पूरे मोहल्ले की काकी…..देवेंदर काकी….. सरल , सहज गांव की सीधी-सादी , प्यारी सी काकी ….सबके सुख-दुख की साथी.. बेटे , बहू ,नाती, पोतियों से भरा पूरा परिवार ….घर की मुखिया और कॉलोनी की मुख्य किरदार ” देवेंदर काकी “….
मोहल्ले में जिसके घर भी जाती खूब आव भगत के साथ उनकी खातिरदारी होती ….विशेष कर पड़ोस में रहने वाली रूपा के घर में तो उनका बिल्कुल घर जैसा व्यवहार था … कुछ भी खाने की इच्छा हो निसंकोच रूपा के घर से पुरी हो जाया करती थी…।
तभी अचानक बड़े बेटे का तबादला दूसरे शहर में हो गया और छोटे बेटे की ऊंचे पद पर नौकरी लग गई थी… ऑफिसर बन गया था देवेंदर काकी का छोटा बेटा …..अब काकी के परिवार को उस कॉलोनी से निकलकर ऑफीसर्स कॉलोनी में शिफ्ट होना था… जो कॉलोनी वाले और काकी के लिए बड़े गर्व की बात थी …बड़े से बंगले में रहने जो जा रही थी काकी…।
पर कुछ दिनों के बाद काकी का नई कॉलोनी में नए लोगों के बीच बिल्कुल भी मन नहीं लगता था… वो बीच-बीच में पुराने कॉलोनी में घूमने आया जाया करती थी ….विशेष कर रूपा के घर ….पर धीरे-धीरे काकी बुढी होने लगी , अस्वस्थ रहने लगी अतएव उनका आना बंद हो गया था….!
….. तभी अचानक एक दिन……..
काकी आप…. अचानक….?
आइये ना …कौन छोड़ कर गया आपको ….?
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मेरा मतलब किसके साथ आईं है रूपा ने अचानक आई 70 वर्षीय कमजोर बुढी काकी को देखकर पूछा….
काकी जैसे कुछ सुन ही नहीं रही हो ….वो इधर-उधर बड़े ध्यान से देख रही थीं….. हाथ में लाठी पकड़े हुए थीं , धीरे से लाठी को दीवार के सहारे टिका कर , आंचल में बंधी गांठ खोलने लगी…. कस के बंधे गांठ काफी मशक्कत के बाद खुले… काकी उसमें से मिचुडे हुए पचास रुपये निकाली और बढ़ाते हुए बोली …ले ना बेटा… कोई हो तो समोसा मंगवा दे …
अरे ये क्या…? आप पैसे क्यों दे रही हैं ….पैसे रखिए तो…..
हाँ – हाँ काकी आपको समोसा खिलाऊंगी ….अंदर तो आइये….हाथ पकड़ कर रूपा उन्हें ड्राइंग रूम में लेकर आ गई और कहा…. बैठिए काकी….. और एक गिलास पानी पकडाते हुए बोली ….आराम से बैठिए… और क्या बात है बताइए ….बेटा वहां नए मोहल्ले में मन नहीं लगता है , यहां शुरू से तुम लोगों के साथ रही हूं ना ….तुम्हारी अम्मा से मेरी कितनी अच्छी बनती थी अब तो वो भी नहीं रही ….!
दरअसल काकी जिन्हें हम सब देवेन्दर काकी कहते थे… देवेंदर , काका का नाम था इसीलिए काकी के आगे काका का नाम लगा देते थे ताकि समझने में आसानी हो कि हम किस वाली काकी के बारे में बात कर रहे हैं…।
पहले जमाने में तो पूरा मोहल्ला ही रिश्तेदार होते थे , उम्र के हिसाब से रिश्ते बनाए जाते थे और उन्हें पूरी निष्ठा से निभाए भी जाते थे…।
रूपा और कुछ पूछती काकी ने एक लंबी सांस भरी और खुद ही पूछा ….क्या बन रहा है बहू …? बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है गरम मसाले की …..अपनी जीभ बाहर निकाल कर स्वादिष्ट होने की पुष्टि करते हुए बोली …।
मशरूम बना रही हूं काकी…. खाना खाकर जाइयेगा….रूपा के मन में अनेक दुविधा ,आशंका ने जन्म लेना शुरू कर दिया था …वो सोच रही थी काकी का व्यवहार ऐसा क्यों लग रहा है कि उन्हें घर में शायद वो सभी चीजें आसानी से नहीं मिल पाती जिसे वो खाना चाहती हैं …..कहीं सौम्या भाभी काकी के साथ दुरव्यवहार तो नहीं करती हैं…!
