मोबाइल वाली बाई – संध्या त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

 भाभी… आपके घर आजकल कौन काम करती है ? मुझे ज्यादा पता नहीं है …अभी अभी तो लगी है , यहीं पास के झोपड़ी में रहती है… सावित्री नाम है । स्वाति, मिसेज शर्मा के बातों का जवाब दे रही थी तभी बीच में ही मीरा ने कहा …अरे स्वाति के यहां तो वो मोबाइल वाली बाई आती है , अच्छा वो मोबाइल वाली , हां तभी मैंने एक दिन देखा था… वो फोन पर हंस-हंसकर बातें कर रही थी और साथ में झाड़ू भी लगा रही थी …वो काम क्या करती होगी , सारा दिन तो फोन पर ही लगी रहती है ।

       मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती और बाइयों की कितनी किल्लत है , इसीलिए जो भी कर दे , जैसे भी कर दे …मैं चुपचाप करा लेती हूं  स्वाति ने कहा ।

          सभी सहेलियों के बातों से लग रहा था कि बाई का ज्यादा फोन पर हंस-हंसकर बातें करना जैसे उसके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह बन गया हो ।

     जाने अनजाने  स्वाति भी सोचने पर मजबूर हो गई , आखिर पूरे दिन किससे बातें करती रहती है ।

       एक दिन रसोई साफ करते वक्त स्वाति ने सिर्फ इतना सुना था ,रखती हूं ना , बाद में बात करूंगी फिर धीरे से पप्पी भी लिया था । जाने दो कुछ भी करें मुझे क्या ….मुझे तो काम से मतलब है , सोच कर स्वाति ने चुप रहना ही उचित समझा ।

         नौ बजे आने वाली सावित्री उस दिन साढ़े ग्यारह बजे आई… वो भी थोड़ी परेशान सी , अरे क्या हुआ सावित्री ?  दो तीन गिलास पानी दीजिए  ….बाहर मेरे बच्चे आए हैं आज सावित्री के हाथों में मोबाइल भी नहीं था…. स्वाति ने पानी निकाला और फ्रिज में रखे लड्डू देती हुई बोली ….ले जाकर बच्चों को खिला , मैं आती हूं । गैस बंद करके स्वाति बाहर गई और देखा एक  ग्यारह बारह वर्षीय दिव्यांग बालक और पंद्रह सोलह वर्षीय बच्ची कुर्सी पर बैठे थे…. सावित्री ने उन्हें कुर्सी दे दिया था …..स्वाति आश्चर्य से कभी बच्चों की तरफ कभी सावित्री की तरफ देखती ।

      सावित्री के आंखों में आंसू थे… ले खा जबरदस्ती अपने दिव्यांग बच्चें को लड्डू खिलाना चाह रही थी , एक तरफ उसे डांट रही थी दूसरी तरफ उसके आंसू व पसीना पोछ रही थी । फिर कहीं जाएगा… घर से बाहर निकलेगा ? सावित्री के पूछने पर वो बालक बिना कुछ बोले मां की तरफ एक टक , डरा सहमा सा देखे जा रहा था। बेटी की ओर इशारा करती हुई सावित्री ने मुझे बताया …ये मेरी बेटी है मालकिन और ये मेरा बेटा …..

  दिमाग नहीं है इसका ….काम पर निकल गई और गेट में ताला लगाना भूल गई थी… बस निकल गया घर से , वो तो भला हो एक पहचान वाले ने देख लिया इसे ….तब मैंने स्कूल से बेटी को बुलाया और हम दोनों मिलकर कहां-कहां नहीं खोजे तब जाकर मंदिर के पीछे मिला । नहीं मिलता तो , अब तो सावित्री भी बच्चे का हाथ पकड़ कर रोने लगी थी ।

ओह… दिमाग नहीं है इसका ….कहने में सावित्री को न जाने कितना दुख हुआ होगा , कितनी पीड़ा सही होगी …अपने बच्चें के बारे में अपने ही मुंह से इस तरह की बातें निकालना… सावित्री की विवशता आज स्वाति अच्छी तरह समझ रही थी…।

         ले जा बेटा , इसे घर पहुंचा देना …मैं काम करके आती हूं…. सावित्री ने बेटी से कहा । जैसे ही बेटी ने भाई को चल घर कह कर हाथ पकड़ा वो दिव्यांग बालक कसकर अपनी मां का हाथ थाम लिया और प्यार भरी नजरों से साथ में चलने का आग्रह करने लगा । किसी तरह सावित्री ने समझा बूझाकर प्यार से मोबाइल दिखाती हुई बोली …..

तू घर जाएगा बेटा …तब ना मैं फोन पर तुझसे बातें करूंगी ।

सावित्री को बेटा का दिव्यांग होने का दुख तो था पर चेहरे पर बेटे के मिलने की खुशी भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी..। सुख- दुख के संगम ने वातावरण को भाव विभोर कर दिया था..।

     पहली बार सावित्री के पारिवारिक पृष्ठभूमि की सच्चाई से रूबरू हुई थी स्वाति , उसने सावित्री से कुछ जानने की कोशिश की ….जवाब में सावित्री ने कहा , स्कूल जाता है मेमसाहब… एक फॉर्म भी भराया गया है शायद इसके खाते में सरकार की तरफ से पैसे आएंगे… एक बार पहले भी कुछ पैसे आए थे । आगे और भविष्य की सोच कर आज तो स्वाति भी चिंतित हो रही थी ।

     वो फोन पर हर समय बातें करना , पप्पी लेना और लोग न जाने क्या-क्या सोच लेते हैं ….पर हमेशा गलत ही क्यों सोचा जाता है । वाकई कभी-कभी आंखों देखी बातें भी गलत साबित हो जाती हैं ।

( स्वरचित, अप्रकाशित रचना)

संध्या त्रिपाठी

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