“गोमती को वादा किया था मैंने,इस बार मंगलसूत्र के लॉकेट को थोड़ा और वजनी कर दूंगा।पता है माधवी,कितना वजन बढ़ाने को कहा था उसने?अपने माथे की बड़ी सिंदूरी बिंदी जितना।करवा चौथ तक रुक नहीं सकती थी क्या तुम्हारी आई?ऐसे बिना मुझसे बोले तो कभी ,कहीं नहीं जाती थी।इस बार कैसे चली गई?वो भी हमेशा के लिए।”पुष्पेन्द्र जी अपनी बहू के हांथ में सोने का लॉकेट देते हुए रो रहे थे।आज देखते-देखते नौ दिन हो गए।श्राद्ध दो दिन बाद ही है।
पैंतालीस सालों का साथ था, पुष्पेन्द्र जी और गोमती जी का।तीन बेटियां और एक बेटे को जन्म देकर,भरपूर संस्कारों से पाला था गोमती ने।पति के रूप में पुष्पेन्द्र जी ने भी अपना दायित्व निभाया था,पर परिवार को सुचारू रूप से चलाया गोमती ने ही था।सरकारी नौकरी से रिटायर होकर गोमती जी को एक घर बनवा दिया था पुष्पेन्द्र जी ने।तीनों बेटियों को इंजीनियर और बेटे को डॉक्टर मां ने ही बनाया था।अपनी इच्छाओं को सीमित करके थोड़े में ही खुश रहती थी
गोमती।गहनों का कोई विशेष शौक नहीं था उन्हें।ऐसा नहीं कि पति ने कुछ बनवाकर नहीं दिया,पर जब श्रृंगार की बात आती ,तो वहीं पुराने दो झुमके,चार सोने की चूड़ियां और महाराष्ट्रीयन मंगलसूत्र ही पहनती।पति ने कितनी बार टोका”हर साल तुम्हारे जन्मदिन,विवाह की सालगिरह,धनतेरस और करवाचौथ में जो -जो दिया है,उन्हें कब पहनोगी,गोमती?अब तो पहन लिया करो।कोई नया बहाना सोच लिया है क्या तुमने,नहीं पहनने का?”
गोमती जी हंसकर कहती”क्या जी,गहने देकर अब ताने दे रहे हो।मैंने कभी मांगा है आपसे कुछ?मेरा सबसे मंहगा जेवर तो मेरे माथे पर सिंदूर की यह गोल बिंदी और मांग में आपके नाम का सिंदूर है।मुझे इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं चाहिए।आप बनवाकर देते रहे,मैं रखती रही बचाकर बेटियों के ब्याह के लिए।
पता नहीं कब बुरा वक्त आ जाए,तो यही जेवर काम आएंगे,यही सोचकर पहन नहीं पाई।अब बेटियों की शादी भी आपने बड़े धूम-धाम से कर दी।मेरे जेवरों की जरूरत ही नहीं पड़ी।अब देखिए, उम्र भी तो हो गई मेरी।अब इतने भारी जेवर पहनूंगी,तो लोग हंसेंगे मुझ पर।बस अब दीपक(बेटे) की शादी हो जाए।बेटियों के बच्चों के मुंह दिखाई में सोना दे सकूं,बहू को दे सकूं और अपने पोते-पोतियों को दे दूं,फिर फुर्सत में जरूर पहनूंगी सारे गहने।”
“तुम भी ना गोमती,हद करती हो।दो बेटियों के बच्चों का मुंह तो देख लिया ना सोना देकर।रीना(छोटी बेटी)भी एक महीने में मां बन जाएगी।मैं पिछले महीने ही तो बनवा लाया उसके बच्चे के लिए करधनी,तो तुम्हें किस बात की चिंता है?दीपक की शादी के लिए भी तुमने ही पहले से मुझे बोलकर बनवा कर रख ली हो।अब भी तुम्हारी चिंता खत्म क्यों नहीं होती?”पुष्पेन्द्र जी नाराजगी दिखाते हुए बोले।
गोमती जी मग भर कर चाय देती हुई बोलीं”हां-हां,झूठी तारीफ भी नहीं कर सकते मेरी,कि मैंने आपको हमेशा सतर्क कर के रखा है। बोल-बोल कर बनवा ली,तभी इतने निश्चिंत हो पाए हों,नहीं तो बौराए घूमते।बस अब दीपक की शादी हो जाए।सुबह से नहा धोकर गहनों से लाद लूंगी ख़ुद को और इस बड़े घर में ,तुम्हारी नज़रों के सामने डोलती फिरूंगी।”
“पति की कमजोरी पकड़ना खूब आता है तुम्हें ना,चाय देकर सब अपने मन का करवा लेती हो।”पुष्पेन्द्र जी खिसियाकर बोले,तो गोमती जी भी हंसने लगी।
दीपक की नौकरी लग गई थी।एक दम से दूसरे राज्य में जाकर कैसे रहेगा बेटा,यही चिंता खाए जा रही थी।पति से बोला था उन्होंने”चलो जी,साथ में चलकर उसे सैटल कर देतें हैं।नागपुर से सीधा शहडोल(मध्यप्रदेश)जा रहा है।कहां है नौकरी, क्वार्टर कैसा है?देखना तो पड़ेगा ना?”
