जीवन का आनंद – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

 सुनसान सड़क पर रजनी अकेली तेज-तेज कदमों से चली जा रही थी।आज दिन की घटना रह-रहकर उसके कोमल हृदय पर चोट कर रही थी।अब वो किसके लिये जिये..उसका मर जाना ही अच्छा है..हे भगवान! कोई नदी मिले तो मैं उसमें समा जाऊँ..कोई गाड़ी ही आकर मुझे अपनी चपेट…तभी तेजी-से आती एक कार से टकराकर वह बेहोश हो जाती है।गाड़ी में बैठी समाजसेविका सविता जी बाहर निकलती हैं..रजनी की नब्ज

टटोलकर ड्राइवर से कहतीं हैं,” भैया..ज़रा पानी की बाॅटल दीजिये..।” बाॅटल खोलकर वो रजनी के चेहरे पर पानी के छींटे मारती हैं।होश में आते ही रजनी चीखते हुए बोलती है,” आपने मुझे बचाया क्यों..अपनी गाड़ी के नीचे मुझे कुचल क्यों नहीं दिया..कहते हुए वह रोने लगी।रात गहरी होती जा रही थी।सविता जी ने उसके आँसू पोंछे और उसे गाड़ी में बिठाकर अपने घर ले आईं।

       ड्राइंग रूम के सोफ़े पर रजनी को बिठाते हुए सावित्री जी ने प्यार-से उसके कंधे पर हाथ रखा और बोलीं,” अब बताओ बेटी…तुम कौन हो..क्या नाम है तुम्हारा…ऐसी क्या विपदा आ पड़ी जो…।”

      स्नेह-स्पर्श पाकर रजनी की आँखों से आँसू बहने लगे, बोली,” मेरे मम्मी-पापा मुझसे बहुत प्यार करते थे।पापा का प्राॅविज़नल स्टोर था।हम सब बहुत खुश थे।एक दिन पापा ने मुझे बताया कि मेरा छोटा भाई आने वाला है।मैं बहुत थी।मम्मी से रोज भाई के बारे पूछती रहती थी।एक दिन मम्मी रसोई से कुछ लेने जा रहीं थीं कि किसी चीज़ से उन्हें ठोकर लग गई और वो गिर पड़ी।पापा दौड़े आये..उन्हें लेकर अस्पताल गये लेकिन…।

भाई नहीं रहा और एक दिन बाद मम्मी भी हमें छोड़ कर हमेशा के लिये चलीं गईं।मैं तब सात बरस की थी, मम्मी की फोटू के सामने बैठकर रोती रहती थी।मुझे फिर से माँ मिल जाये, यह सोचकर पापा ने रिश्तेदारों द्वारा बताई लड़की सुमित्रा से विवाह कर लिया।नई माँ को देखकर मैं बहुत खुश हुई…उन्होंने भी मुझे बहुत प्यार दिया।फिर उन्होंने एक बेटे को जनम दिया और उसी दिन से मेरे दुर्दिन शुरु हो गये।

माँ बात-बात पर मुझपर झल्लाने लगती।मुझे भाई को छूने भी नहीं देतीं थीं।समय बीतता रहा।कुछ साल के बाद पापा की तबीयत खराब हुई तो माँ ने अपने भाई को बुला लिया…मामा के साथ नानी(नई माँ की माताजी)भी आ गईं।फिर तो मुझपर पूरे घर की ज़िम्मेदारी लाद दी गई।फिर भी मैं पापा के साथ खुश थी।घर का सारा काम करती..अपने पिता की सेवा करती और देर रात तक पढ़ाई करती।वो मुझे देखकर रोते लेकिन मैं हँसकर

कहती कि सब अच्छा होगा।” इतना कहकर उसने एक गहरी साँस ली, फिर बोली,” बारहवीं का रिजल्ट लेकर मैं जब पहुँची तो भीड़ देखकर मेरा दिल किसी अनहोनी की आशंका से धड़का।अपने पिता को चिता पर देखकर मैं फूट-फूटकर रोने लगी।उनका ही तो एक आसरा था और भगवान ने वो भ मुझसे छीन लिया।बहुत मिन्नतें करने के बाद घर का पूरा काम मैं करुँगी,इसी शर्त पर माँ ने मुझे काॅलेज़ जाने की अनुमति दी।मैं सयानी हो चुकी थी…मेरा रूप भी निखरने लगा था।