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अरे नहीं , नहीं… सौम्या भाभी ऐसी नहीं हो सकती …वो तो बहुत अच्छी है.. बहुत ख्याल रखती हैं काकी का… मैं भी ना….
तभी काकी ने कहा …अरे बेटा कोई हो तो जल्दी मंगवा ना समोसा …वो क्या है ना ,बेटा ऑफिस गया है और सौम्या… अरे वो क्या बोलते हैं …हर महीने में… किसी के घर … याददाश्त पर जोर डालते हुए काकी सोच रही थीं….. तभी रूपा ने कहा …सौम्या भाभी किटी पार्टी में गई है क्या …?
हां हां बेटा.. सौम्या किटी पार्टी में गई है… मुझे छोड़कर जाती है ना तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता है… इस बार काकी बिल्कुल बच्चों की तरह शिकायत भरे लहजे में बोलीं…।
काकी की बातों से साफ झलक रहा था कि… काकी के मन के विरुद्ध यदि कुछ भी हो तो काकी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता और वो नाराज हो जाती हैं । आगे काकी ने कहा…
इसीलिए तो मैं गुस्से में बाहर बैठी थी… तभी मुझे एक पहचान वाले कार से जाते दिखे ….वो प्रणाम करने के लिए रुके… फिर मैंने कहा तेरे घर का नाम लेकर ….कोई मुझे वहां तक छोड़ देता तो अच्छा होता…. तो वो बोले ..हां चलिए ना काकी….. मैं ही छोड़ देता हूं ….तभी तो मैं आ पाई हूं… जल्दी कर बहू… दरवाजा में ताला लगा है चाबी भी मेरे पास है ….वैसे तो सौम्या के आने में देर हो ही जाती है….।
रुपा ने जल्दी से सलवार सूट के ऊपर दुपट्टा लिया और स्कूटी की चाबी निकाली और 10 मिनट के अंदर समोसा लेकर आ गई …
काकी बड़े चाव से चटकारे ले लेकर समोसे खा रही थी और बीच-बीच में बताती जा रही थी कि ….मुझे जब कभी समोसा खाने की बहुत इच्छा होती है तो मैं सोचती हूं कि मैं ऐसे चटनी में डुबोकर समोसा खा रही हूं और सोचते सोचते मन मन में ही समोसा खा लेती हूं… मुझे समोसा बचपन से बहुत पसंद है ना बेटा…।
अपनी बातों से रूपा को अचंभित होते देख काकी ने शंका दूर करने की कोशिश करते हुए कहा …वैसे मेरी बहू सौम्या भी अच्छी है ,
मेरा ध्यान भी बहुत रखती है…पर मेरे खाने-पीने में बहुत कंट्रोल करती है और मुझे छोड़कर कभी-कभी कहीं कहीं चली जाती है … बस तभी मैं उससे नाराज हो जाती हूं …मैं अभी तक समझ ही नहीं पाई हूं की सौम्या अच्छी है या अच्छी नहीं है….।
आज काकी की बातें एक छोटी बच्ची की तरह लग रही थी…
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क्या है ना वो पहले मुझे सब कुछ खाने को देती थी …एक बार मेरे कपड़े गंदे हो गए थे …..डॉक्टर को दिखाया था फिर मुझे डायपर लाकर दे दिया था …उस समय मुझे डायपर पहनने में अच्छा नहीं लगता था .. असुविधा होती थी ….कभी-कभी मैं….