पुष्पेंद्र जी ने समझाया था उन्हें कि अभी नहीं,पहले वह कमरा ले ले फिर चलेंगें।छह महीने बाद ही बेटे के पास आकर रह गए थे दोनों पति-पत्नी।अच्छी कॉलोनी थी, क्वार्टर,नौकर सब मिल गया था।दोनों वापस चले गए अपने घर।अब गोमती जी का अगला मिशन था ,बेटे की शादी।वह भी पक्की हो गई।रायपुर की लड़की थी।
स्किन स्पेशलिस्ट।शादी के बाद बेटे के अस्पताल में ही नौकरी मिल गई थी बहू(माधवी)को।नई बहू के साथ उसकी गृहस्थी बसाने आए पुष्पेन्द्र और गोमती जी,जो बेटे के पास आए तो फिर नागपुर जा ही नहीं पाए।कोविड के लॉक डाउन ने अटका दिया था।गोमती जी को कोविड भी हो गया दोनों बार।दृढ़ इच्छाशक्ति की धनी गोमती जी स्वस्थ हो गईं थीं।इसी बीच उनकी एक बेटी(मंझली)भी कोविड का शिकार होकर चल बसी।नागपुर का घर कब से खाली ही पड़ा था।दीपक का बेटा (अगस्त्य)हुआ ,तो उसे संभालने की जिम्मेदारी ले ली गोमती जी ने। पुष्पेंद्र जी चिढ़ाने के लिए कहते”तो कब जाना होगा गोमती जी,अपने घर?”वो चिढ़कर बोलतीं”क्या जी,पोते को छोड़कर अभी कैसे जा सकते हैं?”
बेटे की गृहस्थी संभालते-संभालते अब गोमती जी वहीं की होकर रह गई।दो साल बाद पोती का जन्म हुआ।गोमती जी हंसकर अब अपने दादी होने का दायित्व निभा रही थीं।उनके संस्कारों की जमीन पर पोते-पोती भी फलने-फूलने लगे। अगस्त्य तो आजी के बिना खाना भी नहीं खाता था।हां पोती ने आजा(दादाजी)पर कब्जा कर लिया था।
बेटा (दीपक)राम से कम नहीं था।हफ्ते भर जहां-जहां सब्जी मंडी लगती,आई को स्कूटर पर बिठाकर ले जाता था।आई (गोमती) भी बेटे की पसंद की सब्जियां,कभी गेहूं,कभी फुल्की,कभी समोसे खरीदती रहीं।जो नहीं बदला वह था उनके माथे की बड़ी गोल ,लाला सिंदूरी बिंदी और जगमगाता मांग का सिंदूर।
पहले तो दीपक के कमरे में दीवार पर भगवान जी रखें थे,शादी के बाद अपने कमरे की दीवार में टी वी के ठीक ऊपर टांग दिया था मां लक्ष्मी और विष्णु जी को।टी वी वाले टेबल पर ही अक्सर वे भगवान को चढ़ाने के बाद सिंदूर की डिबिया रख देतीं। पुष्पेंद्र जी गर्मियों में रात को अपनी बनियान उसी टेबल पर रखते।हर सुबह उनकी बनियान में कहीं ना कहीं सिंदूर लग ही जाता था।
गोमती जी जब दिखातीं उन्हें सिंदूर के दाग़,तो चिढ़कर कहते”तुम्हारी आदत कभी बदली है भला।”
“हां तो, आपकी बनियान उतार कर उसी टेबल पर रखने की आदत कब बदली है?”गोमती जी सपाट स्वर में कहतीं।एक दिन माधवी की बात अनजाने ही गोमती जी ने सुन ली।दीपक से कह रही थी”दीपक,बाबा के बनियान देखें हैं आपने।हर बनियान में ठीक सीने की जगह सिंदूर के दाग़ लगें हैं।क्या अब भी आई बाबा के सीने में सर रखकर सोतीं होंगी?
