सुबह चाय के साथ हाथ में अखबार लेते ही शर्मा जी बोले।
“राधा! देखो तो ये कंचन जी की तस्वीर है?”
” अरे हाँ, ये तो कंचन ही है।”
“इन्हें ‘राष्ट्रीय साहित्य-रत्न’ पुरस्कार मिला है। मुख्य पृष्ठ पर ही तस्वीर छपी है। अब तुम्हारी बात नहीं होती है उनसे?”
” यहाँ आने पर कुछ दिन तो सम्पर्क था, पर धीरे-धीरे बंद हो गया। वो भी बहुत व्यस्त रहने लगी और मैं आश्रम से जुड़ गयी।”
कुछ सालों में ही कंचन कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। राधा उस पुरानी कंचन को याद करने लगी——-
कंचन एक साहित्यिक परिवेश में पली आसमान में उड़ने का ख्वाब देखने वाली लड़की थी। सभी उसकी कुशाग्र बुद्धि के कायल थे, पर वक्त कब किसको कहाँ लाकर खड़ा कर दे कोई नहीं जानता। कंचन की शादी एक संयुक्त परिवार में हुई। अच्छा खासा पारिवारिक व्यवसाय था। किसी चीज की कोई कभी नहीं थी,
लेकिन किस्मत ने कंचन को ऐसा तमाचा मारा कि वह जिन्दगी भर का नासूर बन गया। कंचन का पति मानसिक रूप से कमजोर था। बड़ा भाई पिता के साथ मिलकर व्यपार सम्भालता था और कंचन का पति सबका टहलुआ था। हिसाब-किताब, लेन-देन तो उसकी समझ से परे थी।
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भोला-भाला बेचारा दास्य भाव को अच्छी तरह से समझता था। पत्नी का अर्थ तो सिर्फ खाना बनाना और मेरे बच्चों की अम्मा बनना था। पति की रूतवा से ही परिवार में पत्नी को सम्मान मिलता है। भला कंचन की किस्मत में वो इज्जत कहाँ ?जिन्दगी रसोई घर और बच्चों तक सीमित हो गई।
अच्छे संस्कारों के साथ बच्चे विदेश तक पहुँच गये और वहीं अपनी व्यस्तता में रम गये। कंचन अब बिल्कुल अकेली पड़ गयी। जेठानी के परिवार का दबदबा रहा घर में। अब कंचन को भी मुक्ति मिली रसोई से ,क्योंकि उसे कहाँ आता है आधुनिक व्यंजनों की विधि? ———-
सोसाईटी के पार्क में रोज जाकर घंटों बैठी रहती थी। कुछ महिलाओं से पहचान भी हो गयी थी।उसी में एक थी राधा, जिससे कंचन को अच्छी बनती थी।
“कंचन ! आज कल इतना उदास क्यों रहती हो?”
“राधा! अब इस खाली जीवन से उब चुकी हूँ। पूरी जिन्दगी उपेक्षित रहते हुये भी बच्चों को देखकर मन संतुष्ट था। उनकी कामयाबी में अपनी कामयाबी देखती थी। मन हर्षित रहता था, लेकिन अब तो सभी अपने में व्यस्त हो गये। सुहागन होकर भी———–
कहते-कहते कंचन रुक गयी।
“छोड़ो इन सब बातों को। तुम अब कोई ऐसा रचनात्मक कार्य
करो जिससे तुम्हें खुशी मिले।”
कंचन खामोश रही। एक दिन ऐसे ही उसकी मुलाकात रंजना से हुई, जो राधा की दोस्त थी।रंजना साहित्य में रूचि रखने वाली एक महिला थी। कई साहित्यिक समूह से जुड़ी हुई थी। कंचन की बातों से, उसके विचारों से प्रभावित हो रंजना उसे भी साहित्यिक समूह से जोड़ दिया।
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धीरे-धीरे कंचन का रुझान लेखन की तरफ होता गया। फिर क्या था-लेखनी कब हाथों की मजबूत पकड़ में आ गयी कंचन भी अनजान रही। बचपन में पड़ा बीज अब धीरे-धीरे अंकुरित होने लगा और पौधा से वृक्ष बनता गया। रंजना की अँगुली पकड़कर साहित्य की सीढियाँ चढ़ने वाली कंचन से न जाने रंजना की अँगुली कब कहाँ छूट गयी,
न रंजना को पता चला और न ही कंचन को। अब तो कंचन बड़े-बड़े साहित्यिक सम्मेलनों में भी जाने लगी। शुरू-शुरू में तो परिवार वालों ने विरोध किया, लेकिन कंचन की बढ़ती ख्याति ने सबकी जुबान बंद कर दी। —-
“अरे क्या सोचने लगी? तुम्हारी चाय ठंढी हो रही है।”
“कंचन को याद कर रही थी। कंचन को सही दिशा मिल गयी।”
“तुम्हें भी तो आश्रम से जुड़ कर एक नयी दिशा मिली।”
“सही कहा आपने।”
तभी राधा को याद आई कि आश्रम का एक काम बाकी रह गया है।
स्वरचित
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।