हनी ने एयरपोर्ट पर भारी मन से अपनी मौम और डैड से हाथ हिला कर विदा ली। उनके एयरपोर्ट के भीतर जाते ही उसके मन का सारा संताप अश्रुधारा के रूप में उसकी आँखों की राह बह निकला। बड़ी ही मुश्किल से अपने आप को संयत कर वह एयरपोर्ट से बाहर आई। वहाँ से घर लौटते वक्त वह खिन्न मन सोच रही थी, “उफ, वक्त कितना अनिश्चित होता है। कब किस करवट पलट किसी को भी अबूझ, अनजानी डगर पर धकेल दे कोई नहीं जानता।”
आज से तीन महीने पहले आँखों मे आगत छुट्टियों के असंख्य खुशनुमा सपने सँजोए उसने अपने जन्मदाता की जन्मभूमि पर कदम रखा था। कितनी खुश थी वह तब। मनोविज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएशन करने के उपरांत वह रिसर्च कर रही थी। अभी पिछले माह ही अपनी थीसिस पूरी करते ही उसकी नौकरी अमेरिका की एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में लग गई।
उसे अपनी नौकरी तीन माह बाद शुरू करनी थी। ये तीन माह उसने अपने पिता की मातृभूमि इंडिया में बिताने की योजना बनाई थी। हनी के पिता भारतीय थे और माँ फ़्रांस की थी। अभी तक वह इंडिया नियमित रूप से हर वर्ष केवल क्रिसमस की छुट्टियों में उनके साथ आती रही थी। इंडिया में पूरी छुट्टियाँ पिता के रिश्तेदारों के साथ बिता भारतीय आतिथ्य सत्कार की ऊष्माभरी परंपरा का अनुभव करती रही थी।
साधु, संतों,पीर, बाबाओं का देश उसे सदा से लुभाता रहा था। विभिन्न, धर्मों, मतों, मतावलंबिओं, मंदिर, मजारों, कब्रगाहों को अपने आप में समेटे हुए इस रहस्यमय देश की समृद्ध विरासत एवं संस्कृति शुरू से उसके आकर्षण का केंद्र रही थी। इस लिए इस बार उसने तीन माह के भारत प्रवास की योजना बनाई थी। जिसके दौरान वह भारत को नजदीक से देखना चाहती थी, लेकिन उसे क्या मालूम था कि हालातों का सर्वथा नया मोड़ उसे इंडिया को सदा के लिए अपना निवास स्थान बनाने को मजबूर कर देगा।
वह दिन उसे भुलाए न भूलेगा जिस दिन उसे पता चला था कि उसके प्रिय पिता जो अभी तक उसके आदर्श थे, जिनके उच्च सिद्धांतों पर उसे बेहद फख्र था, वे एक निहायत ही कमजोर इंसान थे जिन्हौने स्वार्थ ओर एक स्त्री के प्रेमपाश के वशीभूत हो कर अपनी निर्दोष सहचरी और उसके दो दुधमुंहे बच्चों को बिना किसी अपराध के सदा के लिए त्याग दर दर की की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया था और फिर पलट कर उनकी सुध नहीं ली।
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वह क्षण उसके मानस में सदा के लिए अमिट हो गए, जब उसे अपने पिता के अपनी पूर्व पत्नी के प्रति किए गए विश्वासघात एवं छल की कहानी उसके सामने प्रकट हुई थी। और घोर निराशा और अवसाद के पलों से आंखमिचौली खेलते हुए कब वह विगत दिनों की सुखद यादों की पगडंडी पर भटक आई थी, उसे भान न हुआ था ।
इंडिया में कदम रखते ही वे मानो दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाते। उनका परिवार एक सुखी आदर्श परिवार था। प्रोफेसर माँ और प्रोफेसर पिता ने उसे और उसकी छोटी बहनों को बेहद लाड़ दुलार से पाला था। भारतीय पिता के लालन पालन में भारतीय संस्कृति का परिचायक अनुशासन के अंकुश ने उन दोनों बहनों को एक लक्ष्यपूर्ण जीवन की सौगात दी थी,
जिसने उन दोनों को कभी राह से भटकने नहीं दिया था। उच्च शिक्षित माता पिता के संरक्षण में दोनों बहनों ने उनकी तरह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना करियर बनाने का निर्णय लिया था। और दोनों ने ही आखिरकार कड़ी मेहनत और अभिवावकों के प्रोत्साहन और प्रेरणा से अपनी अपनी मंजिल पाली ।
