।मैं निर्मला ।पर मेरे स्वभाव में निर्मलता बिलकुल नहीं है ।न जाने क्या सोच कर माता पिता ने यह नाम रखा था ।चार भाई बहन में सबसे छोटी थी।इसलिए सभी का प्यार कुछ अधिक ही मिला ।जिसके फलस्वरूप मै जिद्दी, घमंडी बन गई थी ।सुन्दरता में भी बीस रही तो अपने आगे किसी को नहीं समझती।माँ को मेरी उद्दंडतापूर्वक व्यवहार चिंता में डाल देती।”
न जाने यह लड़की ससुराल में कैसे रहेगी, कैसे निभायेगी”? माँ कहती तो पिता जी कह उठते ” तुम बेकार परेशान होती हो आभा,अभी बच्ची है, बाद में ठीक हो जाएगी ” देखना राज करेगी मेरी निम्मो ” ।मैं खेलते कूदते बड़ी होने लगी थी ।पढ़ाई में साधारण थी तो दसवीं के बाद पिता ने शादी करके कन्या दान का भार उतार दिया ।
पढ़ाई लिखाई मुझे अच्छी नहीं लगती थी ।मै भी खुश थी चलो जान छूटी ।ससुराल के सभी लोग बहुत अच्छे थे।सास, ससुर, दो देवर,एक ननद का भरा पूरा परिवार ।पति तो खैर, बहुत ही सीधे ।लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब सासूमा ने कहा कि बहू का एडमिशन करा देंगे, आगे पढ़ाई कर लेगी ।अभी उम्र ही क्या है?लेकिन तभी से सास मुझे दुशमन लगने लगी थी ।
मै कालेज जाने लगी ।लेकिन घर का कोई काम नहीं करना चाहती ।सासूमा भोजन बनाती, ननद सीधी सादी थी, वह भी पढ़ाई के अलावा माँ के साथ सहयोग करती ।सासूमा अच्छी थी ,मुझे बहुत प्यार करती, पर मुझे उनका प्यार दिखावा लगता ” हुंह, बड़ी प्यार करने वाली बनी रहती है, यह सब ढोंग है माँ ।
मुझे सब पता है ।ससुराल में कोई किसी को प्यार नहीं करता।” ।मै अपनी माँ को फोन पर अपने घर वालों की बुराई करती रहती ।घंटों फोन करना मेरे पति को ठीक नहीं लगता, वह समझाया करते “निर्मला, अपने घर की सारी बातें बताना ठीक नहीं होता, घर टूट जाता है ” मै पति को झिड़क देती तो वह बेचारे अपना सा मुंह लेकर खिसक जाते
।कभी भोजन बनाती तो इतना अधिक बना लेती की फेकना पड़ जाता।कभी सासूमा समझाने की कोशिश करती तो मुझे बहुत बुरा लगता ।मायके से माँ भी अक्सर समझाया करती, हिदायत देती रहती कि मै ठीक से रहूँ, सबको खुश रखूं, बड़ो का कहना मानूं।ताकि किसी बात की शिकायत नहीं हो।पर मेरे कानों में जूं नहीं रेंगती ।
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कुछ घर में सुनी बात, कुछ सखी सहेली से सुनी बातों का असर था।सबका सारांश यही होता कि ससुराल वाले कभी अच्छे नहीं होते।सभी सास बहू को सताने वाली होती है ।बस मै सबको नीचा दिखाने की कोशिश करती रही ।फिर देवर ,ननद की शादी हो गई ।ननद अपने घर चली गयी, देवर अपनी अपनी गृहस्थी में रम गए ।
फिर लड़ झगड़ कर अपना चूल्हा मैंने अलग कर लिया ।घर बहुत बड़ा था।दो कमरे में मैंने अपनी गृहस्थी अलग बसा ली।समय बीत गया ।ससुर जी नहीं रहे ।मै भी दो बच्चों की माँ भी बन गई थी ।फिर भी मेरे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया ।बच्चों को भी दादी के पास फटकने नहीं दिया ।सासूमा भोजन अलग बनाने लगी थी ।
कभी मेरी रसोई से भोजन की उठती सुगंध से बच्चों से पूछ बैठती ” लगता है कि तुम्हारी मम्मी ने कुछ विशेष बनाया है, बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है रसोई से”? बच्चे आकर दादी की कही बात सुनाते पर मजाल था कि मै उन्हें चखने के लिए कुछ देती ।पति अपनी माँ के पास बैठकर हाल चाल लेना चाहते तो मै उन्हे खूब भला बुरा सुनाती ।
