अपनों का साथ कितना ज़रूरी – निशा  जैन : Moral Stories in Hindi

प्रकाश और मुकेश दोनो भाई के स्वभाव में बहुत अंतर था। प्रकाश जहां दिखावे में रहना पसंद करता वहीं मुकेश सादा जीवन उच्च विचार वाला व्यक्ति था। प्रकाश रिश्ते नाते में विश्वास नहीं करता और अपने उग्र स्वभाव के चलते सबसे दूरियां बना लेता था वहीं मुकेश के मधुर स्वभाव से लोग उसके करीब आना चाहते थे।

कहने  को मुकेश बड़ा भाई था पर दादागिरी प्रकाश की चलती थी ।

उसके इस व्यवहार से घर वाले दुखी थे पर ये सोचकर कि शादी के बाद अच्छे अच्छे गुस्से वाले लोग सुधर जाते हैं तो घरवालों ने उसकी शादी सुंदर सुशील कन्या उषा से करवा दी जो पैसे से ज्यादा रिश्तों को कमाने में विश्वास रखती थी। घर वालों को लगा जो किसी की नही मानता वो अपनी बीवी की तो ज़रूर सुनेगा पर प्रकाश के गरम स्वभाव को वो भी नही बदल पाई बस हमेशा अपने पति को समझाती रहती थी ये कहकर कि 

“सुनिए जी आपके गुस्से वाले स्वभाव की वजह से हम लोग परिवार से दूर होते जा रहे हैं

कहीं एक दिन ऐसा न हो कि हम अकेले पड़ जाएं और परिवार से रिश्ते खत्म हो जाए…..”

“अरे रिश्ते कल टूटे तो आज टूटे मेरी बला से…..

मेरे पास अपार पैसा है , मुझे किसी की कोई जरूरत नहीं….”प्रकाश हमेशा की तरह बोलता

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“इतना गुमान ठीक नही ….. परिस्थितियां  मौसम के तरह जाने कब रंग बदल ले किसी को नही पता इसलिए अपनों का साथ होना जरूरी है “उषा समझाते हुए बोलती

तुम अपना ज्ञान अपने पास रखो  कहकर प्रकाश जी झुंझला जाते

और उषा अपना सा मुंह लेकर रह जाती

दोनों भाइयों का परिवार बढ़ रहा था तो जाहिर सी बात है दूरियां भी बढ़ने लगी थी।

दोनों अपने अपने परिवारों में खुश रहने लगे। चाचा ताऊ के बच्चों में भी कम मेल मिलाप था क्योंकि मुकेश के बच्चे चाहते भी थे मिलना तो प्रकाश अपने बच्चों को दूर रहने की हिदायत देता।

प्रकाश की आर्थिक स्थिति अच्छी थी तो उसने बच्चों को बड़े शहर में पढ़ने भेज दिया जो बाद में विदेश चले गए। उसने बच्चों को हमेशा परिवार से दूर रखा इसलिए अपनों का साथ क्या होता है वो कभी समझ ही नही सके और  प्रकाश भी यही तो चाहता था। रूपया पैसा के मोह ने उसे अंधा बना दिया था वो अपनों से दूर रहकर ही खुद को सुखी और संपन्न समझता था

किस्मत से अभी तक परिस्थितियां उनके पक्ष में भी थी और वो लोग सुखी संपन्न थे पर समय सदा एक सा नहीं रहता

 अचानक मौसम बदला और चारो ओर कोरोना जैसी महामारी….