बड़ी जेनी की रिसर्च पूरी हो गई थी और छोटी हनी की रिसर्च पूरी होने को थी। कि तभी क्रिसमस की छुट्टियाँ आ गई थी और पूरे परिवार ने ये अवकाश पिछले वर्षों की तरह इंडिया में बिताने की योजना बनाई थी।
ढेरों शौपिंग के लिए बाजार के चक्करों के बाद उनकी भारत यात्रा की तैयारी पूरी हुई, और आखिरकार वे सभी इंडिया पहुंच गए थे।
इंडिया में पहले तो उन्होने सुदूर केरल प्रांत के अपेक्षाकृत ऊष्म परिवेश में क्रिसमस बड़ी ही धूमधाम से मनाया था।और फिर पूरा परिवार वापिस दिल्ली आ गया, पिता के रिश्तेदारों के साथ दिन बिताने के लिए।
दिन हंसी खुशी बीत रहे थे चाचा, ताऊ, बुआओं के स्नेहिल सानिध्य में, कि तभी एक दिन देवयानी, उनकी सौतेली बहन ने उन दोनों को अपने यहाँ दोपहर के भोजन पर निमंत्रित किया, और वह निमंत्रण उसके जीवन में मानो भूचाल ले आया था।
देवयानी के यहाँ एक कृशकाय, वृद्धावस्था की दहलीज पर पाँव रखती सौम्य महिला को देख कर उसने उससे पूछा, “ये कौन हैं?” और जवाब में उनका उत्तर “मेरी माँ” सुनकर हनी मानो जीतेजी मर गई।
सुनने में शायद भूल हुई हो, यह सोच कर उसने देवयानी के समक्ष अपना प्रश्न दोहराया –“ये वृदधा कौन हैं?” और प्रत्युत्तर में “मेरी माँ” सुनकर हनी को लगा, मानो उसके पैरों तले जमीन नहीं रही थी, मानो उसकी सम्पूर्ण चेतना को लकवा मार गया था।
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उसने अपने पिता से सुना था कि उनकी पूर्व पत्नी से उनके दो बच्चे थे जो अपनी माँ की मृत्यु के बाद इंडिया में उनके पिता के घर पले बढ़े थे। लेकिन आज उनकी पूर्व पत्नी को अपने सामने जीवित देख कर वह बौखला गई। एक के बाद एक असंख्य प्रश्न उसके जेहन में कोंध उठे थे। तो पापा ने अपनी पहली पत्नी के रहते हुए उसकी माँ से विवाह किया था। आखिर क्यों? ऐसा क्या कारण रहा होगा
जिसने उसके पापा जैसे उच्च आदर्शों और सिद्धांतों वाले व्यक्ति को उन्हें तिलांजलि देने के लिए मजबूर किया होगा। क्या माँ से विवाह करने के पश्चात भी पापा ने उनसे रिश्ता रखा होगा? यह सब सोचते सोचते तनाव के अतिरेक से उसके स्नायु तन उठे थे और वह देवयानी के यहाँ से बिना खाना खाये घर लौट आई थी
जीवन के इस मर्मांतक रहस्योद्घाटन ने हनी की पूरी दुनिया उलट पुलट दी थी। उसके शांत, सुकून भरे जीवन का समीकरण गड़बड़ा उठा था।उसे लग रहा था मानो अभी तक वह एक झूठी दुनिया में जी रही थी जहां था तो सिर्फ धोखा, फरेब, और विश्वासघात। जिस पिता ने कभी उसकी उंगली थाम उसे चलना सिखाया था, उसे उच्च सिद्धांतों की थाती सौगात में दी थी, उन्हीं पिता ने उसे जीवन के इन नेगेटिव मूल्यों से रूबरू करवाया था। पिता का असली चेहरा देख वह भीतर ही भीतर टूट गई थी।
और तभी उसने अपने जीवन का एक अति महत्वपूर्ण निर्णय लिया था। घोर मानसिक यंत्रणा के दौर में उसने सोचा था, मुझे अपने पिता द्वारा किए गए विश्वासघात का प्रायश्चित करना होगा। मुझे अपनी बड़ी माँ के नैराश्य भरे जीवन में नई आशा और उत्साह का संचार करना होगाजिससे वह अपनी बाकी की जिंदगी सुकून से बिता सकें । यह सोच कर उसके विषादग्रस्त मन को तनिक सांत्वना मिली थी। और कब वह नींद के सुकून भरे आँचल में सिमट गई थी, उसे पता तक न चला था।
अगली सुबह अपने फैसले को कार्यान्वित करने का समय आ पहुंचा था। उसने इंडिया की कई नामचीन यूनिवर्सिटी में विजिटिंग फ़ैकल्टी के पद पर आवेदन कर दिया था। उसकी उच्चा शैक्षणिक योग्यता को देखते हुए अधिकतर यूनिवर्सिटी में उसकी नियुक्ति हो गई थी।
