देवकन्या (भाग-22) – रीमा महेन्द्र ठाकुर : Moral stories in hindi

सोलहा कलाओं की कन्या  का रहस्य “””

कंधे पर स्वेतम्बर की झोली”उसमे हृदय के समीप दक्षांक  को टुकुर टुकुर देखती अमरा   को लिऐ”आंगन मे प्रवेश  करते है!

लकडियो का बोझ  धरा पर पटकते हुऐ”झोली मे झांक कर पुत्री की ओर देखते है”””दृष्टि डालते ही सारी थकान मिट जाती है””

गमछे से पसीना पोछकर पुत्री को उलट-पलट कर देखते है कही कुछ  खरोच तो नही आयी!

फिर उसे झोली से बाहर निकालकर, उसके नन्हे हाथो को चूमते हुए   पुचकारते है”””फिर बहुत सारा लाड लगाकर ,खुद शिशु की भांति बातें करने लगते है!

क्या देख रही है अम्मो”

बाबा परिश्रम नही करेगें तो ‘तो जीवन कैसे यापन होगा””

कुछ समय उपरांत तेरे वाग्दान के लिए  भी तो बहुत सारा धन अर्जित करना होगा “”

अकस्मात ही वो नन्ही बलिका अमरा  किलकारी भर मुस्कुराने लगती है”””

उसको मुस्कुराते देख ,राजनायक विभोर हो उठते है”उनका वात्सल्य इतना तीव्रगति  से बढता है की अमरा को एक बार फिर से हृदय मे छुपा लेते है”””

पिता पुत्री एक दूसरे मे ही रमे रहोगें तो,मुझ अभागन मां का क्या होगा””लाओ मेरी पुत्री मुझे दो”””

दक्षांक की अर्धांगिनी  पति की ओर हाथ बढाते हुऐ  बोली “””

जरा ठहरो भाग्यवान”””””

वो पूरी बात बोल भी न पाये की””उनका मुहं आश्चर्य से खुला रह गया “””

अमरा  खिलखिलाकर आकाश की ओर देख रही थी!

उसके हंसने से ,अकस्मात ,,आकाश से मोतियों की वर्षा होने लगी”””वो आश्चर्य से आकाश से बरसते मोतियों को देख रहे थे!

जैसे जैसे  बच्ची किलकारी भरती, वैसे वैसे  वर्षा होती”””

राजनायक दक्षांक कभी  कन्या की  ओर देखता  तो कभी आकाश की ओर””विस्मय   से  वो, अकल्पनीय घटना को देख रहा था!!!

ये क्या पुत्री”””

पिता की ओर देखकर कन्या , और जोर से खिलखिला उठी”””

उसकी खिलखिलाहट से मोती और भी तीव्रता  से गिरने लगे”””

ये सब देख ,उन्ही बरसते मोतियों के बीच”वो झूम उठा””

उसे सब स्वप्न सा लग रहा था!

मोतियों से बरसते आसमान के नीचे”अमरा  को हाथों मे छुपाये ,

झूमते दक्षांक   खुद को , बडा अदितीय अनुभव कर रहा था!

परन्तु   अकस्मात  ही उसके पग रूक गये”””मुस्कुराहट मंद पड गयी! भय से अधर सिकुडने लगे”वो तीव्रगति से  अंदर की ओर भागा”भीतर पहुँच कर लम्बी सांस भर खुद से बातें करने लगा”””कही वो वर्षा मेरी पुत्री के रूदन से तो नही प्रारंभ हुई थी!नही नही ऐसा कैसे””” संभव हो सकता है””उसने अपने मन को समझाने की  चेष्टा की”””

ऐसा तो तभी  संभव हो सकता है ,जब सोलहा कलाओं से परिपूर्ण कोई त्रिलोक सुदंरी  देवकन्या  अवतरित हो”नही  पुत्री नही ,आज से तेरी भलाई के लिए  न तुझे हंसने दूंगा न ही अश्रु बहने दूंगा “”

मै राजनायक दक्षांक  ,ये प्रतिज्ञा लेता हूं, की खुशी और रूदन से अपनी पुत्री को दूर रखूगां’ताकि कोई आपदा उसका नुकसान न कर पाये””” इसे हर विपत्ति से बचाऊंगा “”” ये मेरा वचन है”””

स्वामी ये सब क्या है”””

धैर्य रखो देवी”””””आपकी पुत्री आपको पूर्ण सुख देगी””आप सौभाग्यशाली है, जो आपकी गोद को”सोलहा कलाओं  वाली पुत्री ने  ममता वात्सल्य से भर दिया “””

स्वामी ये जो कुछ हुआ,मेरी मूढ बुद्धि न समझ पायी!!

