश रहना सीख लिया… “रजनी ने अपनी बात खत्म की तो लता बोल उठी,

 .”तू ठीक कह रही रजनी, मैंने भी अपने को खोल में बंद कर लिया, खुश नहीं थी और खुशियों का इंतजार कर रही थी, कब समय बदलेगा… पति के साथ संवाद ना के बराबर होता था, मै अपने में सिमट गई वे और व्यस्त होते गये, बच्चों की अपनी दुनियां…. मै भूल गई मेरा अपना भी वजूद है…., खुशियाँ तो आस पास है है बस जरूरत है उन्हें पहचानने की…!!”

दोस्तों छोटी -छोटी खुशियाँ तो आस -पास ही रहती है पर हम बड़ी खुशी की तलाश में उसे खो देते है ..,दूसरों में अपनी खुशियाँ ढूढ़ने की अपेक्षा स्वयं में खुशी ढूढ़े…।मन उदास हो तो वो करें जो आपको अच्छा लगता हो या खुशी मिले .. कोई और आपके लिये खुशियों की सौगात तब तक नहीं ला सकता जब तक आप स्वयं खुश होना नहीं सीखेंगे…।


—संगीता त्रिपाठी

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