काकी कहते-कहते थोड़ी रुक गई फिर बात को समेेटते हुए बस इतना ही बोलीं…. बस उसी समय से परहेज के नाम पर उबला दाल और चपाती….!
एक दिन मुझे समोसा खाने की बहुत इच्छा हो रही थी …मैंने कहा बहू एक समोसा मुझे लाकर दे दे …कसम से अब डायपर पहनने में आनाकानी नहीं करूंगी …पर उस दिन सौम्या ने मुझे बहुत समझाया ….
पता है क्या कहती है जितने बड़े-बड़े फिल्म स्टार है ना वो भी इस तरह तला भुना नहीं खाते हैं …
अरे तो मैं क्या करूं …?
नहीं खाते हैं तो वो न खाएं… पर मुझे तो खाना है ना …और तभी से मैं मौका तलाश रही थी समोसा खाने का… आज मुझे वो मौका मिल गया और मैं तेरे पास आ गई और देखा तूने मुझे समोसा खिला भी दिया… खाकर तृप्त होती हुई काकी ने कहा….!
तभी रूपा के फोन की घंटी बजी… हां सौम्या भाभी …अपनी बहू का नाम सुनते ही काकी ने इशारों में ना बताने की बात कही …..उधर से आवाज आई… मम्मीजी आपके यहां गई है क्या …
? हां …वो ….नहीं ….हड़बड़ाहट में रूपा समझ नहीं पा रही थी क्या बोलूं.. एक ओर काकी मना कर रही है दूसरी और सौम्या भाभी चिंतित होकर पूछ रही हैं ….।
आखिर में रूपा ने सच बताना ही उपयुक्त समझा ….हां भाभी आप चिंता ना करें काकी मेरे घर पर ही है…. अभी घर में कोई और नहीं है थोड़ी देर से मैं पहुंचवा दूंगी…।
थैंक गॉड ….मम्मीजी भी ना …बिना बताए ….पर वो गई कैसे…? किसी पहचान वाले की गाड़ी में बैठकर आई थी …..खैर आप चिंता ना करें…. शाम को मैं लेकर आती हूं..।
तुझे मना किया था ना बताने को.. काकी थोड़े सख्त स्वर में बोली ….अरे काकी वो सौम्या भाभी परेशान ना हो इसीलिए बताया ….अच्छा अब ये मत बताना कि मैंने समोसा खाया है ….हंसते हुए रूपा ने कहा ,ठीक है काकी…. आप चिंता ना करें …आप खाना खा ले फिर मैं आपको छोड़ आऊंगी अरे बहू अभी तो समोसा खाया है भूख नहीं है …
तू मुझे वो खुशबूदार सब्जी ही चखा दे …..कटोरी चम्मच में चटकारे ले लेकर तारीफ करती हुई मशरूम की सब्जी काकी ने बड़े चाव से खाया…।
सौम्या के फोन आने के बाद से काकी को घर जाने की थोड़ी जल्दी हो गई थी… उन्हें कहीं ना कहीं प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से डर था कि बिना बताए आई हूं बेटा बहू नाराज हो रहे होंगे…।
खैर…. स्कूटी में काकी को लेकर जाना जोखिम भरा था इसीलिए रूपा ने पति दिव्य के ऑफिस से लौटने का इंतजार किया ….!
काकी को देख दिव्य भी प्रसन्न हो गए ….कैसी हैं काकी…?
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पूछने पर काकी का कहना अपने कर्मों का फल जब तक मनुष्य भोग नहीं लेता उसे मौत भी नहीं आती बेटा… और फिर यदि मर भी गई ना तो अगले जन्म में बचे हुए कर्मों का फल भोगना पड़ेगा ….इसीलिए सोचती हूं इसी जन्म में सब निपट जाए कहकर काकी भी खोखली हंसी हस दीं…!
ससम्मान शाम को रूपा और दिव्य काकी को उनके घर पहुंचा कर आ गए…।
…. दो दिनों बाद खबर आई देवेंदर काकी नहीं रही….
