वो “अपनी” सी – तृप्ति शर्मा

लिफ्ट की तरफ जाते हुए ,उससे लगभग टकराने से बची थी मैं, बचाने के लिए अपना हाथ दिया उसने, परिचित सा वो अहसास ,,जिसे सालों से जीने के लिए बहुत जतन किए थे मैंने। वही चेहरा,वैसी ही बड़ी बड़ी आंखें, जिंदगी जीने की चाहत लिए । आप ठीक तो है उसकी आवाज सुनी तो दबे हुए आंसू आंखें गीली कर गये।घबरा गयी वो । उसका अपनापन फिर यादो के पन्ने पलटने लगा।  मैंने उसे हाथ हिला कर ठीक होने का इशारा किया तो वो चली गई।

मुझसे चार साल बड़ी थी वो पर रहती हमेशा मेरी माँ बनकर।सभी भाई बहनों में मेरी और उसकी बनती भी सबसे ज्यादा थी।पर न चाहते हुए भी समय के बदलाव से हम बहनें अछुती नहीं रह पाई। शादी के बाद वो दूर जाकर बस गई। मैं रह गई उसके बिना अकेली सी। फिर मेरी भी शादी हो गई। मैं भी अपने पति ,घर-परिवार में रम कर खुद को पूरा महसूस करने लगी पर उसकी यादें मन और आंखें भिगोती रहती थी दूर होने के कारण कम ही मिलना हो पाता था अब उससे।।एक दिन भाई का फोन आया कि वो चली गई।अपने दुखों अपनी जिंदगी से लड़ती हुई,हताश होकर..ससुराल में न तो उसे वो मान मिला न सम्मान.. पति की अवहेलना उसे मौत की क़गार पर ले आई।

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सुबक कर रह गई मैं कि ये क्या हो गया । उसके जाने पर उसकी नन्ही सी जान का अनजाना सा स्पर्श और सहमना अपने दुख से कहीं ज्यादा लगा जो दुनिया में आते ही माँ का आंचल खो बैठी थी और इस ताउम्र के दुख और कमी से बेखबर माँ का साया ढूंढ रही थी। फिर जंग छिड़ी बच्ची पर ममता का आंचल डालने की जिसमें जी जान से लडने के बाद भी मैं बुरी तरह हारी मगर उस अंश से जुड़ने की उम्मीद नहीं छोड़ पाई कभी, तभी तो आज इतने सालों बाद एक हल्का सा स्पर्श ,,मरी हुई बहन की यादें ताजा कर गया ..



मैंने धीरे धीरे उससे मिलना शुरू किया उसे जानना शुरू किया । वो अकेली रहती थी, बहुत कोशिश की उसके पिता के बारे में जानने की पता चला वो अब इस दुनिया में नहीं थे। अकेली थी वो और अब मैं भी, इतना घुलने-मिलने के बाद भी कभी उसने यह नहीं बताया कि वो एक शहर से दूसरे शहर क्यूँ घूमती रहती है ,पर कहीं न कहीं वो मुझसे जुड चुकी थी।एक दिन अनमनी सी घर आई बिलखती हुई। बहुत पूछा ,पर कुछ नहीं बोली वो ,बस मुझसे लिपटी रही और रोते-रोते सो गयी । हाथ से किताब गिरी और साथ ही एक फोटो जिसे देखकर मैं भी बिलख पड़ी, उसमें मैं थी जो दिन रात इस उधेड़-बुन में लगी थी कि कैसे उसे अपने और उसके बारे में बताऊँ यही डर लगा रहता था कि कहीं उसे खो ना दूँ। पर अपनी तस्वीर उसकी किताब में देखकर जो खुशी मुझे मिली उसे मैं बयां नहीं कर पा रही थी । बस रोए जा रही थी। सिसकने की आवाज से उसकी आंख खुली तो मेरे हाथ में फोटो देख उसे समझने में देर नहीं लगी कि मैं कौन हूँ।  कस के लिपट गई वो मुझसे..

,”कहाँ थी आप माँसी,माँसी आप कहाँ थी, कितना ढूंढा मैंने पर आप कहीं नहीं मिली कहाँ थी आप ?” मरते वक्त पापा ने आपके बारे में बताया था मुझे, उन्हीं से आपकी और माँ की ये तस्वीर मिली मुझे।

वो बेतहाशा रोए जा रही थी..

“मैंने तो तुझे ढूंढ लिया था ,बेटी ..मैं तो तेरे पास ही थी हमेशा से..”

मैंने उसे सीने से लगा लिया और हम दोनों गले लग कर काफ़ी देर तक रोती रहीं  आज मेरा मन हल्का थि और दिल में एक सुकून भी । पर अब शायद ,ऊपर ‘वो’ मुस्कुरा रही होगी…!

                           

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