“दीपक ने तो डांटकर चुप करा दिया उसे,पर गोमती जी शर्म से लाल हो गईं।रात को टेबल पर बनियान रखते समय पुष्पेन्द्र जी को सिंदूर की डिबिया नहीं दिखी,तो उन्होंने हैरान होकर गोमती की ओर देखा।वे अब भी लजा रहीं थीं। पुष्पेंद्र जी ने पास आकर जब पूछा तो उन्होंने बहू की जिज्ञासा बताई।
पुष्पेंद्र जी गंभीर होकर बोले”अरे,इतना बड़ा इल्ज़ाम जब लग ही गया है हम पर,तो आज से तुम ऐसे ही सोना।मैं देखना चाहता हूं,क्या वाकई में तुम्हारी बिंदी या मांग से सिंदूर बनियान में लग सकता है ?”
गोमती जी गुस्कार बोलीं”सत्तर पार कर चुकें हैं दीपक के बाबा,कुछ तो लिहाज करिए।बहू का बचपना है,तो क्या तुम बच्चे बन जाओगे?मुझे मुंह दिखाने लायक भी नहीं रखोगे क्या?”गोमती जी छिटककर दूर पलटीं और सो गईं। पुष्पेंद्र जी ठहाका मारकर हंस दिए।बाप रे!अभी भी इतना लजा सकती है ये।इस मासूमियत पर उन्हें और प्यार आ गया।
सुबह ही दीपक और माधवी से कहा “इस बार करवा चौथ में तुम्हारी आई के मंगलसूत्र का लॉकेट बदलकर,कुछ और सोना मिलाकर गोल टिकुली बनवाने की सोच रहा हूं।उसकी बहुत सालों पहले की फरमाइश थी,इस बार पूरी करूंगा।हम कब चल सकते हैं शहर बेटा?”
बाबा का आई के प्रति प्रेम और समर्पण अब भी वैसा ही निश्छल है,सोचकर दीपक मुस्कुरा दिया और बोला”संडे को चलतें हैं बाबा।मुझे भी तो मैडम(माधवी) को गिफ्ट देना है।”वे बोलें”हां -हां अभी से सोचना शुरू कर लें,क्या देगा माधवी को?तेरी आई की तरह ये भी ना बन जाए कि बाद में पहनूंगी।”सभी हंस दिए तो गोमती जी आकर बोलीं”मुझसे छिपाकर किस बात पर हंसा जा रहा है बाबा?”माधवी ने मां के गले में बांहें डाल दीं और बोलीं”सरप्राइज है आई सरप्राइज।हमें भी नहीं पता।इस रविवार हम शहर चलेंगे।हम दोनों की छुट्टी रहेगी।आप लिस्ट बना लीजिएगा, क्या-क्या लेना है पूजा के लिए”
गोमती तो भूल ही गई थी,तुरंत बोली”हां -हां,मैं कैसे भूल गई कि कितनी तैयारी करनी है?भगवान जी के आसन के लिए नए कपड़े भी लेने हैं।सिंदूर भी लेना है ज्यादा करके।बहुत सारे व्रत -पूजा आएंगे अभी तो।”सिंदूर खरीदने की बात सुनकर माधवी और दीपक नजरें चुराकर हंसने लगे,और यहां गोमती जी ने पुष्पेन्द्र जी की आंखों में भी चमक देखी।वे वहां से रसोई में चली गईं।मन ही मन बड़बड़ाने लगीं वे।ये बुढ़ऊ भी सठिया गएं हैं पूरे।बच्चों के सामने ऐसे देखने की क्या जरूरत थी?
