आज हरिद्वार से घूमकर एक माह बाद सिद्धेश्वर जी अपनी पत्नी के साथ घर आये। गेट पर ही नेमप्लेट लगी थी…चार्टर्ड एकाउंट रमेन्द्र गोयल।
अचानक ये नए रूप में मेन दरवाजे पर देखकर कुछ चुभा। पर वह बोले नही कुछ, अभी तक बाबूजी के देहांत के बाद यह बड़ा सा दुमंजिला घर बाबूजी के ही नाम पर था।
दोनों भाई बड़े प्रेम से दोनों मंजिलों पर परिवार संग अलग रहते थे।
सिद्धेश्वर जी की एक बेटी ही थी, जो ससुराल में अपने परिवार के साथ सुखी थी। अभी एक माह पहले ही उन्होंने हरिद्वार घूमने की सोची, क्योंकि जीवन पूरा आफिस के काम मे व्यस्त रहे, पत्नी को समय नही दे पाए।
शाम को ही उनके दोस्त उनसे मिलने आये और पूछ बैठे, “क्या आप हरिद्वार में रहने का मन बना लिए हैं?”
“नहीं ऐसा तो कुछ नही।”
“भई, हमने तो मोहल्ले में यही सुना, इसलिए छोटे ने ये घर अपने नाम करा लिया।”
सिद्धेश्वर जी जो छोटे को अपनी जान समझते थे, उसकी करतूत सुनकर सकते में आ गए, दिल टूट गया।
दूसरे ही दिन छोटे ने सुबह आकर भैय्या के पैर छुए, कब आये आप, मुझे पता ही न लगा।
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“बहुत सुंदर नेम प्लेट लगवाए हो, अच्छा लगा, छोटे तुम्हारा नाम जगमग होए।”
“हां, भैय्या, थोड़ा काम करवाये हैं। आप बोलते थे न आपको हरिद्वार में बहुत अच्छा लगता है, हम यही सोचे, अब तो वहीं पूजा पाठ करेंगे। पेंशन तो आपकी बहुत बढ़िया है। इसीलिए बाबूजी का नाम बदलवा दिए। समय से कागज़ बन जाये तो बढ़िया रहता।”
इशारे से चालाकी करते हुए छोटे ने सब कह दिया, सोचा भी नही, भैय्या को कितना दुख पहुँचेगा।
इतना तो कई बरसों से पता था, छोटे के ससुर जज हैं, बहुत कुछ करा सकते हैं। पर वह भाई जिसके लिए बाबूजी अंत समय बोल गए, देख सिद्धू, हमेशा छोटे को मेरी कमी नही होने देना। बचपन से अम्मा के हाथ से हम
एक ही रोटी आधी आधी खाते रहे, आज उसने कैसे ऐसा कर लिया, नही, नही, पत्नी के कहने में आ गया होगा। अरे मूरख हम तो पतिपत्नी हमेशा थोड़ी न रहेंगे। बेटी न मांग ले, करके तूने रिश्तों का मटियामेट कर दिया।
जो रिश्ता विपत्ति बांटने के लिए बनाया जाता है वह खुद संपत्ति बांटने के चक्कर मे बंट जाता है।
पर सिद्धेश्वर जी ने छोटे भाई से कुछ नही कहा। पत्नी को समझाते रहे, “हम जल्दी ही फिर हरिद्वार जाएंगे। अब टूटे दिल से मैं छोटे को देख नही पाऊंगा, दुख मुझे ही होगा, कि ये मेरा ही भाई है, हम सहोदर हैं क्या, एक ही कोख से जन्मे, विश्वास नही होता।”
एक हफ्ते बाद ही सिद्धेश्वर जी अपने ले जाने लायक समान पैक करने लगे। साठ बरस की गृहस्थी थी, घर मे हर सुख सुविधा की वस्तु थी। सब तो ले जाया नही जा सकता। उन्होंने जाने के एक घंटे पहले छोटे को बुलवाया
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और बोले, “सुनो, अब मैं हरिद्वार जा रहा हूँ, और जो कुछ घर मे है, सब तुम्हारे लिए छोड़ जा रहा हूँ, आखिर मेरे अपने भाई हो, और बाबूजी ने मुझे यही शिक्षा दी है, कि बड़े को सदा बड़प्पन ही दिखाना चाहिए।”
छोटे की अब आंखे खुली, और आंखे नम हो गयी और बोल पड़ा, “भैया, आप बुरा मान गए क्या, मैंने आपको जाने कहा क्या?आपका घर है, जब तक चाहे रहिए।”
“अरे छोटे, रस्सी में बल पड़ जाए, तो निशान हमेशा रह जाता है। अब आज्ञा दो।”
स्वरचित
भगवती सक्सेना गौड़
बेंगलुरु