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      माँ और नानी घर में नहीं थीं, मैं रसोई में रात के खाने की तैयारी कर रही थी कि अचानक मामा ने आकर मुझे दबोच लिया…।मैं चिल्लाई..उनके चंगुल से खुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगी तभी माँ आ गईं।मामा ने तुरन्त मुझ पर लाँछन लगा दिया…फिर माँ-नानी ने मुझपर गालियों की झड़ी लगा दी।मेरे लिये अब मृत्यु ही अंतिम रास्ता बचा था।यही सोचकर घर से निकल पड़ी थी…।” उसकी आँखों से आँसू बह निकले।

      सुनकर सविता जी की आँखें भी नम हो गईं।रजनी के आँसू पोंछती हुई बोलीं,” बेटी, जीवन तो सुख-दुख का संगम है।दुख से घबरा कर मृत्यु को गले लगाने की सोचना तो कोई बुद्धिमानी नहीं है।जैसे हर काली रात के बाद सवेरा होता है, वैसे ही दुख के बाद सुख के दिन भी आते हैं।उसी में तो जीवन का आनंद है…अब जाकर आराम करो..कल से तुम मेरे सेवा कार्य में हाथ बँटाओगी।” कहते हुए उन्होंने रजनी को उसका कमरा दिखा दिया और खुद भी सोने चली गईं।

      सविता जी के पति एक सरकारी मुलाज़िम थे।अपनी सीमित आय में उनके पति ने परिवार को हर खुशी देने का प्रयास किया था।उनके दोनों बच्चे सयाने हो रहे थे…बेटी रीमा बीए की फ़ाइनल ईयर में थी…बेटा प्रकाश मेडिकल में एडमिशन ले लिया था।उनके पति बच्चों के लिये एक सुखद भविष्य की कल्पना कर रहे थे कि अचानक एक रात उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वो…।सविता जी का जीवन एकाएक ठहर-सा गया था।बच्चों के लिये उन्होंने खुद को संभाला और पति के ऑफ़िस में ही नौकरी करने लगीं।यह सब करना उनके लिये आसान न था.

.उन्हें काफ़ी परेशानियों का सामना भी करना पड़ा लेकिन उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी।वे अच्छी तरह से जानती थी कि जीवन तो सुख-दुख का संगम है।सुख के दिन बीत गये तो दुख के दिन भी कट जाएँगे।उनकी मेहनत रंग लाई..रीमा के बीएससी का रिजल्ट आते ही उन्होंने एक सुयोग्य वर तलाश कर उसकी शादी कर दी…प्रकाश भी डाॅक्टर बनकर एक हाॅस्पीटल में अपनी सेवा देने लगा था।कुछ समय बाद वो भी सेवानिवृत्त हो गईं तब उन्होंने समाजसेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।उस शाम भी वो एक सेवा-संस्थान का सालाना जलसा अटेंड करके वापस आ रहीं थीं कि रजनी उनकी कार से टकरा गई।

        अगली सुबह सविता जी ने प्रकाश से रजनी का परिचय करवाया और उसे अपने साथ ले गईं।रजनी उनके हर काम में सहयोग करती…घर के कामों को भी वह पूरा मन लगाकर करती थी।यह कहना गलत न होगा कि कुछ ही महीनों में वह सविता जी की साया बन गई थी।जब कभी रीमा अपने मायके आती तो वह उसके आदर-सत्कार में भी कोई कमी नहीं करती थी।एक दिन किसी काम से उनकी सहकर्मी महिलायें घर आईं थीं।रजनी उन्हें शरबत देकर चली गई तब उन्होंने सविता जी से कहा कि रजनी जिस घर की बहू बनेगी, उसके तो भाग्य खुल जायेंगे।सुनकर सविता जी मुस्कुरा दी थीं।

        एक दिन सविता जी रजनी से बोलीं,” सुन बेटी…आज ज़रा प्रकाश की अलमारी ठीक कर देना। एक शर्ट खोजने के चक्कर में कल उसने पूरी अलमारी को उलट-पलट कर दिया था।

 ” जी ज़रूर!”