देवी आप निश्चित  रहो,अब ये सब कभी न होगा”””

स्वामी”””

देवी अब अधिक प्रश्न नही”””सारे मोती समेटकर गण्डंक नदी मे विसर्जित कर दो”””

स्वामी”””

लोभ नही देवी “””

मै”मां हूं ,मेरी पुत्री के विषय मे जानने का पूर्ण अधिकार है”””

देवी सुनो ,

आज की घटना का  जिक्र भूलकर भी मत करना,

नही तो विपत्तियों से बहुत शीघ्र  ही हमारा सामना होगा, और हमे संतान सुख से वंचित  होना  पडेगा”””

आप निश्चित   रहिऐ स्वामी ,मुझे सिर्फ मेरी संतान की सुरक्षा ही प्रिये है”””

मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी””””देवी”””

दक्षांक ने पुत्री   की ओर देखकर पत्नी को अश्वासन  दिया””

मेरी पुत्री,आज से प्रस्तुत क्षण से तुझे तेरा रूदन, हंसी त्यागनी होगी””

तेरे भविष्य के लिऐ ,ये मुझे करना ही होगा”””मै दक्षांक  गंगा की सौगंध खाकर वचन लेता हूं “आज से न तुझे सुख दूंगा न दुख, की छाया पडने दूंगा”तुझे सुख दुख का कुछ भान न होगा ” न मेरे अधरों पर कभी सुख दुख के भाव आऐगे “””

ये बोलते हुए  दक्षांक , वेदना पूर्ण हृदय से आकाश की ओर देखने लगे”””सूर्य के अस्त होने की ललिमा धीरे धीरे रात्रि की ओर बढने लगी””समयचक्र भी  गतिमान  हो अपने लक्ष्य  की ओर बढ चला “””” समय कहां ठहरता है, न जीवन मृत्यु ही ठहरती है,और एक रात्रि दक्षांक  की पत्नी ताप के चलते काल के गाल मे समा गयी”””

राजनायक तो जैसे पाषाण मे बदल गये””

पुत्री के लालन पालन मे   कोई कोताही न बरती”परन्तु  वार्तालाप  अवश्यकता  अनुसार ही करते””

अमरा अब सात वर्ष की हो गयी थी”परन्तु  उसने कभी भी बाबा को  हास्य करते नही देखा””

अमरा को लगा शायद मां के असमय चले जाने से बाबा कठोर हो गये!

इस बीच मधूलिका के साथ ,खेलते खेलते, अमरा पांच वर्ष की हो गयी,और एक दिन सुबह सूचना मिली की ,मधूलिका की मां  ने जीवन त्याग दिया””‘कुछ समय पश्चात, मधूलिका के बाबा उसके लिए  दूसरी मां ले आये”””जो मधूलिका  को बहुत मारती थी ,इससे अक्सर ,अमरा क्षुब्ध हो जाती!

अमांवा मे पांच वर्ष बीता, कर आखिर एक दिन,पुत्री,को लेकर ,राजनायक, गंडक के किनारे किनारे  चलते,गंडक कुंड  आ गये””वो जगह बडी अद्भुत थी,वहां की जलवायु पवित्र, और भक्तिपूर्ण थी! राजनायक ने वही,अपनी छोटी सी कुटिया निर्मित कर ,जनजीवन से दूर प्रकृति की गोद मे ,पुत्री  अमरा के साथ ,एंकात  ,जीवन बीताने लगे”

गंडक कुंड,  के मुहाने  पर विशाल झरने की मुंडेर  पे ,सौन्दर्य  की आभा लिऐ   अमरा  खुद मे खोई हुई  थी”” देखकर ऐसा प्रतीत  हो रहा था  की जैसे किसी अनगढ मूर्तिकार ने अनजाने  ही उसे खुद की कल्पना से आकार दिया हो”””

वो धीर गंभीर धैर्य की मूर्ति सी प्रतीत हो रही थी,, झरने की फुहार उसके चेहरे पर पड रही थी,जैसे ओस की बूदें सुबह पत्ते पर चमकते हुए,  पवित्र मोहक सी लगती बस वैसे ही  उसके चेहरे से फिसल रही थी!

उठते पक्षियों को देखकर मुस्कुराना चाहती है,परन्तु नीरिहता सी देखती”है,एक स्थीरता थी उसके व्यक्तित्व में ‘न प्रसन्नता न उदासीनता ऊपर गिरते झरने को एकटक निहार रही थी!

तभी उसके कानों मे बापू के स्वर गूंजते  है ,वो उधर ही देखने लग जाती है”

तभी उसे जल से राजनायक  ऊपर आते है,अपने हाथ से जनेऊ भांजते हुऐ ऊं नमः शिवाय मंत्र का जाप करते हुए  ,नदी के अंदर ही सूर्य को अर्ध्य  देकर प्रणाम करते है!

नदी से बाहर निकल वो अमरा के समीप आकर”””चलो अम्मो भोजन का समय हो गया””

उसने शायद बाबा की बात न सुनी”””वो तटस्थ  उसी भाव मे बोली”””””बाबा ये जल कहां से आता है”””

नभ से पुत्री”””””

कहां जाता है बहती धारा की ओर अपलक देखती हुई  अमरा  बोली”””

सागर में परन्तु  पुत्री  आज ये प्रश्न क्यूँ पूछ रही हो,

झरने से निकलती स्वर रागिनी,नदियों से उठती तरंगें पवन संग बहती उमंगें,पक्षियों की चहचहाट, जैसे कुछ वर्णन करना चाहती है”””

बाबा,कदाचित ऐसा प्रतीत होता है”की जैसे सब मुझसे ही प्रगट हुऐ हो!

यह सुन दक्षांक के ललाट पर चिंता की लकीरें खीच गयी!

परन्तु   उन्होने अमरा को कुछ महसूस न होने दिया””””

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रीमा महेन्द्र ठाकुर

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