इन दो तीन माहों में वह अपनी सौतेली माँ के बहुत करीब आ गई थी। पिता के उन्हें छोड़ जाने के उपरांत कैसे उन्हौने अथक संघर्ष कर लोगों के कपड़े सिल कर और स्वेटर बुन कर दो नन्हें बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाई, यह सब सुन उसके रौंगटे खड़े हो जाते। और जन्मदाता के अपनी निरपराध पत्नी को बिना किसी दोष के छोड़ कर जाने के पाप का प्रायश्चित करने का संकल्प और मजबूत हो जाता।
वह अपनी सौतेली माँ को बड़ी माँ पुकारने लगी थी। उसने देखा था, जिंदगी की परेशानियों के भीषण झंझावात ने उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह से दबा दिया था। पूरे पूरे दिन वह मात्र वह घर के कामों में रसोई की दीवारों के मध्य दिन रात रूखा सूखा खा कर गुजार दिया करती थी। हर वक्त गायत्री मंत्र होठों ही होठों में जपती रहती थी।
इतने दिनों में उसने माँ को एक बार भी हँसते नहीं देखा था। हंसी खुशी जीवन बिताने का उत्साह मानो पूरी तरह से चुक सा गया था। और इस सरल हृदया इंसान की बरबादी का कारण मात्र और मात्र उसके पिता थे, यह सोच कर वह भीतर तक सिहर उठती।
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कई प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी में नियुक्ति के उपरांत ज़िदगी एक निश्चित ढर्रे पर चल निकली थी।अपनी व्यस्त दिनचर्या से बचा हुआ समय वह बड़ी माँ के साथ गुजारती । उनसे बातें करती, जिंदगी के कठिन संघर्ष की आंच में तपे हुए उनके व्यक्तित्व की परतों की भीतरी तहों में सैंधमारी की कोशिश करती। अपनी प्रेरक बातों से वह बड़ी माँ का जिंदगी जीने का खोया उत्साह वापिस लाने की भरसक कोशिश करती।
उसने उनके लिए अनेक गहरे, आकर्षक रंगों की साड़िया ला दी थी। शाम को खाली वक्त में वह बड़ी माँ को घर के पास के पार्क में ले जाया करती जहां उसने माँ की दोस्ती अनेक समवयस्क महिलायों से करवा दी थी। उसके अथक प्रयासों से माँ का अपने आप में सिमटा व्यक्तित्व मुखर होने लगा था। इतने वर्षों तक पति द्वारा दिये गए घावों के बोझ तले दबा सहमा व्यक्तित्व परत दर परत खुलने लगा था।
और देवयानी और हनी के स्नेहिल सरंक्षण में उनकी जीवन जीने की उमंग एक बार फिर लौटने लगी थी।वह अब पहले से अधिक बोलने लगी थी, जिंदगी में रुचि लेने लगी थीं। माँ के स्वभाव में आए इस परिवर्तन से दोनों बेटियाँ बहुत खुश थीं।
माँ अपने समय की आर्ट ग्रेजुएट थीं। अँग्रेजी बोल न पातीं थीं, लेकिन समझ लेती थीं। हनी ने उन्हें एक लैपटॉप उपहार में दिया था और उन्हें उसे चलाना सीखा दिया था। घर के कामों मे उनका हाथ बंटाने के लिए एक नौकरानी की व्यवस्था कर दी थी। पार्क में घूमने के दौरान हुई बड़ी माँ की मित्रता भी बढ्ने लगी थी। उनकी अनेक अच्छी सहेलियाँ बन गई थीं जो यदा कदा घर आने लगी थीं।
उस दिन माँ का जन्मदिन था । दोनों बेटियों ने उनके जन्मदिन पर घर पर एक सरप्राइज़ पार्टी रखी थी जिसमे उन्होने माँ की सभी सहेलियों को आमंत्रित किया था। साथ ही उनकी बहन और भाई को भी निमंत्रित किया था। अपने जन्मदिन पर अपनी बहन , भाई और सभी सहेलियों को देख उनकी खुशी का पारावार नहीं रहा था। उनकी आँखों की चमक और होठों पर मंद मंद मुस्कान उनके अन्तर्मन की खुशी का इज़हार कर रही थी।
और उन्हें यूं हँसता मुसकुराता देख हनी को अहसास हो रहा था मानो आज उसका प्रायश्चित पूरा हुआ था।
रेणु गुप्ता
मौलिक
स्वरचित