रविवार आ ही नहीं पाया।शनिवार को पीठ में दर्द की बात बताई , उन्होंने दीपक को।शाम पांच बजे बेटे-बहू के साथ कार में बैठकर चेक-अप करवाने जो अस्पताल गईं वे,फिर वापस उनकी मृत देह ही आ पाई।सीवियर अटैक हुआ था।मौका ही नहीं मिला डॉक्टर बेटे-बहू को कि कुछ कर पाते।रात नौ बजे उनके प्राण निकले। पुष्पेंद्र जी सुनकर रो ही नहीं पाए।
उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो पा रहा था।गोमती ने वास्तव में अचंभित कर दिया था पुष्पेन्द्र जी को।ज़िंदगी भर एक हांथ में पानी का गिलास और दूसरे हांथ में उनकी दवाइयां लिए इस कमरे से उस कमरे भागती रहतीं थीं। बच्चों को ज़रा सी छींक भी आ जाए,तो अपनी घर वाली दवाइयों के बारे में विशिष्ट ज्ञान देकर पीछे पड़ जाती थीं।आज बिना किसी की सेवा लिए,माथे पर गोल टिकुली और मांग में सिंदूर सजाकर उसने दुनिया से विदा ले ली।ईश्वर उसे अपने श्री चरणों में स्थान दे।।घर पर मिलने आने वालों से शांत होकर मिल रहे थे पुष्पेंद्र जी।
श्राद्ध के लिए माधवी से सामान की लिस्ट बनवाकर ,बेटे के साथ जाकर पूरा सामान खरीद लिया पुष्पेन्द्र जी ने।गोमती जी की आलमारी की चाबियां बेटियों और बहू को सौंप दी उन्होंने।बेटियां जाते समय पापा को ले जाएंगी,कह रहीं थीं।माधवी ने कहा अपनी बड़ी ननद से”बाबा आई को यहां छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे ताई।आप उनसे चलने के लिए मत कहना”
पुष्पेंद्र जी ने माधवी की बातों का समर्थन करते हुए कहा”अब मुझ अकेले को कहां चैन मिलेगा कहीं?यहीं पोते-पोती के पास ही रहूंगा,तो तुम्हारी आई भी खुश होगी।हां बेटा,मेरे जीते-जी,आई की आलमारी खोलकर गहने और साड़ियां आपस में बांट लो।उसकी आत्मा को मुक्ति मिलेगी।”
भारी मन से माधवी आई की आलमारी खोलकर ननदों को दिखा रही थी,तभी छोटी ननद कोने में रखी बाबा की कुछ सफेद बनियान दिखाकर पूछी बाबा से”आपकी बनियान आई कब से रखने लगी थी बाबा,अपनी आलमारी में?”पुष्पेन्द्र जी भी चौंककर बोले”अरे मैं कब से इन्हें ढूंढ़ रहा था,बताया भी नहीं तेरी आई ने मुझे।दिखा तो, दे मुझे।”
पुष्पेन्द्र जी जैसे ही बनियानों (बहुत सारे) की तह खोलने लगे,उनके सीने की जगह में लगा सिंदूर मानो जगमगा रहा था अब भी। पुष्पेंद्र जी को अपने बाएं तरफ गोमती के सिर रखे होने का आभास होने लगा।माधवी की बात सुनकर गोमती ने सिंदूर की डिबिया तो हटा दी थी टी वी वाले टेबल से,पर अपनी कसम देकर उन्हें अपने सीने को सिरहाना बनाने राजी कर ही लिया था पुष्पेन्द्र जी ने।ये सच में उसकी बिंदी या मांग का सिंदूर ही था बनियानों पर।
शुभ्रा बैनर्जी
VM