बेचारे पति– दब्बू हो कर रह गये।सोचते कौन रोज रोज झगड़ा करे।नतीजा वे भी अपने परिवार से दूर होते गये ।मै अपनी सफलता पर खुश होती ।मेरी सखी सहेली की तादाद बढ़ती गई ।रोज घूमना, किट्टी पार्टी चलने लगा ।मेरी सहेलियां भी ससुराल के प्रति नफरत फैलाने में उस्ताद थी।मतलब यह था कि परिवार का महत्व मेरे लिए खत्म हो गया ।
मेरी माँ को मेरा रवैया अच्छा नहीं लगता वह चिंता करती हुई खाट पर पड़ गयी और फिर चल बसी ।उसके जाने के बाद अकेले पन में पिता जी भी नहीं रह पाये छः महीने के बाद वह भी चल बसे ।भाई बहन अपने अपने घर में व्यस्त थे।मैंने भी अपने दोनों बच्चों की शादी कर दी थी।बहुएं सुन्दर, पढ़ी लिखी और सुघड़ मिली ।लेकिन सबकी नौकरी दूर दूसरे शहर में थी अतः
अपनी अपनी पत्नी को लेकर चले गये ।अब घर में मै अकेली अपने पति के साथ रहने लगी ।उम्र बढ़ती गई ।मेरी तबियत ठीक नहीं रहने लगी ।पति देव अपने मे व्यस्त रहते, पढ़ने के शौकीन थे तो हमेशा किताबों में उलझे रहते ।सासूमा भी अलग खाना पकाती और मुहल्ले में दिन भर घूमते रहती ।मेंरे लिए किसी के पास समय नहीं था।यह परिस्थिति मेरी अपनी बनाई हुई थी,
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किससे अपनापन खोजती।किट्टी वाली सहेलियां भी शरीर से लाचार रहने लगी थी इसलिए आना जाना खत्म हो गया ।एक दिन खाना बनाते हुए मुझे चक्कर आ गया और मैं नीचे गिर पड़ी।पति चिल्लाने लगे तो दौड़ती हुई सासू माँ पहले आ गयी ।फिर देवर देवरानी और उनके बच्चे पहुंच गए ।मै बेहोश हो गई ।मुझे नहीं पता कि कैसे मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया ।
चार दिन के बाद मुझे होश आया ।सारे शरीर पर मशीनें लगी थी ।आंखे खुली तो अपने पूरे परिवार को घिरा पाया।सासूमा ने सिर पर हाथ फेरा ” बहू, तुम जरा भी चिंता मत करो, हम सब हैं ना तुम्हारे पास ” तुम्हारी देखभाल करने के लिए, तुम जल्दी से ठीक हो जाओ,बस यही भगवान से प्रार्थना करते हैं ” कितनी अच्छी हैं
सासूमा, मैंने कभी उनकी इज्जत नहीं की,कभी आदर सम्मान नहीं दिया फिर भी—-” पति देव तो सीधे सादे थे चुप देखते रहे।देवर ने अस्पताल और दवाई का खर्च उठा लिया ।मेरे आँसू थमते ही न थे।सोचती रही, ” अपनो का साथ ” होना कितना ज़रूरी होता है ।जिस परिवार को मै लात मारती रही, वही परिवार मेरे लिए जी जान से जुटा हुआ है ।
बीमारी की खबर सुनकर बच्चे और बहू भी आ गए ।एक सप्ताह के बाद मुझे छुट्टी मिल गई ।सहारा देकर सासूमा ने पलंग पर लिटा दिया “,अब तुम चुप चाप आराम करो,हम सब हैं तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ ।अपनो का साथ हो तो कोई मुश्किल घड़ी आसान हो जाती है ।पन्द्रह दिन लग गये मुझे ठीक होने में ।सासूमा ने अपनी माँ से बढ़कर सेवा की ।
मै अब बिलकुल ठीक हो गई थी ।मन का संताप अभी तक नहीं गया था ।यही समय है, मुझे उनसे क्षमा माँग लेना चाहिए ।सुबह हुई ।मै बहुत खुश थी।उठकर उनके पास गयी और पैरों पर गिर गई ” माँ, मुझे क्षमा कर दीजिये, मै बहुत बुरी हूँ, कभी आपका आदर सम्मान नहीं किया, मुझे थपपड़ मारिए न माँ ” मै रोने लगी थी तब उनहोंने मुझे अपने कलेजे से लगा लिया और रोती रही ।
हम एक जान दो शरीर थे उस समय ।पति मानो कह रहे हों ” आई न रास्ते पर?” हाँ जी, मेरी आखों पर पट्टी पड़ा था ।अब खुल गया है ” देवर का ठहाका गूँजने लगा ।”चलिए सबलोग नाशता तैयार है” देवरानी की आवाज सुनाई दी ।फिर सबकुछ ठीक हो गया ।पति देव ने कहा–“अपनो का साथ रहना बहुत जरूरी होता है ” —-
उमा वर्मा, राँची, झारखंड ।स्वरचित, मौलिक ।