सफर शुरू होने से पहले ही अचानक नंदिनी की नजर अगली सीट पर बैठे शख्स की उंगलियों पर गई। लैपटॉप के कीपैड पर तेजी से चलती दाहिने हाथ की उंगलियां पांच की जगह छ: थी।
उस शख्स के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठी नंदिनी लैपटॉप के स्क्रीन पर खुली वाइल्डलाइफ का पेज साफ-साफ देख पा रही थी और उस शख्स के हाथ में पहना कड़ा और अंगूठे से जुड़ी वह छठी उंगली नंदिनी को कुछ जानी पहचानी सी लगी। लेकिन जेहन में जिस शख्स का चित्र उभरा उसके अपने आसपास मौजूद होने की कल्पना मात्र से ही वह असहज हो उठी। आखिर यह सारी निशानियां अचानक अगली सीट पर उसके कॉलेज के सहपाठी रघुवीर के मौजूदगी की आशंका को बल देने लगी।
नंदिनी को अच्छे से याद है वह अपने स्पेशल कैमरे से कॉलेज के कैंपस में घूम-घूम कर गिलहरियों और तरह-तरह के पंछियों की तस्वीरें उतारता फिरता था। कई बार तो उसने नंदिनी की खिलखिलाती-मुस्कुराती हंसती तस्वीरें भी चुपके से उतार ली थी। उन्हें तस्वीरों का एक खूबसूरत सा कोलाज बनाकर उसने उन दिनों नंदनी के जन्मदिन पर सरप्राइस गिफ्ट के तौर पर भेंट किया था।
लेकिन अपनी अगली सीट पर आज उसी रघुवीर के मौजूद होने की कल्पना मात्र से नंदनी घबरा सी गई। कई बार तो उसका मन हुआ कि दुपट्टे का घुंघट डाल ले लेकिन बगल की सीट पर साथ सफर कर रहा उसका पति सतीश क्या सोचेगा! यह ख्याल आते ही उसका यह विचार भी धरा का धरा रह गया।
अब तो ईश्वर से बस उसकी एक ही प्रार्थना थी कि उसके अगली सीट का यात्री चाहे जो भी हो रास्ते भर अपने वाइल्डलाइफ के साइट पर उलझा रहे और उसका स्टेशन भी नंदनी से पहले ही आ जाए ताकि वह नंदनी से पहले ही अपनी यात्रा पूरी कर उतर जाए।
“क्या सोच रही हो नंदू?”
सतीश की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ।
नंदिनी ने अपना सर ना में हिलाकर सतीश के कांधे पर टिका दिया।
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नंदनी को याद हो आया,..
लगभग आठ वर्ष पहले स्नातक फाइनल ईयर के अंतिम पेपर के बाद जब वह कालेज के सभी दोस्तों से मिलकर अलविदा कह रही थी, रघुवीर सबके सामने ही उसकी एक किताब वापस कर उसे बिना अलविदा कहे जल्दी में कहीं चला गया था।
वही उससे उसकी आखिरी मुलाकात थी। क्योंकि अगले दिन सुबह नंदिनी की घर वापसी के लिए ट्रेन का टिकट कंफर्म था और नंदिनी बराणसी से वापस अपने शहर लखनऊ आ गई थी।
लेकिन उन दिनों नंदिनी जब भी अपने पलंग के सिरहाने रखें रघुवीर द्वारा उपहार में दिए उस “कोलाज” को देखती,.पीछे छूट चुके वक्त और लम्हों को उस कोलाज की तरह अपने जेहन में शिद्दत से इकट्ठा करने की कोशिश करती। किंतु सब नाकाम क्योंकि उन यादों का कोई संपर्क-सूत्र या पता उसके पास नहीं था क्योंकि तब ना तो उसने मांगा और ना ही रघुवीर ने उसे दिया था।।लेकिन लिया जा सकता था,
इसका एहसास उसे कुछ महीनों बाद हुआ जब किसी अन्य परीक्षा की तैयारी करने के दौरान एक आलेख लिखने के सिलसिले में पुरानी किताबों को उलट-पुलट करती नंदनी की नजर इत्तेफाक से एक किताब के अंतिम पन्ने पर गई थी। नंदिनी को याद हो आया कि यह वही किताब थी जिसे कॉलेज के अंतिम दिन रघुवीर ने उसे वापस किया था। किताब के अंतिम पन्ने पर रघुवीर ने कुछ लिखा था शायद एक पत्र! नंदिनी ने उस पत्र को पढ़ा…
नंदिनी,
वक्त कैसे गुजरा कुछ खबर नहीं किंतु तुम जानती हो मैंने कभी कोई काम सोच समझकर नहीं किया और ना ही मुझे भूमिका बनाने या समझौता करने में कोई दिलचस्पी रही है। लेकिन आज मैं तुमसे दूर जाने का जो दर्द महसूस कर रहा हूं उससे समझौता कर सब कुछ तुम्हारे जवाब के इंतजार पर छोड़ता हूं।
अगर तुम्हारे दिल में भी कहीं जरा सा भी मुझसे बिछड़ने का दर्द महसूस हो रहा हो तो तुम मुझे बता दो! इस दोस्ती को उम्र भर निभाने का वादा कर मैं इस दर्द को तुम्हारे चेहरे की मुस्कान में बदलने की कोशिश करूंगा। और अगर तुम ऐसा कुछ भी महसूस नहीं करती हो तो जवाब देने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि उस सूरत में भी समझौता मुझे ही करना है।
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क्योंकि तुम्हारे संग बिताए खूबसूरत लम्हों को भूलने की कोशिश भी मुझे ही करना होगा।
रघुवीर।
पत्र काफी पुराना हो चुका था। जवाब देने का वक्त कब का निकल गया था। चाह कर भी कोई जवाब नहीं दिया जा सका।
“जाने क्या सोचा होगा रघुवीर ने!”
