सिसकियाँ – अनुज सारस्वत

“आह सुबक सुबक (सिसकियों की आवाज)”

कंचनजंघा(हिमालय की एक चोटी का नाम) ने देखा यह आवाज कहाँ से आ रही है ध्यान दिया तो देखा पर्वतराज हिमालय की आवाज थी फिर वो बोली।

“क्या हुआ दादा आज आप इतने व्यथित क्यों हों ?आज से पहले आपका रूदन नही देखा”

हिमालय कराहते हुये बोला

“बेटा अब मेरी शक्ति क्षीण होने लगी है,मेरा समय समाप्त होने जा रहा है ,मुझे तो इस बात की चिंता खाये जा रही है कि मेरे बाद मेरे बच्चों तुम्हारा,नंदादेवी,एवरेस्ट,गौरीशंकर ,कुंभु,धौलागिरि,सागरमाथा हिमाल और अन्नपूर्णा का क्या होगा? वैसे तो मेरे 7200 से अधिक बच्चे हैं। लेकिन तुम लोग वरिष्ठ हो सबसे सारी जिम्मेदारी तुम लोगों पर हैं मेरा 2500 किलो मीटर लंबा और 300 किमी चौड़ा साम्राज्य अब खत्म होता जा रहा है ।मैं क्या जबाब दूंगा प्रकृति मैया को ?जिन्होंने मेरे भरोसे कितने हिमनद और नदियाँ छोड़ रखी हैं।मेरे आँसू नदियों के रूप में निकल रहे और सूख भी रहे हैं।चाहें वो सिंधु  हो या गंगा हो या ब्रह्मपुत्र हो सब मेरी बेटियाँ अपने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। अपनी आँखो के सामने बच्चों को मरता देखना कितना कष्टदायक होता है यह मेरा ह्रदय ही जानता है।ऊपर से बिजली और तरक्की के नाम पर मेरी बेटियों को 1000 से ज्यादा बाँधो से बाध दिया है मानव ने।जहाँ पहले परिंदा भी आने से घबराता था आज सारे पर्वतों को काटकर जंगलों को काटकर श्मशान बना दिया मेरे बच्चों का।



इधर सारे देश मुझे खींचते हैं अपनी तरफ सबने मेरी छाती में गोला बारूद भर दिया है। जहाँ कभी संजीवनी जैसी वनस्पति होती थी धन्वंतरि महाराज की कृपा से। वहाँ रेगिस्तान बना दिया है बारूदों का। जिन जिन शिखरों पर मुझे नाज था वहाँ भी इंसान पहुंच गया मेरी छाती में कील ठोक ठोक कर सुरंग बनाकर सारे मेरे पहाड खोखले कर दिये।हल्की सी आहट से ही गिरने लगते मेरे बहादुर बच्चे।

कुछ पर्यावरणविद मेरी आवाज उठाते हैं लेकिन उनकी आवाज सारी सरकारें अपने

तरक्की के नशे में चूर होकर नही सुनती बस पर्यावरण के नाम पर दिवस घोषित हो जाते जैसे आज मेरा ही दिवस है हिमालय दिवस किस मुँह से मनाऊँ जब मेरे नीचे से जमीन ही खींच ली “

इतना कहते ही हिमालय की आँखो से झर झर आँसू बहने लगे और जमने लगे।इधर अपने दादा की यह हालत देखकर सारी चोटियां भी सिसकने लगी।और बोलीं

“बाबा आप हार न मानो प्रकृति मैया रक्षा करेंगी हम सबकी “

इतने में एक पर्वतारोहणी दल कंचनजंघा की तलहटी में पहुंच चुका था और अपने औजारों से भेदने लगा उस दुर्गम चोटी को।

-अनुज सारस्वत की कलम से

(स्वरचित एवं मौलिक)

(यह चित्र हमारी प्रकृति की करूण पुकार को दर्शाता है ,अगर अब भी हम नही चलते तो और भयंकर परिणाम आयेंगे)

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