आत्मसम्मान – डॉ हरदीप कौर : Moral Stories in Hindi

रवि के पिता जी और छवि के पिता  जी साथ काम करते थे। रवि के पिता जी की अचानक मौत हो गई। छवि के पिता जी की मदद से रवि की नौकरी और उनकी माता जी की पेंशन लग गई। अब दोनों परिवारों में गहरे विश्वास का रिश्ता स्थापित हो गया।

             एक शाम रवि छवि के पिताजी से मिलने आया। छवि के पिता जी अभी काम से लौटकर नहीं आए थे और छवि घर पर नहीं थी। अंधेरा हो रहा था। रवि ने पूछा छवि कहां है? छवि की माता जी ने बताया कि छवि आटे की चक्की से आटा लेने गई है। रवि ने उन से कहा कि इस काम के लिए उसे बोल देते।

इतना कहकर रवि छवि को लेने चला गया। छवि कालोनी के गेट से प्रवेश कर रही थी। रवि ने उसके हाथ से साइकिल पकड़ ली और उस से कहा कि आज के बाद वह अंधेरे में कहीं नहीं जाएगी। छवि को  ऐसा लगा जैसे उसे बड़ा भाई मिल गया है। 

                          रवि ने छवि के माता-पिता से कहा कि वे लोग उसे अंधेरे में अकेले नहीं भेजेंगे। छवि के पिता ने कहा कि उन्होंने छवि की परवरिश बेटे की तरह की है। रवि ने कहा बहुत अच्छी बात है पर दुनिया की नजर में छवि एक लड़की ही रहेगी। पिता जी ने कहा कि वह कौन होता है? उनके और उनकी बेटी के बीच में आने वाला। उन्होंने छवि को हमेशा मजबूत बनाया है। कोई उसे कमजोर होने का अहसास कैसे दिला सकता

है? तब रवि ने कहा कि वह छवि का बड़ा भाई है। वह छवि के साथ रहे या न रहे पर छवि अंधेरे में कहीं नहीं जाएगी। अपने काम दिन में खत्म करें। फिर भी यदि जरूरत पड़े तो उसे आवाज दे दीजिए। वह सामान लाकर देगा। पिता जी के पास कोई उत्तर नहीं था। छवि अचंभित यह सब देख रही थी। 

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पहली बार पिता जी को कोई यह समझा पाया था कि  जरूरत हो तब भी अंधेरे में लड़कियों को बाहर नहीं भेजना चाहिए। उसके कानों में बार-बार यही शब्द गूंज रहे थे कि “मैं इसका बड़ा भाई हूं। “

          राखी का दिन था। सुबह का समय था। छवि के घर की घंटी बजी । दरवाजा खोला तो सामने रवि भईया खड़े थे। छवि ने उत्सुकता से पूछा,”भईया आप इतनी सुबह- सुबह? 

तो रवि ने उस से कहा कि जल्दी से राखी बांध दे और एक कप चाय पिला दे। डियूटी जाना है। 

     छवि ने अपने बड़े भाई को पहली बार राखी बांधी, फिर चाय बनाकर लाई। भईया चाय पीकर डियूटी पर चले गए।

            अगली राखी पर रवि भईया ने छवि को अपने घर  बुलाया और कहा कि रीति अनुसार उनके घर आकर राखी बांधा करे। 

              फिर रवि भईया का विवाह हो गया। भाभी सुन्दर, सुशील और प्यारी आई। विवाह के बाद छवि राखी बांधने गई तो भईया घर पर नहीं मिले। छवि निराश लौट आई। कुछ दिन बाद रवि भईया घर आए और बताया कि भाभी की तबीयत ठीक नहीं थी। वह अपने मायके में है और वह वहीं गए थे। छवि ने भाई को खुशी -खुशी राखी बांधी।

                अब रवि भईया के घर एक छोटी सी गुड़िया भी आ गई थी। राखी के दिन जब छवि राखी बांधने गई तो भाभी ने छवि से कहा कि उसे आने की जरूरत नहीं थी राखी तो गुड़िया ने ही बांध देनी थी। 

       छवि के आत्मसम्मान पर यह बहुत बड़ी चोट थी। उसने भरे हुए मन से भाई को राखी बांधी और इस प्रण के साथ लौट आई कि अब कभी वह  राखी  बांधने उनके घर नहीं जाएगी।

              अगले वर्ष रवि भईया इन्तजार करते रहे पर छवि राखी बांधने नहीं गई। रवि भईया ने अपनी बेटी से भी राखी नहीं बंधवाई। भाभी को अपनी ग़लती का अहसास हुआ।

               उन्होंने छवि से माफी मांगी और  राखी बांधने को कहा पर छवि नहीं मानी। उसने कहा कि  अगर रवि भईया को राखी बंधवानी है तो उन्हें स्वयं ही आना पड़ेगा। 

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       भाभी ने रवि भईया से बात की तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि उनकी कोई ग़लती न होने पर भी उन्हें सजा मिली। इस कलाई पर राखी तो सिर्फ छवि ही बांध सकती है और वह यहां आकर ही बांधेंगी।

             इस बात का पता छवि को तब चला जब उसका भाई सूनी कलाई लेकर इस दुनिया से रुखसत हो चुका था। रवि ने ताउम्र अपनी कलाई के लिए छवि की राखी का इंतजार किया। छवि के पास अब पश्चाताप के सिवाय कुछ नहीं बचा था। 

                  दोनों भाई बहन अपने अपने आत्मसम्मान के लिए कच्चे धागे के पक्के रिश्ते को जीते जी खो बैठे।

 

स्वरचित मौलिक रचना 

डॉ हरदीप कौर (दीप)

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