जहां रुपया पैसा भी कुछ काम नहीं आ रहा था।

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ध्यान से रहते हुए और ना चाहते हुए भी प्रकाश जी महामारी की चपेट में आ गए, बच्चे दोनो अमेरिका सेट हो गए थे और वैसे भी अपने पिता के स्वभाव के चलते बच्चे पिता के ज्यादा करीब नही थे बस औपचारिकता निभाते इसलिए साल दो साल में एकाध बार आ जाते थे। कोरोना काल में तो उनका आना बिलकुल असंभव ही था।

ऊषा जी अकेली पड़ गई लेकिन अच्छी बात ये थी कि  अपने पति के न चाहते हुए भी उन्होंने अपने जेठ जेठानी से अच्छे संबंध बनाए हुए थे ।बस घर में वो ही एक अकेली सदस्य थी जिसे परिवार के दूसरे लोगों से मिलना मिलाना अच्छा लगता था । 

प्रकाश मना भी करता कि तुम क्यों लोगों की जी हुजुरी करती हो ? हमारे पास किस चीज की कमी है(असल में उषा का परिवार के दूसरे लोगों से मिलना प्रकाश को चापलूसी करना लगता था)

पर उषा बोलती ” आप किसी से संबंध नहीं रखना चाहते ,आप जैसा चाहते हो रहते हो, मैं कुछ नही कहती तो फिर मुझे भी अपने तरीके से रहने दो ।”

ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा पर इतना जान लो

बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया और ये कहकर प्रकाश उषा पर हंस देता 

पर आज…

प्रकाश के पास पैसा बहुत था पर अस्पताल में एक बेड नही था। उसके रुपए पैसे भी कुछ काम नहीं आ रहे थे। उसने किसी से अच्छे संबंध भी तो बनाकर नही रखे जो उसके दुख दर्द में उसके लिए मरहम का काम करे

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पर प्रकाश जी के बड़े भाई ने अपने मधुर स्वभाव से संबंध भी मधुर बनाए हुए थे और उषा से अपने  छोटे भाई की ऐसी हालत का पता चलते ही उनका सारा गुस्सा दूर हो गया जो उनके मन में प्रकाश के लिए था।

उन्होंने दिन रात एक कर दिया प्रकाश का इलाज़ करवाने के लिए।

जो भाई प्रकाश को फूटी आंख नहीं सुहाता आज उसे उसमे साक्षात भगवान के दर्शन हो रहे थे जो उसे मौत के मुंह से निकाल कर लाया था

प्रकाश को सही मायनों में एक नई जिंदगी मिल गई थी जहां उसका मन और तन दोनो बीमारी से रहित हो चुके थे। उसे अपनों का साथ की कीमत समझ आ चुकी थी ।उसने स्वस्थ होते ही बड़े भाई से , अपनी पत्नी से और परिवार के सभी सदस्यों से अपने स्वभाव के लिए माफ़ी मांगी जिसकी वजह से वो अब तक अपनों के साथ से वंचित रहा था

 प्रकाश जी ने अपनी धन संपदा को  नेक कामों में लगाना शुरू कर दिया । उन्होंने एक अस्पताल खुलवा दिया और समाज सेवा से जुड़ गए।मौसम के बदले रंग ने उनका स्वभाव ही बदल दिया और  उन्हें सबका चहेता बना दिया उन्हें अपनों का साथ कितना ज़रूरी है ये शायद समझ आ चुका था।

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दोस्तों मुझे तो लगता है अपनों का साथ होना बहुत जरूरी है । जहां दवा काम नही आती वहां दुआ काम आती है और वो हमारे अपने ही होते हैं जो हमारे लिए करते हैं

मेरे शब्दों में कहूं तो….

अपनों के साथ  में है वो बात, जो बदल देता मुश्किल हालात

कठिन से कठिन समस्या, होती आसान , जब मिल जाता “अपनों का साथ”

वो अपने ही होते हैं ,जो हमारे दुख में दुखी और खुशी में खुश हो जाते हैं

हमारे मन की दुविधा बिना बताए समझ जाते हैं

समय समय पर हमे सही और गलत का अर्थ समझाते हैं

अच्छे और बुरे लोगों की पहचान करवाते हैं

अपनों के साथ से मिलता बल, जब खुद को समझते हम निर्बल

अपनों के  साथ थोड़ा वक्त, आज ज़रूर बिताओ,  क्या पता कल मिले न मिले…..  ये पल

स्वरचित और मौलिक 

निशा  जैन

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