यह बात नंदिनी के जेहन में आई थी और कई बार आई थी।
आज वही रघुवीर शायद उसके ठीक अगली सीट पर बैठा था, किंतु नंदनी बात करें तो किस मुंह से! आज तो उसके दिल ने रघुवीर की नजरों से खुद को छुपाने तक की सलाह दे दी।
“नंदनी शायद तुम्हें नींद आ रही है।”
सतीश ने नंदिनी के गालों को थपथपाया।
“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।” आंखें बंद किए नंदिनी ने धीरे से कहा।
लेकिन अगली सीट पर बैठे शख्स का ध्यान आते ही उसने धीरे से आंखें खोली थी और उसकी नजरें अगली सीट पर बैठे उस शख्स की निगाहों से टकरा गई शायद वह उसकी आवाज सुनकर ही पीछे मुड़ा था।
उनकी नजरों का आपस में हुए उन चंद पलों की मुलाकात में ही नंदनी को पूरी तरह से तसल्ली हो गई कि वह रघुवीर ही है।
बस उसके चश्मे का पावर थोड़ा बढ़ गया था और चेहरे पर दाढ़ी मूंछ के बाल और घने हो गए थे शायद कुछ सफेद भी।
“इतने बरसों में मेरा चेहरा भी तो बदला है! हो सकता है उसने मुझे पहचाना ही ना हो।” खुद को तसल्ली देती नंदिनी ने आंखें मूंद फिर से सतीश के कांधे पर अपना सिर टिका दिया लेकिन अब इस सफर में वक्त काटना उसके लिए कठिन हो गया।
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वह मन ही मन उस वक्त को कोस रही थी जब उसने सतीश को #तेजस_एक्सप्रेस से दिल्ली से अपने मायके इलाहाबाद जाने की इच्छा जताई थी।
अचानक ट्रेन कुछ पलों के लिए रुकी। शायद गाजियाबाद आ गया था।
नंदिनी ने सतीश के कांधे पर सर टिकाए हुए ही अधखुली आंखों से देखा अगली सीट खाली थी। उसने चारों ओर नजर दौड़ाई लेकिन वह नजर नहीं आया।
“कुछ ढूंढ रही हो?”
सतीश ने मोबाइल से नजर हटा नंदिनी की ओर देखा।
“थोड़ी प्यास लगी थी।” नंदिनी ने नजरें झुका लिया मानो पकड़ी गई।
सतीश ने बिसलरी की एक छोटी बोतल उसकी और बढ़ा दिया।
ट्रेन खुल चुकी थी लेकिन अगली सीट का यात्री वापस नहीं आया। नंदिनी ने ट्रेन की खिड़कियों में लगे कांच से बाहर देख उसे ढूंढने की कोशिश की
लेकिन बाहर के नजारे से पहले कांच में नंदिनी को खुद की सूरत नजर आ गई। उसने महसूस किया इन बीते आठ वर्षों में उसकी सूरत में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है।
आगे की खाली सीट भी इस बात की गवाही दे रही थी कि कुछ देर पहले तक अगली सीट पर यात्रा करता सहयात्री इस सूरत को पहचान अपनी यात्रा शायद पिछले स्टेशन पर ही समाप्त कर चुका था।
बिना कुछ सुने,..बिना कुछ बताए।
नंदिनी पूरे सफर में सतीश के कांधे पर सर टिकाए सोचती रही,.
“काश मैंने उस पत्र को पढ़ा ही ना होता। कम से कम आज एक पुराने प्रिय मित्र से यूं अजनबी बन नजरें तो ना चुराना पड़ता।”
वह यह भी सोच रही थी कि,..
“काश रघुवीर ने वह पत्र लिखा ही ना होता।”
उसके संग जिंदगी भर का न सही लेकिन ये कुछ घंटों का सफर शायद एक यादगार सफर बन गया होता।
पुष्पा कुमारी “पुष्प”
पुणे (महाराष्ट्र)