हक – डाॅक्टर संजु झा  : Moral Stories in Hindi

परिस्थितियाँ व्यक्ति को अचानक से उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है,जिसकी उसने कभी कल्पना  भी नहीं की होती है।नई पीढ़ी इतनी तेजी से बदल रही है कि जिन बच्चों की जरुरतों और खुशियों के लिए  माता -पिता रातों की नींद और दिन का चैन त्यागते हैं,वे शादी होते ही नजरें फेर लेते हैं।

शादी के बाद वे अपने परिवार  में इस तरह व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें न तो अपने बुजुर्ग  माता -पिता की भावनाओं की फिक्र रहती है,न ही उनके गुजर-बसर की परवाह!इन्हीं परिस्थितियों से जूझती हुई शीला जी आज अपने हक के लिए  बेटे के खिलाफ बहुत बड़ा कदम उठाने जा रहीं हैं।सुबह से ही शीला जी के मन में अजीब कशमकश ने डेरा डाल रखा है।

जीवन भर जिस इज्जत की डोर थामे हुए  थीं,आज वही पंचायत में नीलाम होने जा रही है।यही सोचते-सोचते उद्विग्न हो उठीं।सीने में उबलते जज्बात चक्षु से भाप बनकर  निकल पड़े। फाल्गुन का महीना था,रह-रहकर ठंढ़ी बयार  शरीर  को सुखद शीतलता का एहसास  करा रही थी,

परन्तु शीला  जी की हृदयाग्नि को यह शीतल बयार  भी शांत नहीं कर पा रही थी। बेटे के खिलाफ  पंचायत जाने की बात से रह-रहकर  शीलाजी के सीने में हजारों तीर गड़ रहें थे।उनका दिल दर्द से कराह रहा था।जिस बेटे की इज्जत  को नीलाम होने से वर्षों बचाती आईं हैं,आखिर  वो नीलाम होने पंचायत में पहुँच ही गई।

 शीलाजी सोच-विचारों के सागर में डूबने-इतराने लगतीं हैं।तीन बेटियों के जन्म के बाद  शीलाजी एक बेटा के लिए  पति के साथ मन्दिरों-मस्जिदों की दर-दर ठोकरें खाती रहीं और देवी-देवता से मन्नतें माँगतीं रहीं।आखिरकार उनकी मन्नत पूरी हुई

और उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। बेटा  का जन्म उनके तपते अतृप्त  मन के लिए  ठंढ़ी फुहारों समान प्रतीत हुआ। उनकी जिन्दगी में खुशियों की बारिश हो चुकी थी।शीला दम्पत्ति की जिन्दगी की धुरी उनका बेटा बन चुका था।

समय के साथ  बच्चे बड़े हो गए थे।बेटियों की शादी कर उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति ले ली।बेटा भी पढ़-लिखकर गृहस्थी बसाकर शहर में रम गया।शीलाजी पति के साथ गाँव में सुखमय जीवन व्यतीत कर रहीं थीं,परन्तु आनेवाले कल को किसने देखा है!एक दिन  अचानक  हृदयगति रुकने से उनके पति की मौत हो गई।

बेटे-बहू पिता का अंतिम संस्कार  कर शहर लौट गए। बेटे ने एक बार  ऊपर मन से भी साथ चलने को नहीं कहा।पति के बिना शीलाजी की जिन्दगी वीरान  हो चुकी थी,परन्तु खुद से साहस बटोरकर  और सगे-सम्बन्धियों की सहायता से वे अपना जीवन-यापन करने लगीं।पति की खरीदी हुई  कुछ जमीनें थीं,

जिसकी फसल से जैसे-तैसे उनका गुजारा हो जाता था।बेटा कभी उनकी जरुरतों को न तो महसूस करता,न ही उन्हें पैसे देता।शीला जी भी थोड़े में ही गुजारा कर लेतीं,परन्तु कभी भी उन्होंने न तो बेटे से पैसे माँगे,न तो उन्होंने किसी से कभी बेटे की शिकायत की।

हर साल उनके बेटे-बहू केवल दीवाली में घर आते।दीवाली में बेटे-बहू और पोते-पोतियों के आने से उनका घर जगमगा उठता।बच्चों के संग कुछ दिन शीलाजी का भी बचपन लौट आता।चंद दिनों में ही शीलाजी जिन्दगी भर की सारी खुशियाँ बटोर लेतीं।इस दीवाली भी बच्चे आकर लौट चुके थे।शीलाजी कुछ दिनों तक उनकी याद में मायूस रहीं,फिर जिन्दगी पूर्ववत् चलने लगी।

कुछ दिनों में शीला जी के घर के अनाज खत्म होनेवाले थे,परन्तु पट्टीदार अभी तक अनाज नहीं दे गया था।एक-दो बार  टोकने पर भी पट्टीदार उनको देखते ही कन्नी काट लेता। भेंट होने पर पट्टीदार टाल-मटोल करते हुए कहता -“माँ जी!दे दूँगा।”

शीला जी को कुछ-कुछ आभास होने लगा था कि दाल में कुछ काला अवश्य है,परन्तु उन्हें बेटे-बहू की करतूत का जरा भी आभास नहीं था।आज घर में एक मुट्ठी भी अनाज नहीं था।पिछले कई  दिनों से शीलाजी मानसिक अंतर्द्वंदों के झंझावातों से जूझ रहीं थीं।

जिस बेटे-बहू की इज्जत को मान-सम्मान के चादरों से पर्दा करके जी रहीं थीं,आज वे उसी को बेपर्दा करने को मजबूर हो गईं हैं।उनके सब्र का बाँध मानो टूट पड़ा हो।कभी भी उन्होंने बेटे से पैसे या अन्य चीजों की माँग रखी थी,बस उनके लिए  दो जून की रोटी ही काफी थी,परन्तु जब दो जून की रोटी पर भी आफत आ गई है,तो जठराग्नि बुझाने के लिए कोई-न-कोई कदम तो उठाना ही होगा।

  इसी ऊहापोह  में शाम हो गई, लेकिन  बेटे के खिलाफ  बोलने के लिए  उनका दिल  राजी नहीं हो रहा था।उसी समय उनकी सहेली नीरा  ने आकर कहा -” शीला!जल्दी से चलो,पंचायत  बैठने का समय हो गया है!

