सिंदूर की डिबिया – कविता झा ‘अविका’ : Moral Stories in Hindi

ठक ठक ठक की लगातार आती आवाज से सुधा की धड़कनें चलती ट्रेन की तरह धड़क रही थी। दो दिन हो गए थे उसके पति सुबोध को घर से गए हुए।

 घर में दिवाली की तैयारी के लिए मरम्मत का काम चल रहा था। मजदूर मिस्त्री को पैसे देने थे और करवा चौथ के लिए सामान भी खरीदना था दो दिन से टाल रही थी पर आज अगर सुबोध नहीं आए तो क्या करेगी? यही सोचकर उसका मन घबरा रहा था।

इस बार करवा चौथ पर अगर नई साड़ी ना भी मिली तो वह शादी का जोड़ा ही पहन लेगी पर और भी तो कई खर्चे हैं।

 सुबह पूजा करते वक्त उसके हाथ से सिंदूर का कीया ही गिर गया था और सारा सिंदूर जमीन पर फैल गया था। उसने अपने आंचल से उसे समेट तो लिया पर तब से उसे लग रहा था कि उसके पति को कुछ हुआ तो नहीं है‌। उसका जी घबरा रहा था। उसका फोन भी नहीं लग रहा था। 

सुबह घर से निकलते वक्त सुधा को बांहों में भरकर बड़े प्यार से देखते हुए सुबोध ने कहा था… 

“शाम को डिनर करने बाहर चलेंगे और वहीं से शॉपिंग मॉल भी चलेंगे जो सामान चाहिए होगा ले लेना।”

“अभी ज्यादा खर्च मत कीजिए घर की मरम्मत में कितना खर्च होगा आप अभी मजदूर मिस्त्री को देने के लिए ही पैसे रखिए। मैं तो हर साल नई साड़ी लेती ही हूं इस बार अपना शादी का जोड़ा पहन लू़ंगी। अपने इस पुराने मकान में  जो टूट-फूट है उसे ठीक कराना बहुत जरूरी है। अपने बच्चे बड़े हो रहे हैं उनके लिए अलग कमरा भी तो बनवाना है।”

“सब हो जाएगा तुम चिंता मत करो।”

“आप बस फिजूल खर्ची करना बंद कीजिए।”

“तुम मेरी लंबी उम्र के लिए पूरा दिन व्रत रखोगी और मैं तुम्हारे लिए कुछ ना करूं।”

“आपका प्यार ही चाहिए मुझे। बस आपके नाम का सिंदूर हमेशा मेरी मांग सजाए रखे।”

सुबोध एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था। उसकी आमदनी से बड़ी मुश्किल से घर चलता था। वो कई साल से सोच रहा था अपने घर को ठीक करवाने का पर पैसों का इंतजाम ही नहीं हो पाता था। उसके दोस्त ने उसे एक आदमी से मिलाया जो उसकी मदद करने को तैयार था। 

“बस ये समान तुम्हें दिल्ली के इस पते पर पहुंचाना है और उसके बदले दो लाख मिलेंगे।”

“इतने छोटे से काम के इतने पैसे। पर यहां से दिल्ली आने जाने में ही दो दिन लग जाएंगे।”

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“ये जरूर कोई गलत समान होगा। आप मना कर दीजिए।” सुबोध ने जब सुधा को बताया तो उसने कहा था…

” आप मेरे गहने बेच दीजिए पर ये काम मत कीजिये।”

“अरे! कुछ नहीं होगा। तुम ऐसे ही डर रही हो। तुम्हारे पास गहनों के नाम पर बस ये मंगलसूत्र और कान की बालियां ही तो हैं ये कैसे बेच दूं। जब मैं तुम्हारे लिए गहने ला ही नहीं सकता।”

“मेरा शृंगार मेरा गहना आप ही हैं।”

 

“अच्छा ठीक है नहीं करूंगा वो काम, उसके  लिए मुझे शहर से बाहर जाना होगा। बस दो दिन बाद आ जाता पर तुम कह रही हो तो नहीं जाऊंगा। कुछ और इंतजाम करता हूं पैसों का। तुम काम रुकने मत देना।”

***

“बहन जी हम लंच करने जा रहें हैं। पैसे दे दीजिए दो दिन की मजदूरी भी नहीं दी है आपने।”

“भईया कल दे दूंगी।”

“नहीं…  हमें अभी चाहिए हम और काम नहीं करेंगे।”

उसने बच्चों की गुल्लक तोड़ी और भगवान के मंदिर में रखे पैसे इकट्ठे कर मजदूर मिस्त्री को दे दिए।

खुद मंदिर में आकर बैठ गई। 

भगवान मेरे सुहाग की रक्षा कीजिए, मेरे सिंदूर का मान रखिए। इन्हें सही सलामत घर भेज दीजिए।

अगले दिन करवा चौथ का व्रत किया। तीन दिन से उसके पति का ना तो कोई फोन आया था और ना ही उनके बारे में उनके किसी दोस्त को पता था।

कहीं वो स्मगलिंग के समान के साथ पकड़े तो नहीं गए। मेरी कसम खाकर कहा था वो काम नहीं करेंगे लेकिन उन्होंने मेरी कसम तोड़ दी। 

उसके मन में यही चल रहा था। बच्चों को अकेली कैसे संभालेगी यही सोचकर वो और अधिक घबरा रही थी। उसका सिंदूर उसके बच्चों के पिता उन्हीं से तो उसकी पहचान है।

शाम को पूजा कथा के बाद जब चांद देख पति के हाथ से पानी पी व्रत पूरा करना था तब भी उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। 

भगवान ने उसकी प्रार्थना सुन ली थी और उसका व्रत सफल रहा। सुबोध तीन दिन बाद घर लौट आया था। उसके लिए उपहार के रूप में सिंदूर की चांदी की डिबिया और बनारसी साड़ी लाया था।

सुधा सुबोध को घर आया देखकर भगवान को मन ही मन धन्यवाद दिया और उसने जब देखा डिबिया चांदी की है और  साड़ी बहुत मंहगी वाली है तो उसने लेने से मना कर दिया था।

“तुमने मेरी झूठी कसम खाई और स्मगलिंग के पैसों से तुम मेरे लिए उपहार लाए हो और ऐसे पैसों से बने घर में भी एक पल नहीं रहूंगी।”

“सुधा मैंने वो काम नहीं किया था, मुझे अचानक गांव की जमीन का ध्यान आया। चाचाजी का फोन आया था कुछ लोग हमारी जमीन पर कब्जा कर रहें हैं इसलिए उसे बेचना ही सही होगा। ये सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि मैं तुम्हें बता नहीं पाया। ये पैसे गलत नहीं है मेरे हिस्से की जमीन के ही पैसे हैं। जिनसे हम अपना घर सजाएंगे और तुम्हारे लिए ये छोटा सा उपहार लाया हूं।”

“मुझे माफ कीजिएगा मैंने पता नहीं क्यों ऐसा सोच लिया था कि आपने मेरी झूठी कसम खाई।”

सुबोध ने सुधा की मांग उस चांदी के कीए से सिंदूर निकाल कर भर दी।

“पति-पत्नी का रिश्ता विश्वास की डोर पर ही टिका होता है। इस डोर को डगमगाने मत दीजिएगा।” सुधा ने सुबोध से कहा और उसके आगोश में समा गई।

रचनाकार– कविता झा ‘अविका’, रांची झारखंड 

ये कहानी पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित है जो सिर्फ बेटियां मंच के साप्ताहिक विषय सिंदूर पर लिखी गई है।

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