ओह…. आज फिर एक अध्याय समाप्त हो गया भारी मन से रूपा और दिव्य शोक प्रकट करने काकी के घर गए….
बातों ही बातों में सौम्या की सहायिका ने बताया… जितना बन पड़ा मेमसाहब ने काकी की सेवा की… उनका बहुत ध्यान रखती थी खाने पीने से लेकर आराम करने तक का…. काकी खाने की बड़ी शौकीन थी ….काकी को बुरा ना लगे इसलिए मेमसाहब साहब भी काकी के साथ सादा खाना ही खाती थी…. एक दिन तो समोसा खाने की जिद पकड़ ली थी…. फिर मेमसाहब ने घर में बनाकर खिलाने का वादा किया तब जाकर मानी थी काकी….!
कुछ दिनों पहले से काकी के पेट की समस्या चल रही थी ….अभी-अभी तो ठीक हुई थी ….आज ही मेमसाहब आलू उबालकर समोसा बनाने वाली थी ….तब तक तो काकी ही… कहकर सहायिका भी रोने लगी…।
बिल्कुल बच्ची की तरह हो गई थी मम्मीजी… मेरा कहीं बाहर जाना भी उन्हें पसंद नहीं था…
” जैसे एक बच्चा माँ के लिए रोता है ना …वैसे ही मम्मी जी मेरे बिना बेचैन हो जाती थी “…
बस उन्हें मुझे एक ही शिकायत थी खाने पीने में मैं कंट्रोल जो करती थी …
दिल में बस एक ही बात की कसक रह गई …मम्मी जी को समोसा खाना था और वो मैं अपने हाथों से बना कर नहीं खिला पाई…. दुखी होते हुए सौम्या ने कहा …!
आगे सहायिका ने कहा ….एक दिन कान में नए टॉप्स लेने की जिद कर बैठी… बोलती है ये वाला गडता है… दूसरा चाहिए ….मेमसाहब तनिष्क से एक नया टॉप्स खरीद कर लाईं..
साहब जी ने बोला भी ….इतना महंगा क्यों ली …मां को तो ऐसे ही जिद थी …कोई भी सस्ती सी ला देती …..फिर बड़े अच्छे ढंग से मेमसाहब ने समझाया ….अरे उन्हें ऐसा ही चाहिए था… वो खुश हो गई है इसे देखकर ….फिर सब कुछ तो यही छोड़ कर जाएंगी ना…. इतनी समझदार है हमारी मेमसाहब…!
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अब तक रूपा समझ चुकी थी कि एक उम्र के बाद सोचने समझने की शक्ति कमजोर होती जाती है ..शायद देवेंदर काकी के साथ भी यही हुआ था…
रूपा ने बिना देर किए सौम्या के कंधे पर हाथ रखा और कहा …अफसोस करने की जरूरत नहीं है… काकी ने मेरे घर पर समोसा खाया था…
क्या …?
फिर रूपा ने सारी बातें सौम्या को बताई…!
इस बार सौम्या के साथ कॉलोनी की और महिलाएं भी न जाने कितनी ऐसी बातें बताई जो देवेंदर काकी ने सौम्या के लिए कही थी ….पर सभी बातों में कहीं ना कहीं सौम्या की काकी के प्रति परवाह फिकर कद्र ,प्यार झलकता था और काकी को भी सौम्या के उन्हीं बातों से शिकायत थी जो काकी के मन के विरुद्ध होती थी… जैसे काकी को छोड़कर सौम्या का कहीं जाना ….कहीं ना कहीं काकी के शिकायत में भी प्यार झलकता था…।
साथियों … बुढ़ापा बचपन का ही एक रूप होता है … असहमति ही नाराजगी का कारण बन जाती है… कभी-कभी दूसरों के घर की अंदरूनी बातों की वास्तविकता कुछ और होती है और सामने कुछ और आती हैं … वास्तविकता जाने समझे बिना किसी के प्रति अपनी धारणा नहीं बननी चाहिए…।
हर पहलू में सकारात्मक होने और लाने की कोशिश करनी चाहिए..।
( स्वरचित अप्रकाशित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना )
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