शीला जी-“नीरा!मुझे तो शर्म आ रही है।पंचायत  में बेटे-बहू के खिलाफ  कैसे बोलूँगी?

नीरा -” शीला!अपनी जीविका के लिए किसी से भीख माँगने की अपेक्षाकृत हक के लिए  आवाज उठाना ही बेहतर है।”

शीला जी अपनी सहेली के साथ  पंचायत  रवाना हो जाती हैं।गाँवों में छोटी-मोटी समस्याओं का निपटारा पंचायत द्वारा ही हो जाता है।शाम के समय पंचायत बैठने की तैयारी चल रही थी।आज शीला जी की समस्याओं का समाधान होना था।पंचों तथा गाँव के प्रतिष्ठित लोगों के लिए कुर्सियाँ लग चुकीं थीं।

शाम के समय गाँवों का दृश्य बड़ा ही मनोरम हो जाता है।हरे-भरे झूमते पेड़-पौधे,अपने घोंसला की ओर कलरव करते पक्षियों के झुंड  मनभावन दृश्य उपस्थित कर देते हैं।अपनी लाली समेटते हुए  भास्कर भी पश्चिम की ओर अस्ताचलगामी होने को तत्पर हैं।

पंचायत के बाहर पेड़ों पर पक्षियों का कलरव जारी है,मानो वे भी पंचायत  द्वारा अपनी समस्याओं का निपटारा कर रहें हों।छोटी-मोटी पगडंडियों और उबड़-खाबड़  रास्ते से गाय-बैल अपने गले में बँधी घंटियों से सुमधुर ध्वनि करते हुए अपने खूँटे पर लौट रहें हैं,उनके पीछे-पीछे चरवाहे की जोरदार  हाँक से शीला जी की तंद्रा भंग होती है।उन्हें आभास हो जाता है कि अब पंचायत  शुरु होनेवाली है।

कुछ समय इंतजार के बाद पंचायत शुरु हो गई। शीला जी  ने झिझकते हुए पंचायत के समक्ष बुझे स्वर  में अपना पक्ष रखा।अभी भी उनके मन में पंचायत में बेटे की इज्जत उछलने की ग्लानि है। उनकी दोस्त  नीरा हाथ पकड़कर उन्हें  हिम्मत  दे रही है।

बेटे-बहू तो  पहले ही शहर जा चुके हैं,परन्तु फसल देनेवाला पट्टीदार उपस्थित है।

सरपंच ने अपना सामाजिक  कर्त्तव्य निभाते हुए  पट्टीदार से पूछा -” तुमने इस बार शीला जी को फसल क्यों नहीं दिया?”

पट्टीदार-“सरपंच  महोदय!इसमें मेरी कोई गलती नहीं है।इस बार शीलाजी के बेटे -बहू ने उन्हें फसल देने से मना किया है।फसल बेचकर  पैसे भेजने को कहा है।”

बेटे-बहू की करतूत सुनकर शीलाजी का कलेजा विदीर्ण हो उठता है,पर किसी तरह खुद पर काबू रखकर पंचायत  के फैसले का इंतजार करतीं हैं।

सरपंच एक बार फिर पट्टीदार से पूछता है -” शीला जी  के बेटे-बहू ने क्यों फसल देने से इंकार किया है?”

पट्टीदार-“शीला जी का बेटा इस जमीन का हकदार है,तो मैं उनकी बात  कैसे टाल सकता हूँ?”

सरपंच  ने नाराज होते कहा -” पट्टीदार!इस जमीन का हकदार  बेटा नहीं,बल्कि शीला जी हैं।ये जमीनें उनके पति की खरीदी हुई हैं,बेटे की नहीं।इस कारण फसल की भी असली हकदार शीला जी ही हैं,उनका बेटा नहीं!”

पट्टीदार-“सरपंच  महोदय! एक बार  फोन से शीला जी के बेटे से तो पूछ लें।”

सरपंच तमतमाते हुए कहता है-“पट्टीदार! उस बेटे से क्या पूछना,जिसने माँ की दो जून की रोटी के साधन भी बंद कर दिएँ हों।पंचों का सर्वसम्मति से फैसला है कि तुम आज ही शीला जी के घर अनाज पहुँचा दो  और एक कठोर आदेश है कि शीला जी के जीवित रहते जमीन और फसल पर उनके बेटे-बहू का कोई हक नहीं!”

पंचों का विवेकपूर्ण फैसला का गाँव के लोग करते ध्वनि के साथ स्वागत करते हैं।शीला जी पंचों के सामने अश्रुपूरित नयनों से  दोनों हाथ  जोड़ लेतीं हैं।उनकी आँखों में आँसू उनका हक मिलने के कारण है या बेटे खिलाफ पंचायत जाने का ,खुद भी नहीं समझ पाती हैं।सहेली नीरा उनके आँसू पोंछकर उनके गले लग जाती है।

अभी भी गाँव में लोग एक-दूसरे की जरुरतों  और हक के प्रति मानवतावादी सोच रखते हैं और बेबाकपूर्ण निष्पक्ष फैसला सुनाते हैं।गाँवों में अभी भी रिश्तों और भावनाओं की गर्माहट खत्म नहीं हुई  है।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)

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