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        रजनी प्रकाश के कमरे की अलमारी को व्यवस्थित करने में तल्लीन थी तभी किसी काम से प्रकाश वहाँ आ गया।आहट पाकर रजनी मुड़ी तो प्रकाश को खुले बालों में रजनी ऐसी प्रतीत हुई जैसे काली घटा के बीच चाँद निकल आया हो।वह उसे अपलक निहारता रहा।रजनी अचकचा कर वहाँ से निकल गई लेकिन साथ में प्रकाश का दिल भी ले गई थी।उस दिन से प्रकाश रजनी को देखने के बहाने ढूँढता।दिल तो रजनी का भी धड़कता था जिस पर वो बड़ी मुश्किल से नियंत्रण कर पाती थी।जिस घर ने उसे आसरा दिया है..उस घर की बहू बनने का सपना भला वो कैसे देख सकती थी।

          एक दिन खाने की मेज पर रजनी प्रकाश की थाली में चपाती रखकर जाने लगी तो प्रकाश उसे जाते हुए देखता रहा।यह देखकर सविता जी के ओठों पर मुस्कान खेल गई।अगले दिन प्रकाश हाॅस्पीटल जाने के लिये तैयार हो रहा था तभी सविता जी बोलीं,” बस प्रकाश…अब बहुत हो चुका… तू अपनी पसंद की लड़की को मेरी बहू बना दे वरना मैं अपनी पसंद की लड़की से तेरा ब्याह कर दूँगी।

    ” वो..माँ..मैं..।” प्रकाश की आवाज़ लड़खड़ा गई।तब सविता जी बोली,” ठीक है, मैं दो लड़कियों के नाम लेती हूँ।तू एक को पसंद कर ले।एक तो है रजनी और दूसरी…।”

   ” दूसरी?”

  ” दूसरी.. लड़की भी रजनी है।”

  ” ओह माँ…तुम कितनी अच्छी हो..।” कहते हुए प्रकाश सविता जी से ऐसे लिपट गया जैसे कोई छोटा बच्चा अपनी मन-पसंद खिलौना पाकर खुश हो जाता है।

        एक शुभ-मुहूर्त में सविता जी ने प्रकाश के साथ रजनी का ब्याह करा दिया।साल भर बाद रजनी एक बेटी की माँ बन गई और सविता जी अपनी पोती के साथ एक नया जीवन जीने लगीं।रजनी के लिये यह सब किसी सपने से कम नहीं था।

       एक दिन प्रकाश हाॅस्पीटल से घर आया तो उसके चेहरे पर उदासी छाई हुई थी।सविता जी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि डाॅक्टर्स की एक टीम दो वर्ष के लिये कनाडा जा रही है, उसमें मेरा भी नाम है।

   ” अरे..ये तो बहुत खुशी की बात है…तू बड़ा डाॅक्टर बनेगा..तेरा नाम होगा..शोहरत होगी।”

   ” लेकिन आप लोगों को छोड़कर…।”

   ” छोड़कर कहाँ..दो साल तो यूँ ही ऊँगलियों पर गिनकर कट जायेंगे..है ना मम्मी..।” रजनी की आँखों से आँसू बहने लगे थे।सास- बहू ने नम आँखों से प्रकाश को विदाई दी।प्रकाश से अपनों का साथ छूट रहा था तो आगे उसका उज्जवल भविष्य उसे बाँहें फैलाये बुला रहा था।सविता जी और रजनी को प्रकाश से बिछोह का दुख था तो उसकी भावी सफलता के लिये प्रसन्नता भी हो रही थी।अनोखा था ये सुख-दुख का संगम…।

        देखते-देखते दो वर्ष बीत गये।कनाडा से प्रकाश बड़ी डिग्री लेकर लौटा…उसने अपनी क्लिनिक खोल ली जहाँ सप्ताह में वह एक दिन गरीब मरीजों का मुफ़्त इलाज़ करता था।उसकी कामयाबी देखकर सविता जी और रजनी बहुत खुश थे।

                                           विभा गुप्ता

# सुख-दुख का संगम         स्वरचित, बैंगलुरु

VD

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